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मुसलमानों को अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग बंद कर देना चाहिए, मोहम्मद साहब भी इसको नकारते

लाउडस्पीकर से अज़ान कभी-न-कभी तो बंद करना पड़ेगा. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इसे मौजूदा क़ानूनों को लागू करने की प्रक्रिया के तहत करने की जरूरत न पड़े बल्कि मुस्लिम समुदाय की ओर से अच्छे पड़ोसी के रूप में उनके सामूहिक विवेक और जमीर के प्रदर्शन के तौर पर हो.

दिल्ली के जामा मस्जिद की फाइल फोटो । फोटोः मनीषा मंडल । दिप्रिंट

अज़ान को लेकर पिछले कुछ सालों से जब-न-तब बेमानी किस्म का विवाद उठ खड़ा होता है. हाल में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुलपति संगीता श्रीवास्तव ने जिला मजिस्ट्रेट के यहां शिकायत दर्ज की कि अलसुबह अज़ान से उनकी नींद में खलल पड़ता है और इससे उनका कामकाज प्रभावित हो जाता है. 2017 में, गायक सोनू निगम अपने इस ट्वीट के कारण विवाद के केंद्र बन गए थे— ‘मैं मुसलमान नहीं हूं, पर मुझे सुबह में अज़ान की वजह से जाग जाना पड़ता है. भारत में धार्मिकता को इस तरह थोपना कब बंद होगा?’ लेकिन, अज़ान कैसे दी जानी चाहिए इसका इतिहास पेचीदा है. पैगंबर ने किसी यंत्र की जगह आदमी की आवाज़ को तरजीह दी थी, और 1970 के दशक में मुस्लिम समुदाय ने लाउडस्पीकर को ‘शैतान’ के रूप में देखा था.

अज़ान दिन में पांच बार नमाज पढ़ने की खातिर मुसलमानों को इकट्ठा होने के लिए मस्जिद से दी जाती है. पैगंबर मुहम्मद ने यह प्रथा मदीना में बसने के बाद और वहां मस्जिद बनवाने के बाद शुरू की थी. पांच वक़्त की नमाज के लिए लोगों को मस्जिद में बुलाने के तरीके के बारे में उन्होंने अपने साथियों से सलाह-मशविरा किया. किसी ने इसके लिए घंटी बजाने, किसी ने भोंपू बजाने, तो किसी ने आग जलाने का सुझाव दिया. लेकिन दैवी प्रेरणा के तहत पैगंबर ने मनुष्य के पक्ष में फैसला किया और इसके लिए एक अश्वेत गुलाम, बिलाल को चुना, जिसे आज़ाद किया जा चुका था.

मनुष्य की आवाज़ बिलाल की आवाज़ की तरह मध्यम सुर वाली ही क्यों न हो, उतनी दूर नहीं जाएगी जितनी दूर घंटी या भोंपू जैसे यंत्रों की आवाज़ जाएगी. लेकिन पैगंबर ने यंत्र की तेज आवाज़ की जगह मनुष्य की कम ऊंची आवाज़ को चुना. जाहिर है, इसमें उनके अनुयायियों के लिए एक सबक छिपा है कि उन्हें इस बात पर विचार करना चाहिए कि पैगंबर ने जिसके हक़ में फैसला दिया था वह मनुष्य की आवाज़ लाउडस्पीकर की मदद से तेज हो जाने के बाद भी क्या मनुष्य के आवाज़ रह जाती है? उनके लिए इस बात पर विचार करना भी बेहतर होगा कि इस तरह के जुगाड़ का इस्तेमाल मजहब को विकृत करने वाले निंदनीय आविष्कार ‘बीदत’ में तो नहीं गिना जाएगा.

इसलिए, मजहब के नजरिए से लाउडस्पीकर का कोई औचित्य नहीं है. 2020 में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कहा कि इस्लाम के मजहबी कामकाज के लिए अज़ान हालांकि अनिवार्य है, लेकिन लाउडस्पीकर का इस्तेमाल जरूरी नहीं है. इस अदालत ने सन 2000 में ‘चर्च ऑफ गॉड (फुल गोस्पेल) इन इंडिया बनाम केकेआर मैजेस्टिक’ मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सहारा लिया था, जिसमें कहा गया है कि ‘कोई भी धर्म या धार्मिक संप्रदाय दावा कर सकता है कि लाउडस्पीकर या ऐसे यंत्र का प्रार्थना या पूजा में अथवा धार्मिक पर्वों में इस्तेमाल उसका अनिवार्य हिस्सा है, जिसे अनुच्छेद 25 के तहत सुरक्षा हासिल है.’ आखिर, लाउडस्पीकर 20वीं सदी का आविष्कार है, लेकिन धर्मों का इतिहास तो सहस्राब्दियों पुराना है.


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क्या उन्हें लाउडस्पीकर की जरूरत है?

अज़ान मुसलमानों के लिए है. अगर इसकी आवाज़ गैर-मुसलमानों के कानों में पड़ती है तो यह एक असावधानी मानी जाएगी. इसका मकसद पूरा हुआ या नहीं, यह इस बात पर निर्भर होगा कि यह कितने एतमादियों को मस्जिद तक ला पाती है. आज नमाज के समय किसी मस्जिद में जाकर देखा जाए तो यही पाया जाएगा कि अज़ान सुनकर बहुत ज्यादा मुसलमान वहां नहीं आते. जुम्मे की दोपहर की नमाज़ के सिवा बाकी दिनों में नमाज के वक़्त मस्जिदों में कम ही मुसलमान दिखते हैं. और जो लोग रोज पांचों वक़्त की नमाज पढ़ने मस्जिद में जाते हैं वे अज़ान पर निर्भर नहीं करते. अगर वे करते भी हैं तो आज के युग में सबकी कलाई पर घड़ी होती है या जेब में स्मार्ट फोन होता है जिसमें तमाम तरह के इस्लामी एप तय समय पर अज़ान सुना देते हैं. इस तरह के एप ने लाउडस्पीकरों से अज़ान देने के औचित्य को खारिज कर दिया है. समय के लिहाज से यह एक विसंगति ही है, जो आधुनिकीकरण के मामले में मुसलमानों के पिछड़ेपन को उजागर करती है.

