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कराची आत्मघाती हमले ने बलूच उग्रवाद को नई उड़ान दी है, पाकिस्तान अब इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता है

शैरी बलूच की मौत भले ही एक आतंकवादी कृत्य हो, लेकिन यह उस खामोशी को तोड़ती है जिसे पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में थोप रखा है.

पाकिस्तान में बलूच छात्रों को जबरन गायब करने के खिलाफ तुर्बत में विरोध प्रदर्शन

पाकिस्तान में इमरान खान की सत्ता जाने के बाद वाली राजनीति इस कदर हावी है कि तमाम अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर एकदम ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है. ऐसा लगता है कि देश की मुख्यधारा की मीडिया ने कराची यूनिवर्सिटी में 30 वर्षीय बलोच महिला के आत्मघाती हमले को कम करके आंका है, जिसमें तीन चीनी भाषा प्रशिक्षक और एक पाकिस्तानी ड्राइवर की मौत हो गई थी. अब तक ज्यादातर चर्चा निंदात्मक तौर पर ही हुई है. जबकि यह हमला निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाने से बहुत आगे की बात है—इसने चीनी भाषा के प्रशिक्षकों की जान ली है जो दो भिन्न समाजों और राष्ट्रों के बीच परस्पर द्विपक्षीय संबंधों का बढ़ाने में योगदान दे रहे थे.

मामले की प्रारंभिक रिपोर्टिंग के अलावा, कुल मिलाकर नीति इस सब पर पर्दा डालने की रही है. घटना पर अकादमिक चर्चा के उद्देश्य से एक पाकिस्तानी अखबार में लेख लिखने के मेरे प्रयास को इस विषय में कथित घबराहट के कारण हतोत्साहित किया गया. शीर्ष पर बैठे लोग इस पर बात करने के बजाये किसी बहस को खत्म कराना ही बेहतर मान रहे. ऐसा नहीं है कि आतंकवाद या आत्मघाती हमला या फिर महिलाओं का इस तरह इस्तेमाल किया जाना पाकिस्तान के लिए कोई नई बात है. यहां तक कि मजहबी-चरमपंथियों ने 2010-2011 में तीन अलग-अलग घटनाओं में महिला हमलावरों का इस्तेमाल किया. हालांकि, इस तरह एक हथियार के तौर पर आत्मघाती और महिला हमलावर का इस्तेमाल बलूच विद्रोह को हवा देने वाला है और इसे एक ऐसा मुद्दा बना देता है जिसे अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

ऐसा नहीं है कि बलूच अलगाववादी, एक हथियार के तौर पर आत्मघाती हमलावरों का इस्तेमाल करने वाले अन्य उग्रवादियों की तरह, अपने राजनीतिक उद्देश्य हासिल कर लेंगे या ये हमले एक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान को कमजोर कर पाएंगे. लेकिन ध्यान देने वाली एक अहम बात यह है कि बलूच विद्रोह को अब बलूचिस्तान में और नहीं दबाया जा सकता, जहां इस पर बमुश्किल ही ध्यान जाता है. दक्षिण-पश्चिमी प्रांत में मीडिया की पकड़ के सहारे क्षेत्र में सूचना का प्रसार रोका जा सकता है, लेकिन देश के बाकी हिस्से इस बारे में खबरों से अनजान नहीं हैं.

शैरी बलूच की मौत भले ही एक आतंकवादी कृत्य हो, लेकिन यह उस खामोशी को तोड़ती है जिसे पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में थोप रखा है. अप्रैल 2015 में पाकिस्तानी सेना ने लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज को बलूचिस्तान पर एक वाद-विवाद प्रतियोगिता रद्द करने के लिए मजबूर कर दिया. उसी माह के अंत में, कराची के एक एक्टिविस्ट सबीन महमूद की बलूचिस्तान पर एक परिचर्चा की मेजबानी के बाद घर लौटते समय गोली मारकर हत्या कर दी गई.


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बलूच विद्रोह का बदलता आधार

ताजा हमले से जुड़े तीन पहलू नजर आते हैं. सबसे पहली बात, बलूच लिबरेशन आर्मी की मजीद ब्रिगेड, जिसके साथ हमलावर शैरी बलूच जुड़ी थी, ने जानबूझकर अपनी लड़ाई शहरी पाकिस्तान पर केंद्रित की और वह भी एक ऐसे शहर को चुना जहां वह मजबूती से अपने निशान छोड़ सके. हालांकि, देश के सबसे बड़े महानगर कराची में इस समूह का यह पहला आत्मघाती मिशन नहीं था. कराची में पहला मिशन था 2018 में चीनी वाणिज्य दूतावास को निशाना बनाकर किया गया हमला. उसके बाद 2019 में पर्ल कॉन्टिनेंट होटल पर एक और हमला किया गया और फिर 2020 में स्टॉक एक्सचेंज को निशाना बनाया गया था.

