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जम्मू ड्रोन हमला कश्मीर मुद्दे को जिओ-पॉलिटिक्स से अलग करने की मुश्किल को दर्शाता है

जम्मू कश्मीर में एलओसी पर युद्धविराम और राजनीतिक तनाव में कमी जैसे रणनीतिक कदम ज़रूर उपयोगी साबित हो सकते हैं.

27 जून की तड़के दो कम तीव्रता वाले विस्फोटों के बाद जम्मू वायु सेना स्टेशन पर सुरक्षाकर्मी/फोटो: पीटीआई

जम्मू कश्मीर में या भारत-पाकिस्तान संबंधों में किसी भी सकारात्मक प्रगति के बाद आतंकवादी हमले किए जाने का एक सतत पैटर्न रहा है. इस्लामाबाद/रावलपिंडी में ऐसे ताक़तवर लोग मौजूद हैं जो भारत-पाकिस्तान संबंधों में सीमित सुधार को भी अपने निहित स्वार्थों के लिए खतरा मानते हैं. इसलिए उनके हिसाब से देखें तो कश्मीर– अब एक केंद्र शासित प्रदेश– में शांति बहाली और राजनीतिक सामान्यीकरण की सीमित संभावना को भी शुरू में ही खत्म कर देना चाहिए.

कारगिल घुसपैठ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की फरवरी 1999 की लाहौर की बस यात्रा के बाद हुई थी. अप्रैल 2005 में श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस सेवा के शुभारंभ का स्वागत एक सरकारी पर्यटन कार्यालय, जहां बस यात्रियों को ठहराया जा रहा था, में आग लगाकर किया गया था और यात्रा मार्ग में बम विस्फोट भी कराए गए थे. अपने तत्कालीन
पाकिस्तानी समकक्ष नवाज़ शरीफ से मिलने के लिए 25 दिसंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नाटकीय लाहौर यात्रा के बाद 2 जनवरी 2016 को पठानकोट में वायुसेना के अड्डे पर आतंकवादी हमला हुआ था.

इसलिए 27 जून के तड़के जम्मू वायुसेना स्टेशन पर हुआ ड्रोन हमला कोई आश्चर्य की बात नहीं है. यह 24 जून को प्रधानमंत्री मोदी और आलोचनाओं का केंद्र रहे जम्मू कश्मीर के अधिकतर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के गुपकार समूह के नेताओं के बीच चौंकाने वाली और बहुप्रचारित बैठक के कुछ ही दिनों बाद हुआ. इसे 25 फरवरी 2021 से भारत और पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर लागू युद्धविराम से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए, जिसका उम्मीदों के विपरीत दोनों पक्षों ने ईमानदारी से पालन किया है. कथित तौर पर, पर्दे के पीछे, दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच वार्ताएं भी हुई है और यूएई दोनों देशों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का दावा कर चुका है.

ड्रोन हमले ने भारत सरकार को मुश्किल में डाल दिया है. यदि वह पाकिस्तान के खिलाफ कोई जवाबी कार्रवाई करती है, तो संबंधों में हुई आशाजनक प्रगति रुक जाएगी और भारत- पाकिस्तान तनाव बढ़ जाएगा. जिससे अंतत: जम्मू कश्मीर में राजनीतिक घटनाक्रम प्रभावित होगा. यानि 24 जून की बैठक से जो भी सीमित लाभ की उम्मीद की जा रही है, उसकी
संभावना कम हो जाएगी. यदि भारत जवाबी कार्रवाई नहीं करता है, तो इसके भी परिणाम होंगे क्योंकि तब ऐसे या शायद शायद इससे भी अधिक घातक हमलों को प्रोत्साहन मिलेगा. जाहिर है, पाकिस्तान उनमें अपना हाथ होने से इनकार करेगा. लेकिन भले ही ड्रोन भारतीय भूमि से संचालिए हुए हों, इसमें कोई संदेह नहीं कि ये हमले पाकिस्तान के भीतर के तत्वों से प्रेरित थे. हमें इस धारणा के साथ ही आगे बढ़ना होगा.


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बढ़ता आंतरिक और बाह्य दबाव

सैन्य या नागरिक लक्ष्यों पर हमले के लिए ड्रोन का उपयोग भारत के समक्ष मौजूद सुरक्षा खतरों में एक खतरनाक नया आयाम का जोड़ता है. हर दृष्टि से इसका तत्काल और विस्तृत मूल्यांकन करने और जवाबी रणनीति बनाने की आवश्यकता है. यह प्रक्रिया न केवल भारत- पाकिस्तान मामले में बल्कि भारत-चीन मामले के लिए भी प्रासंगिक होगी. चीन के पास ड्रोन की उन्नत प्रौद्योगिकी और उत्पादन क्षमता मौजूद है. उसके सहयोगी के रूप में पाकिस्तान की इन तक पहुंच है, और इसे वह भारत के खिलाफ अपनी प्रभावी क्षमताओं से जोड़कर देखना चाहेगा.

