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मोदी सरकार के 20 लाख करोड़ के पैकेज ने एमएसएमई क़र्ज में सुधारों का अवसर खो दिया है

बिना कोलेटरल के एमएसएमई लोन के लिए सरकार की 100 प्रतिशत सॉवरेन गारंटी, क़र्ज़दारों को ये रक़म कभी न लौटाने के लिए प्रोत्साहित करेगी, और बैंकों को भी भविष्य में उन्हें क़र्ज़ देने के लिए हतोत्साहित करेगी.

पीएम मोदी के 20 लाख करोड़ के पैकज के ऐलान के बाद बुधवार को निर्मला सीतारमण ब्यौरा देती हुईं, फाइल फोटो | एएनआई

ये एक राहत की बात है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में फिर से तेज़ी लाने के लिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज के पहले हिस्से का, इस वर्ष के वित्तीय घाटे और सरकारी क़र्ज़ पर बहुत कम असर पड़ेगा. लेकिन इसने भारत में छोटे व्यवसायों के लिए क़र्ज़ों में गहरे सुधार का अवसर गंवा दिया है.

भारत में छोटी फर्में सबसे अधिक रोज़गार देती हैं. मौजूदा पैकेज लॉकडाउन के हल्का होने पर, ऐसी फर्मों को फिर से खड़ा करके, और कमज़ोर तबक़े को सीधा पैसा भेजकर, लोगों के रोज़गार लौटाने का एक प्रयास है. 3 महीने की मियाद, जिसमें सीधे पैसा भेजने का ऐलान किया गया था, जल्द ही पूरी हो रही है.

पिछले सप्ताह सरकार ने ऐलान किया कि बजट में अनुमानित 7.8 लाख करोड़ की बजाय वो अब 12 लाख करोड़ रुपए का क़र्ज़ लेगी. ये अतिरिक्त 4.2 लाख करोड़ बमुश्किल, कोविड-19 के पहले वित्तीय पैकेज, इस वित्त वर्ष की टैक्स आमदनी में कमी, और इस साल के लिए विनिवेश लक्ष्य में आई कमी की भरपाई के लिए काफी थे.

वित्तीय सीमाओं के चलते सरकार ने, बेरोज़गारों के लिए किसी बड़े फिस्कल ट्रांसफर पैकेज का ऐलान नहीं किया, जो उधार पर आधारित हो. उसकी बजाय सरकार ने एमएसएमई इकाइयों में पैसा डालकर, इकॉनॉमी में फिर से तेज़ी लाने की कोशिश की है.


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100% गारंटी का क़र्ज़ दरअसल एक फिस्कल ट्रांसफर ही है

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित पैकेज के पहले हिस्से में, लॉकडाउन की वजह से एमएसएमई इकाइयों को पेश आ रही नक़दी की समस्या को हल करने का प्रयास किया गया है.

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लेकिन, पैकेज ने एमएसएमई क़र्ज़ से जुड़ी ढांचागत समस्याओं को दूर करने का अवसर गंवा दिया है. बल्कि होगा ये कि बिना कोलेटरल के एमएसएमई लोन के लिए दी जाने वाली 100 सॉवरेन गारंटी, बैंक तथा क़र्ज़दार दोनों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेगी, कि पैसा कभी न लौटाएं और डिफॉल्टर्स बन जाएं. इससे भविष्य में बैंक भी एमएसएमई इकाइयों को क़र्ज़ देने से बचेंगे.

3 लाख करोड़ की रक़म एमएसएमई इकाइयों को, ऑटोमैटिक कोलेटरल फ्री लोन के रूप में मुहैया कराई जाएगी. ये लोन चार साल के लिए होंगे, और पहले 12 महीने में इन्हें अदा नहीं करना पड़ेगा. दूसरे शब्दों में, ये डिफॉल्ट्स भविष्य में आने वाले वित्त वर्षों में होंगे, जब तक इकॉनमी और टैक्स वापस पटरी पर गए होंगे, और अपनी गारंटी पर ख़र्च करने के लिए, सरकार को कुछ पैसा मिल जाएगा.

100 प्रतिशत सरकारी गारंटी की वजह से बैंक भी, क़र्ज़दार के पीछे भागने का कष्ट नहीं उठाएंगे, क्योंकि क़र्ज़दार के डिफॉल्ट करने के बाद, बैंकों को ये पैसा सरकार चुकाएगी. सरकार अभी इस स्थिति में नहीं है, कि आज एमएसएमई इकाइयों को 3 लाख करोड़ रुपए दे दे, इसलिए वो ये पैसा बैंकों के ज़रिए दे रही है, और इन बैंकों को ये रक़म बाद में अदा करेगी. बैंक वैसे भी आजकल अधिक क़र्ज़ नहीं दे रहे हैं, इसलिए वो इस पैकेज को लागू करने में सक्षम हैं. इसमें उनके लिए कोई जोखिम नहीं है.

दूसरा विकल्प ये होता कि सरकार ये रक़म क़र्ज़ लेती, और फिर सरकारी विभागों के ज़रिए एमएसएमई इकाइयों को सीधे भुगतान कर देती. इसका मतलब होता अधिक वित्तीय घाटा और सरकारी क़र्ज़ में बढ़ोत्तरी, और साथ ही इसमें प्रशासनिक समस्याएं भी सामने आतीं. सार ये, कि उसमें कोई अंतर न होता.

