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नीतीश कुमार को समर्थन देकर मोदी-शाह अपना 2020 का अधूरा एजेंडा पूरा कर रहे हैं

लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार भाजपा के लिए बेहद नाकारा हो जाएंगे. बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा 2025 में अगले विधानसभा चुनाव का इंतज़ार नहीं करेगी.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो | एएनआई
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो | एएनआई

पहली नज़र में रविवार को नीतीश कुमार की नई चाल उनकी ‘प्रतिभा’ की एक और झलक जैसी लग सकती है. बिहार के मुख्यमंत्री घिरे हुए थे. विपक्षी गठबंधन इंडिया में, उनकी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा को कोई भाव नहीं दे रहा था.

वैसे भी गठबंधन टूट रहा था. उनके दोस्त-उर्फ-विरोधी-उर्फ-दोस्त पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने लोकसभा चुनाव के बाद अपने बेटे, उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के लिए पदोन्नति की मांग करने के लिए लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करने वाले थे. जनता दल (यूनाइटेड) के सांसद, विधायक और यहां तक कि आम लोग भी बेचैन और असुरक्षित महसूस कर रहे थे. यह केवल समय की बात होती जब वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल होना शुरू कर देते, खासकर तब जब अयोध्या मंदिर में राम लला के प्रतिष्ठा समारोह की गूंज पूरे बिहार में जोरदार तरीके से हो रही थी.

तो, कुमार के पास क्या विकल्प थे? दिसंबर 2022 में उन्होंने घोषणा की कि तेजस्वी यादव 2025 में महागठबंधन अभियान का नेतृत्व करेंगे. इस तरह वस्तुतः उन्होंने अपने डिप्टी को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.

तब कम ही लोगों ने उन पर भरोसा किया. कुमार के बारे में अगर कोई एक बात से इनकार नहीं कर सकता तो वह है सत्ता के प्रति उनका प्रेम. तेजस्वी यादव के बारे में अपनी टिप्पणी के लगभग छह हफ्ते बाद बिहार के सीएम ने एक जोरदार बयान दिया — “मर जाना कबूल है, उनके साथ जाना मुझे कभी कबूल नहीं है.”

लोगों को फिर से उनके बयान पर विश्वास नहीं हुआ था. वो 30 जनवरी 2023 का दिन था. ठीक एक साल बाद कुमार ने बीजेपी से फिर से हाथ मिलाकर नौवीं बार बिहार के सीएम पद की शपथ ली जो कि एक तरह का वर्ल्ड रिकॉर्ड है. अगर कुमार की राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं हैं, तो उनके कभी स्थायी दोस्त भी नहीं रहे हैं. एक समय के उन दोस्तों और भरोसेमंदों की लिस्ट पर गौर कीजिए, जिन्हें उन्होंने छोड़ दिया था — लालू यादव, जॉर्ज फर्नांडीस, शरद यादव, आरसीपी सिंह, प्रशांत किशोर, और कईं अन्य.

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लंबी कहानी को संक्षेप में कहें तो, कुमार का न्यू—यू—टर्न कोई हैरान कर देने वाला नहीं है. उन्होंने 2014 में हवा का रुख समझने में गलती की और लोकसभा चुनाव में अकेले उतरने का फैसला किया. उन्हें जद (यू) के लिए दो सीटें मिलीं. वह 2024 में हवा के रुख को नहीं समझने में गलती नहीं करने वाले थे.


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बीजेपी की असुरक्षा?

जो बात कई लोगों के लिए हैरान कर देने वाली हो सकती थी, वह थी भाजपा की फिर से उनके साथ संबंध जोड़ने की इच्छा. पिछले अप्रैल में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने घोषणा की थी कि भाजपा के दरवाज़े “नीतीश कुमार के लिए हमेशा के लिए बंद हो गए हैं”.

तो, जब भाजपा की लहर चल रही हो तो वह दरवाज़ा क्यों खोलेगी? 2020 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को कुमार को जोरदार झटका देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘हनुमान’, लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के चिराग पासवान मिले. पहली बार भाजपा गठबंधन में बड़े भाई के रूप में उभरी, जद (यू) की 43 सीटों के मुकाबले 74 सीटें जीतकर. पासवान ने 25 सीटों पर जद (यू) को हराने में भूमिका निभाई.

चिराग अगर नहीं होते तो कुमार अभी भी गठबंधन में ड्राइविंग सीट पर होते. उन्होंने अपना बदला लेने के लिए एकमात्र एलजेपी विधायक को जद (यू) में शामिल कराया, एलजेपी को विभाजित किया और पासवान के चाचा पशुपति कुमार पारस के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह पक्की की. कुमार स्पष्ट रूप से इस बात से नाराज़ थे कि भाजपा ने उन्हें राजनीतिक रूप से कैसे खत्म करने की कोशिश की.