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मस्जिदों में लाउडस्पीकरों का चलन काफी हाल में शुरू हुआ. 1970 के दशक में यह तेजी से फैलने लगा था. पहले तो इन्हें सतही आधुनिकता के दिखावे के लिए लगाया जाने लगा ताकि इससे स्थानीय समुदाय की शान बढ़े, और वह अपनी बढ़ती खुशहाली के मामले में पड़ोसी मुस्लिम समुदाय से पीछे न दिखे, जिसने पहले ही अपनी मसीद में लाउडस्पीकर लगा रखी है. लेकिन इस चलन को हमेशा संदेह और विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि इसे न केवल कालातीत धर्म के मामले में आधुनिकता का हस्तक्षेप माना गया बल्कि इसकी तीखी आवाज़ को ‘शैतानी आवाज़’ भी माना गया जिससे मस्जिद की पवित्रता भंग होती है.

आज इसे सार्वजनिक जीवन में मुस्लिम समुदाय की मौजूदगी के दावे के रूप में देखा जाता है. इस भावना से भारत का बहुसंख्यक समुदाय भी अछूता नहीं है. इसलिए इसके खिलाफ जो असंतोष है, जो कि इसकी छिटपुट अभिव्यक्ति से जाहिर होता है, वह वास्तव में नमाज के लिए अज़ान दिए जाने के खिलाफ नहीं है बल्कि अपनी पहचान जताने के जुनून को उग्र रूप से दूसरों पर थोपने के खिलाफ है. अपना दम दिखाने की मुद्रा सदभाव कायम करने का सर्वश्रेष्ठ फॉर्मूला नहीं होती.


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लाउडस्पीकर हटाएं, एक संदेश दें

इसके अलावा, कुछ कानून भी बने हुए हैं. ध्वनि प्रदूषण नियम-2000 के अनुसार, लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का नियमन निर्धारित अथॉरिटी, मुख्यतः पुलिस के हाथ में है, जो वायु प्रदूषण के स्तर के मुताबिक उनकी आवाज़ को नियंत्रित करती है. जहां तक व्यक्ति का सवाल है, समाज में किसी भी समुदाय की साख इस बात पर निर्भर करती है कि वह नागरिकता और कानून का कितनी अच्छी तरह पालन करता है. जो लोग कानून तोड़ने की हठधर्मिता करते हैं वे अराजकता की मुसीबत मोल लेते हैं.

सार्वजनिक नैतिकता और सामूहिक आचार-व्यवहार दूसरों का, व्यक्ति के स्तर पर भी और समूह के स्तर पर भी, ख्याल रखने से निर्धारित होते हैं. अगर किसी चलन को निरंतर एक सिरदर्द कहा जाता है, तो इसकी निंदा करने की बजाय यह मान लेना चाहिए कि इस चलन पर सोच-विचार करने का समय आ गया है. बहुलतावादी समाज में, जिसमें कई धर्मों के लोग रहते हों, व्यावहारिकता का तकाजा यही होता है कि आपके जिन रीति-रिवाजों से दूसरों को तकलीफ पहुंचे उन्हें निजी तौर पर ही मनाइए.

राज्य की नीति के तौर पर धर्मनिरपेक्षता का भविष्य तभी सुरक्षित रह सकता है जब इसे जमीन पर समुदायों के सदभावपूर्ण आचरण का सहारा मिलेगा. भारत न तो 1976 में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़ने से धर्मनिरपेक्ष बना, न 1950 में संविधान लागू किए जाने के बाद बना. हम तो हमेशा से धर्मनिरपेक्ष रहे हैं. यह शब्द भले ही पश्चिम से आया हो लेकिन इसका विमर्श उधार में लिया हुआ नहीं है. हमारी धर्मनिरपेक्षता समाज और संस्कृति से उपजी है, यह न तो राज्यतंत्रीय रही है और न वैधानिक. यह धर्मों के सह-अस्तित्व का मामला है, फिरकापरस्त झगड़ों का नहीं. धर्मनिरपेक्षता के सामाजिक दस्तूर के प्रति किसी तरह का भी अनादर राज्य नीति के तौर पर इसके अस्तित्व को अपूरणीय क्षति पहुंचाएगा.

लाउडस्पीकर से अज़ान देना कभी-न-कभी तो बंद करना पड़ेगा. उम्मीद यही की जानी चाहिए कि इसे मौजूदा क़ानूनों को लागू करने की प्रक्रिया के तहत करने की जरूरत न पड़े बल्कि मुस्लिम समुदाय की ओर से अच्छे पड़ोसी के रूप में उनके सामूहिक विवेक और जमीर के प्रदर्शन के तौर पर हो.

(नज़मुल होदा एक आईपीएस अधिकारी है. व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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1 टिप्पणी

  1. बेशक, हिंदुओं को भी यही करना चाहिए। अजान तो पांच बार कुछ मिनट के लिए होती है, हिंदू पर्व-त्योहारों में दिन-रात भी भोंपू बजता है। सबसे अधिक पढ़ाई करने वाले बच्चों को झेलना पड़ता है जिनकी नींद लगातार पूरी नहीं होने से भविष्य ही चौपट हो जाने की आशंका पैदा हो जाती है। इसलिए प्रस्वाव स्वागत योग्य है।

    राज बल्लभ

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