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समूह के लिए अपनी लड़ाई पंजाब के शहरों तक ले जाना मुश्किल हो सकता है. वहीं, सुरक्षा एजेंसियों के लिए सिंध की राजधानी को सुरक्षित रखना मुश्किल होगा, क्योंकि लाहौर या देश के अन्य हिस्सों के शहरों के विपरीत कराची एक बलूच शहर भी है. इतिहास गवाह है कि सिंध के तालपुर शासकों ने वह क्षेत्र, जहां अंग्रेजों ने बाद में कराची बंदरगाह शहर का निर्माण किया, 1795 में कलात के खानते से हासिल किया था. चूंकि बंदरगाह शहर मकरान तट की मछली पकड़ने पर आधारित अर्थव्यवस्था से जुड़ा था, यहां शहर में शुरुआत में बसने वाले बलूच ही थे. आज, कराची में बड़ी संख्या में बलूच रहते हैं, जो 130 से ज्यादा छोटे-बड़े रास्तों के जरिये से बलूचिस्तान से जुड़ा है. इस वजह से यहां पर लगातार पूरी तौर पर नजर बनाए रखना एक कठिन कार्य ही है.

दूसरा, एक हथियार के तौर पर आत्मघाती हमले का विकल्प चुनना विद्रोहियों का आक्रोश चरम पर पहुंचने का परिचायक तो है ही, यह असमान राजनीतिक-सैन्य परिदृश्य में खुद को समान स्तर पर पहुंचाने की प्रतिबद्धता के लिहाज से भी एक महत्वपूर्ण बदलाव है. मजहबी चरमपंथियों के विपरीत, जिनके लिए आत्महत्या आगे जीवन को धन्य बनाने का आखिरी पड़ाव है, राजनीतिक विद्रोही इसे अपने आगे न झुकने वाली सरकार के खिलाफ सबसे ज्यादा उपयोगी एक सैन्य विकल्प के तौर पर देखते हैं. इस संदर्भ में, किसी विद्रोह में आत्मघाती मिशन की शुरुआत असंतुलित राजनीतिक संघर्ष बनाम बेहतर सरकारी ताकतों के बीच कथित संतुलन हासिल करने की किसी ‘लाचार आदमी की कोशिश’ जैसा है.

यह बात भी समझ से परे है कि सरकार को विद्रोहियों के राजनीतिक कारणों की कोई परवाह नहीं है. 2006 में परवेज मुशर्रफ की सैन्य सरकार द्वारा नवाब अकबर बुगती की हत्या से लेकर हजारों बलूचों की मौत और लापता होने तक, ऐसा लगता है कि धैर्य चुक गया है. ऐसा संभव नहीं लगता कि जो लोग लड़ाई का विचार आगे बढ़ा रहे हैं, वे बिलावल भुट्टो-जरदारी की तरफ से बलूच युवाओं से शांति का आह्वान किए जाने पर कोई ध्यान देंगे. जब तक सरकार बलूच और आतंकवाद दोनों की राजनीतिक मांगों पर अपना दृष्टिकोण 180 डिग्री तक बदलने पर सहमत नहीं हो जाती, तब तक अविश्वास की गहरी खाई को पाटना मुश्किल है. विश्वास बहाली मुश्किल है, खासकर इसलिए भी क्योंकि सरकार ने संवाद को लोगों के अपहरण और उन्हें क्षति पहुंचाने के एक साधन के तौर पर इस्तेमाल किया है. मुझे सेना के कुछ पसंदीदा निजी थिंक टैंकों और नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी (एनयूएसटी) के सामाजिक विज्ञान विभाग की तरफ से चलाए जाने वाले कार्यक्रमों की याद आ रही जो बलूच युवाओं को अपने दिल की बात कहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. इनका राजनीतिक इस्तेमाल किया और नतीजा कई और लोगों के लापता होने के तौर पर सामने आया.

पाकिस्तान की राजनीति हमेशा से ही हाइब्रिड रहने को देखते हुए, यह संभावना नहीं है कि राजनेताओं और सरकार को बलूचिस्तान समस्या का राजनीतिक समाधान खोजने की खुली छूट मिलेगी. सेना हर मामले में अपने कॉर्पोरेट हितों के साथ बलूचिस्तान में इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी है कि किसी सार्थक बहस की इजाजत नहीं दे सकती क्योंकि यह स्वाभाविक तौर पर उसके खुद के आर्थिक हितों के लिए एक चुनौती बन जाएगी. इसलिए, एक तरफ जहां सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा तुरबत यूनिवर्सिटी के छात्रों को सेना पर भरोसा करने और सेना और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों का हिस्सा बनने का संदेश देते हैं, वहीं बलूच युवाओं के लापता होने और उनके उत्पीड़न का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है. चूंकि सेना देशभर में बलूच युवाओं की धरपकड़ की रणनीति पर आगे बढ़ रही है, ऐसा लगता है कि सैन्य प्रतिष्ठान में किसी ने यह नहीं सोचा है कि इस असंतुलित दृष्टिकोण की क्या कीमत चुकानी पड़ेगी. आज, कोई ऐसा बलूच युवा ढूंढे मिलना नामुमकिन हो है, जो राष्ट्रवादी राजनीति को आगे बढ़ाने का इच्छुक न हो.