यह उन दुखदायी बिंदुओं में से एक था जिसके कारण उन्हें अगस्त 2022 में भाजपा से नाता तोड़ना पड़ा और लालू यादव और साथियों के साथ सरकार बनानी पड़ी.

तब से अब तक नदी में काफी पानी बह चुका है. नीतीश कुमार तो अब लौटे हैं लेकिन इसके पहले ही बीजेपी को अपना 2014 वाला गठबंधन वापस मिल गया था. पूर्ववर्ती राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) के उपेंद्र कुशवाहा ने जद(यू) छोड़ दिया था, अपनी पार्टी बनाई थी और अब एनडीए में वापसी के लिए बातचीत कर रहे थे. सीटों को लेकर दोनों के बीच चल रहे विवादों के बावजूद भाजपा ने चाचा और भतीजे के नेतृत्व वाले एलजेपी के दोनों गुटों का समर्थन लगभग हासिल कर लिया था. 2014 में बीजेपी-एलजेपी-आरएलएसपी गठबंधन ने करीब 39 फीसदी वोट शेयर के साथ 40 में से 31 सीटें जीती थीं. हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) के जीतन राम मांझी पहले से ही बीजेपी के सहयोगी थे और विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी एनडीए में शामिल होने के लिए उत्सुक थे. यह सब कुछ नीतीश कुमार के फिर से पल्टी मारने के पहले ही हो गया था.

इंडिया गुट के उजागर होने और मोदी ब्रांड के और भी मजबूत होने के साथ-खासकर अयोध्या मंदिर के बाद-एक आम धारणा बन गई थी कि इस बार बीजेपी बाजी मार ले जाएगी, जब केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के लिए सब कुछ बहुत अच्छे से काम कर रहा था, तो बिहार में कुमार की ज़रूरत फिर से क्यों पड़ी.

भाजपा ने कुमार को नया मौका देने का निर्णय क्यों किया जब उसे उन्हें खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए थी? कुमार एक पुराने ‘विकास पुरुष’ से आज एक ऐसे व्यक्ति में बदल गए हैं जो विकास की चुनावी अनुपयोगिता के प्रति आश्वस्त दिखते है. कुमार के लगातार अलोकप्रिय होने के साथ, भाजपा के लिए बिहार में आगे बढ़ने का समय आ गया है. इसके बजाय, इसने कुमार को बिहार की कीमत पर अपने राजनीतिक फायदे के लिए पीएम मोदी की लोकप्रियता का लाभ उठाने में सक्षम बनाने का विकल्प चुना है.

यह तर्क दिया जा रहा है कि एनडीए ने 2019 में बिहार की 40 में से 39 सीटें जीती थीं और अगर कुमार विपक्षी गठबंधन में होते तो एनडीए को कई सीटों का नुकसान हो सकता था. इसी बात ने शाह को उनकी बात मानने और उनके लिए दरवाज़े खोलने के लिए प्रेरित किया. कोई यह तर्क दे सकता है कि भाजपा हर अतिरिक्त सीट के लिए जी-जान लगा देती है और यहां हम एक महत्वपूर्ण राज्य में उसके दांव के बारे में बात कर रहे हैं. सच है, लेकिन अयोध्या घटना से बढ़ी ‘मोदी लहर’ भी भाजपा के लिए कुमार पर अपनी निर्भरता खत्म करने का एक सुनहरा अवसर थी. तो, भाजपा ने उल्टा रुख क्यों अपनाया? क्या पार्टी ‘असुरक्षित’ महसूस कर रही थी? ज़रूरी नहीं. सच इसके ठीक विपरीत है.

मिशन: नीतीश कुमार का राजनीतिक करियर खत्म करना

पिछले साल, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपनी टिप्पणी से बिहार के राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी थी कि क्षेत्रीय दलों का ‘सफाया’ तय है.

निश्चित रूप से वह मोदी-शाह के विचारों को प्रतिबिंबित कर रहे थे. नड्डा तब तक कुछ नहीं करते या कहते हैं जब तक उन्हें पता न हो कि उनके आकाओं के मन में क्या है. तो यह कुमार को ‘छूट’ देने के भाजपा के फैसले से ये कैसे मेल खाता है? सच तो यह है कि इसमें कोई विरोधाभास नहीं है. बिहार में भाजपा द्वारा नियुक्त किए गए दो उपमुख्यमंत्रियों- सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा को देखिए, दोनों कुमार के कट्टर आलोचक हैं. पिछले साल जुलाई में बिहार विधान परिषद में जब कुमार ने चौधरी पर हमला किया और पूछा कि उन्होंने मुरेठा (पगड़ी) क्यों बांधा है, तो चौधरी ने जवाब दिया, “आपको मुख्यमंत्री पद से हटाने का यह मेरा संकल्प है.”