दो मोर्चे पर एक साथ युद्ध, जब भारत को चीनी और पाकिस्तानी दोनों सेनाओं का एक साथ सामना करना पड़ सकता है, अब केवल संभावना मात्र नहीं है. ऐसी संभावित परिस्थिति अब एक ऑपरेशनल वास्तविकता बनती जा रही है. चीन और पाकिस्तान वर्षों से संयुक्त सैन्य अभ्यास कर रहे हैं लेकिन हाल ही में, उन्होंने तिब्बत की हवाई पट्टियों का इस्तेमाल करते हुए पहला संयुक्त हवाई युद्धाभ्यास किया है. भारत के लिए इससे अधिक स्पष्ट और प्रत्यक्ष संदेश नहीं हो सकता है.

साथ ही, दो मोर्चों पर युद्ध के परिदृश्य के केंद्र में हर तरह से जम्मू कश्मीर ही होगा. यहां ऐसे भूभाग हैं जिनको लेकर चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ विवाद है. हमारे सुरक्षा नीतिकारों को इस नई वास्तविकता और इसके अनिष्टकारी प्रभावों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है.

पाकिस्तान के साथ सीमित शांति और जम्मू कश्मीर में मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलने की कोशिश के सूत्र दो व्यापक घटनाक्रमों में देखे जा सकते हैं. आंतरिक घटनाक्रम की बात करें तो जम्मू कश्मीर में, मुख्यधारा की पार्टियों और नेताओं को दरकिनार और बदनाम तक करने तथा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से सहयोग करने वाला नया
राजनीतिक नेतृत्व खड़ा करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं. घाटी के लोग असंतुष्ट और निराश हैं, तथा विकास और रोज़गार के वादे ज्यादातर खोखले साबित हुए हैं.

दूसरी ओर, जम्मू कश्मीर में शांति और स्थिरता स्थापित करने के लिए मोदी सरकार के दंडात्मक उपायों की अधिकाधिक और प्रतिकूल अंतरराष्ट्रीय पड़ताल हो रही है. अपने विदेशी संबंधों में लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों पर बाइडेन प्रशासन द्वारा जोर दिए जाने से भी भारत सरकार पर राजनीतिक दबाव बढ़ा है. नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम की बहाली और घाटी में राजनीतिक स्थिति को कुछ हद तक सामान्य करने की कोशिशों को इन बाहरी दबावों को बेअसर करने की कवायद से जोड़कर भी देखा जा सकता है.

अफगान-तालिबान समस्या  

पड़ोस की बात करें, तो अफगानिस्तान के बेलगाम तालिबान के शासन के तहत आने की वास्तविक संभावना के कारण भारत की भूराजनीतिक दुविधा और जटिल हो जाती है. हमें इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि तालिबान के साथ मेलजोल, जैसा कि हम करते दिख रहे हैं, से भारतीय हितों पर उनके संभावित सुरक्षा खतरे कम हो जाएंगे. पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से, पाकिस्तान अपेक्षाकृत अंतरराष्ट्रीय अलगाव, आर्थिक कठिनाइयों और आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों की कीमत चुकाता रहा है, ताकि वह तालिबान के अधीन अफगानिस्तान को अपने इशारे पर चलने वाला देश बना सके.

और, पाकिस्तान के लिए अफगानिस्तान का महत्व मुख्य रूप से भारत के साथ उसके संबंधों के संदर्भ में है. अमेरिकियों के निकलने और तालिबान के पूरे अफगानिस्तान पर अपना शासन स्थापित करने की स्थिति में संभावना यही है कि वहां भारत को दरकिनार कर दिया जाएगा और वहां नई दिल्ली द्वारा किए गए भारी निवेश का महत्व कम रह जाएगा. हम
पहले ही जलालाबाद और हेरात में अपने वाणिज्य दूतावास बंद कर चुके हैं. अगली बारी कंधार की हो सकती है. पाकिस्तान ऊपर-ऊपर इनकार करते हुए एक बार फिर भारत को निशाना बनाने के लिए जिहादी ठिकाने स्थापित करने के लिए अफगानिस्तान का उपयोग करेगा. यह सोचना भोलापन होगा कि तालिबान के साथ मेलजोल बढ़ाकर भारत अपने
खिलाफ उनके इस्तेमाल के पाकिस्तान के नापाक इरादों को नाकाम कर देगा.

काबुल में तालिबान शासन के बीते दौर के समय, भारत की नीति पंजशीर घाटी में उत्तरी गठबंधन और अहमद शाह मसूद का समर्थन करते हुए तालिबान शासन को अस्थिर बनाए रखने की थी. तब रूस और ईरान ने हमारे साथ मिलकर काम किया था. इस बार संभावित साझेदार नजर नहीं आ रहे हैं.

हमारे विकल्प सीमित हैं और हमारे लिए भूराजनीतिक परिस्थितियां अधिकाधिक प्रतिकूल होती जा रही हैं. जम्मू कश्मीर में एलओसी पर युद्धविराम और राजनीतिक तनाव में कमी जैसे रणनीतिक कदम ज़रूर उपयोगी साबित हो सकते हैं. लेकिन वे भारत के सामने मौजूद अभूतपूर्व, विविध और गंभीर सुरक्षा चुनौतियों से निपटने की प्रभावी दीर्घकालिक रणनीति का विकल्प नहीं बन सकते. जम्मू में हुआ ड्रोन हमला हमारे लिए एक चेतावनी है.

(श्याम सरन पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर में सीनियर फेलो हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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