मजहबी नहीं, राजनीतिक विचारधारा

तीसरा, यह तथ्य कि हमले को अंजाम देने वाली युवा महिला शैरी बलूच एक संभ्रांत परिवार से ताल्लुक रखती थी, एक खास तरह के सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की ओर इशारा करता है, जिसे शायद सरकार और कई सांख्यिकी विश्लेषक देख नहीं पा रहे हैं. उन्होंने खुद को पूरा घटनाक्रम सिर्फ अमेरिकी बनाम चीनी भू-राजनीतिक टकराव के चश्मे से देखने तक ही सीमित कर रखा होगा. अगर ऐसा है भी तब भी यह समझना जरूरी है कि एक महिला ने अपने ‘क्रांतिकारी विचारों को बम’ में बदलने का इरादा कैसे बनाया. अभी सिंगापुर में रहने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक रोहन गुणारत्ना के मुताबिक, श्रीलंका में 30 फीसदी आत्मघाती हमले महिलाओं ने अंजाम दिए थे. कई निजी आघातों की वजह से ऐसा कदम उठातीं या फिर उन्हें इसके लिए बाध्य किया जाता. उदाहरण के तौर पर 17 वर्षीय श्रीलंकाई तमिल धनु, जिसने राजीव गांधी की हत्या के लिए खुद को बम से उड़ा दिया था, भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों अपने भाई की मौत से आहत थी.

लेकिन इस मामले में शैरी बलूच किसी व्यक्तिगत आघात से पीड़ित नहीं थी. आतंकवाद और महिला आत्मघाती हमलों पर एक अन्य विशेषज्ञ मिया बलूम का तर्क है कि ऐसा जरूरी नहीं हैं कि महिलाएं हिंसात्मक कृत्यों का हिस्सा बनने के लिए स्वेच्छा से खुद को चोट पहुंचाएं. वे अच्छी पढ़ाई और राजनीतिक विचारधारा से भी प्रेरित हो सकती हैं, जैसा कराची हमलावर के मामले में था. जिस तुरबत क्षेत्र से शैरी बलूच का संबंध था, वह वामपंथी विचारधारा के लिए ख्यात है. 2013 में सेना ने कुछ पत्रकारों के साथ कथित तौर पर साझा किया था कि उन्होंने अपने छापे के दौरान क्या जब्त किया—इसमें हथियार और बम नहीं बल्कि मुख्य रूप से वामपंथी साहित्य, एमके गांधी और चे ग्वेरा जैसी हस्तियों की आत्मकथा और सरकारी अत्याचारों के खिलाफ प्रचार सामग्री थी.

विकास और राजनीतिक मामलों पर क्वेटा के विशेषज्ञ रफीउल्लाह कक्कड़ के मुताबिक, शैरी बलूच की आत्महत्या बताती है कि बलूच विद्रोह की आग इसका नेतृत्व विदेश में बसे आदिवासी सरदारों से अधिक मध्यम-वर्गीय और स्थानीय स्तर के नेताओं के हाथों में आने के बाद से और भड़की है.

विश्लेषक राजनीतिक संघर्ष को मुख्य रूप से विकास के नजरिए से देखने के आदी रहे हैं. लेकिन दशकों की उपेक्षा और दमन ने बलूच के सोशल डीएनए में ही पाकिस्तानी सरकार और पंजाब के प्रति संदेह का भाव पैदा कर दिया है, यह ऐसी समस्या है जो किसी तरह के आर्थिक लालच से हल होने वाली नहीं है. जैसा दुनियाभर के संघर्ष क्षेत्रों में होता है, पाकिस्तानी सरकार भी संसाधनों के समान वितरण और राजनीति में दखल न देने के और झूठे वादे करने के लिए स्थानीय नेताओं का उपयोग करने और दमनकारी कार्रवाई के बीच अटकी रहेगी, जो इस आग में और ज्यादा घी का काम करेगा.

बलूचिस्तान भले ही आक्रोशित है लेकिन हालात ऐसे नहीं है कि इस विद्रोह की तुलना श्रीलंका के खिलाफ वेलुपिल्लई प्रभाकरन की सैन्य ताकत से की जाने लगे. लिट्टे के पास अधिक सैन्य शक्ति थी. ऐसे में, कोई समाधान नजर न आने पर भी पाकिस्तानी सुरक्षा प्रतिष्ठान इस संघर्ष पर काबू पाने की पूरी कोशिश करेगा, भले ही यह बदसूरत शक्ल क्यों न अख्तियार करता जा रहा हो.

(आयशा सिद्दीका किंग्स कॉलेज, लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ वार स्टडीज में सीनियर फेलो हैं. वह @iamthedrifter पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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