एमएसएमई क़र्ज़ में ढांचागत समस्याएं

एमएसएमई क़र्ज़ में ढांचागत समस्याओं से निपटने के लिए, बैंकों के क़र्ज़ देने के तरीक़े में, दो बदलाव करने की ज़रूरत है. पहला ये, कि केवल इस समय ही नहीं बल्कि भविष्य में भी, छोटे व्यवसाओं को बिना कोलेटरल के क़र्ज़ देना चाहिए. ये बैंकों के कामकाज का हिस्सा बन जाना चाहिए. दूसरे ये, कि पिछले रिकॉर्ड के आधार पर, उन्हें अच्छे क़र्ज़दारों को तलाशना चाहिए, अपने बैंक में भी और दूसरे बैंकों में भी.

सीमित साधनों और क़र्ज़ की सीमित उपलब्धता की आज की स्थिति में, और भी अहम है कि पैसा ऐसी फर्मों को जाए, जो इसे अच्छे से इस्तेमाल करेंगी. बैंकों को ऐसे ऐसे क़र्ज़दारों को लोन देने से बचना चाहिए, जिनके डिफॉल्ट करने की आशंका हो. भारत में अभी तक बड़े विलफुल डिफॉल्टर्स पर फोकस किया गया है, लेकिन ये भी ज़रूरी है कि छोटे डिफॉल्टर्स को भी लोन ना दिया जाए- चाहे वो जान-बूझकर डिफॉल्टर बने हों, या भले ही उनके पास पैसे के सही इस्तेमाल के लिए कोई बिज़नेस प्लान ना हो.

इस बदलाव के लिए पहला क़दम इस मौजूदा पैकेज में उठाए जा सकते थे. पहला, बैंकों को अच्छे क़र्ज़दार ढूंढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की ख़ातिर,

ये गारंटी 100 प्रतिशत नहीं होनी चाहिए थी. जांच एजेंसियों के डर से बैंक आज जोखिम उठाने से बचते हैं. आरबीआई द्वारा पैसा मुहैया कराए जाने के बावुजूद, वो लोन नहीं दे रहे हैं, और रिवर्स रेपो रेट में गिरावट का भी असर नहीं हो रहा है, जिसमें क़र्ज़ ना देने से, बैंक मुनाफे से वंचित रह जाते हैं.

लेकिन 100 प्रतिशत गारंटी देना, और बैंकों के लिए अच्छे क़र्जदारों को लोन देने के प्रोत्साहन को ख़त्म करना, एक दूसरी चरम सीमा है.


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सुधारों की आवश्यकता

मौजूदा पैकेज में बदलाव कैसे किए जाएं? पहला, बैंकों को नुक़सान उठाने की अनुमति देना, और उन्हें आश्वस्त करना कि उनके खिलाफ कोई जांच नहीं होगी, उनके प्रलोभन बदले जा सकते हैं. इस स्कीम के तहत बैंक द्वारा एमएसएमई को दिए गए कुल क़र्ज के लिए, सॉवरेन गारंटी क़रीब 50 प्रतिशत हो सकती है. इस तरह बैंकों को ये प्रलोभन रहेगा कि वो बेहतर फर्मों को लोन दें.

दूसरे, लोन को क़र्ज़दार के पिछले लोन रिकॉर्ड से जोड़ना चाहिए, और बैंकों को भविष्य में क्रेडिट हिस्ट्री के आधार पर, बिना कोलेटरल लोन देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. इस तरह क़र्ज़दार क़र्ज़ चुकाने के लिए प्रोत्साहित होगा. अगर क़र्जदार लोन चुका देता है, तो बाद में उसके लिए और लोन लेने का रास्ता खुल जाता है.

इसके अलावा, एमएसएमई में कम क़र्ज़ की समस्या के लिए वित्तीय क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता है. एक ऐसा बॉण्ड बाज़ार विकसित करने की ज़रूरत है, जो बड़ी फर्मों की वित्तीय ज़रूरतों को पूरा कर सके. इसके लिए एक प्रतियोगी बैंकिंग सेक्टर की ज़रूरत है, जिसमें क़र्ज़दारों के क़र्ज़ चुकाने के पिछले रिकॉर्ड के आधार पर, बैंक क़र्ज़ देने के लिए उनके पीछे जाएं, ऐसा ना हो कि मुद्रा लोन देने के लिए पब्लिक सेक्टर के बैंकों को बाध्य किया जाए.

उसके लिए एक समाधान प्राधिकरण की आवश्यकता है, जो ख़राब प्रबंधन के शिकार हुए बैंक की निगरानी करके समय रहते उसे बेच सके, इससे पहले कि उसके गिरने से उसके जमाकर्ता और क़र्ज़दार मुसीबत में फंसें, और किसी दूसरे पब्लिक सेक्टर बैंक को इसे ख़रीदने को कहा जाए.

उम्मीद है कि सरकार मौजूदा विपत्ति को एक अवसर में तब्दील करेगी, और इन गहरे ढांचागत सुधारों को वापस लेकर आएगी. जैसा कि कभी-कभी कहा जाता है कि किसी संकट को कभी व्यर्थ मत जाने दो.

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