कुमार के नवनियुक्त डिप्टी के रूप में उन्होंने रविवार को भी मुरेठा बांधा हुआ था. उनका संकल्प जारी है, जहां तक एक अन्य डिप्टी विजय सिन्हा का सवाल है, जब वह एनडीए सरकार के दौरान बिहार विधानसभा के अध्यक्ष थे, तब वह कुमार के साथ द्वंद्वयुद्ध में लगे रहते थे.

इन दोनों को कुमार के डिप्टी के रूप में नियुक्त करने के भाजपा आलाकमान के फैसले से यह पता चलता है कि पार्टी नेतृत्व के मन में क्या है — बिहार के सीएम का आज नहीं तो कल जीवन कठिन बनाना. उनकी जो भी चुनावी उपयोगिता है, उसका उपयोग करने के लिए भाजपा को लोकसभा चुनाव में उनकी ज़रूरत है. फिर पार्टी 2020 के विधानसभा चुनाव से अपने अधूरे एजेंडे को पूरा करने के लिए वापस जा सकती है: नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर को खत्म करने के. एक बार जब मोदी तीसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में आ जाएंगे, तो भाजपा कुमार के पैरों तले ज़मीन खींच सकती है और बिहार में भाजपा की वास्तविक ताकत का एहसास करने की कोशिश कर सकती है.

और जब भाजपा कुमार पर दबाव डालना शुरू करेगी तो जदयू के सांसद और विधायक, डूबते सूरज से मुंह मोड़ने वाले राजनेताओं की तरह, भाजपा या यहां तक कि तेजस्वी यादव के साथ बेहतर भविष्य देखेंगे. लालू यादव, राहुल गांधी, या यहां तक कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के दीपांकर भट्टाचार्य भी बहुत उदार नहीं होंगे, यह देखते हुए कि कुमार ने उन्हें बार-बार कैसे धोखा दिया है.

अनिवार्य रूप से कुमार लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के लिए बेहद अपरिहार्य हो जाएंगे. भाजपा बिहार में अपना मुख्यमंत्री CHAHEGI जब TAK कि मोदी लहर जारी है. वह अक्टूबर-नवंबर 2025 में अगले विधानसभा चुनाव का इंतज़ार नहीं करेगी. यही कारण है कि कुमार के कुछ पूर्व महागठबंधन सहयोगियों को लगता है कि वह दोनों में अपनी सौदेबाजी की शक्ति बनाए रखने के लिए लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना चाहेंगे. हालांकि, भाजपा के इसके लिए बाध्य होने की संभावना नहीं है. हो सकता है कि वह बीजेपी के समर्थन से सीएम बने रहना चाहें, लेकिन यह बीजेपी के विस्तारवादी एजेंडे के अनुरूप नहीं होगा, खासकर बिहार में.

जितनी जल्दी कुमार चुनावी प्रासंगिकता खो देंगे, बिहार में भाजपा उतनी ही मजबूत होकर उभरेगी. नवगठित एनडीए सरकार के 2024 तक टिकने की संभावना नहीं है जब तक कि कुमार भाजपा को सत्ता सौंपने के लिए सहमत नहीं हो जाते और सम्मानजनक तरीके से बाहर नहीं निकलते. एग्जिट क्लॉज़ से कुमार को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिलने की संभावना नहीं है. वह आखिरी व्यक्ति हैं जिन्हें मोदी अपनी कैबिनेट बैठक में शामिल करना चाहेंगे-निश्चित रूप से लंबी अवधि के लिए तो हरगिज़ नहीं. तो, संभावित परिदृश्य क्या है? चाहे मर्ज़ी से या दबाव में नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी खाली करनी ही पड़ेगी. लोकसभा चुनाव के बाद आकस्मिक चुनावों की स्थिति में कुमार को अपनी कुर्सी बरकरार रखने के लिए खंडित जनादेश की उम्मीद हो सकती है.

और ऐसी स्थिति में भाजपा राष्ट्रपति शासन लगाएगी और विपक्ष से उलझेगी जबकि कुमार एक और चाल के अवसर की उम्मीद में कोने में अलग-थलग पड़े रहेंगे. लोकसभा चुनाव के बाद, कुमार की स्थिति वैसी ही होगी जैसी अभिनेता अजीत ने कहा था, “राबर्ट…लिक्विड ऑक्सीजन में डाल दो. लिक्विड इसे जीने नहीं देगा और ऑक्सीजन इसे मरने नहीं देगा.”

2010 में कुमार ने भाजपा नेताओं के लिए आयोजित रात्रिभोज को रद्द कर दिया क्योंकि वह एक अखबार के विज्ञापन में मोदी — जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे — के साथ अपनी तस्वीरों से नाराज़ थे.

2024 के लोकसभा चुनावों के बाद नीतीश कुमार ऐसे विज्ञापनों के लिए बेताब होंगे, लेकिन भाजपा तब ऐसा करने के लिए इच्छुक नहीं होगी. यह 14 साल पहले जो हुआ उस पर मोदी का जवाब होगा. प्रधानमंत्री किसी भी अवमानना को माफ करने और भूलने के लिए नहीं जाने जाते.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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