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मोटा अनाज हुआ फैशनेबल, क्या लोग फिर समझ रहे हैं इसका महत्व

मोटे अनाज को अगर बढ़ावा दिया जाए तो पानी का संकट भी कुछ कम होगा. साथ ही आम लोगों की सेहत भी बेहतर बनेगी.

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खेतो में काम करते किसान । प्रतीकात्मक तस्वीर: कॉमन्स

कुछ दिन पहले लखनऊ के बाहरी हिस्से में मलीहाबाद के कुछ गांव में जाना हुआ तो देखा बाजरा कटा रखा है. कुछ किसानों से बात हुई. वे अपने लिए बाजरा बोते हैं. उसकी दो मुख्य वजहें बताई गईं. एक तो इसमें पानी का इस्तेमाल कम होता है दूसरे यह गेंहू के मुकाबले ज्यादा पौष्टिक होता है.

खेती में पानी के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से धान की कई प्रजातियां धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो रही हैं जिसमें उत्तर प्रदेश के तराई अंचल का मशहूर चावल काला नमक भी है. पर बाजरा से लेकर जौ आदि का इस्तेमाल हाल के कुछ वर्षों में बढ़ा भी है. हालांकि लखनऊ से लेकर पूर्वांचल तक गेंहू का प्रचलन ज्यादा रहा है.

60-70 के दशक तक तो पूर्वी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर गांव में जौ का इस्तेमाल आम बात थी. यही स्थिति अलसी की भी थी. पर इसे विधिवत खेत में बोया नहीं जाता था बल्कि गेंहू धान की बजाए इसे छींट दिया जाता था. जौ के साथ चना मिलाकर गेंहू के आटे में डाला जाता और लोग इसका काफी इस्तेमाल करते थे. तब चोकर भी कुछ हद तक इस्तेमाल हो जाता था. इसी तरह सांवा कोदो जैसे अन्न का भी खूब इस्तेमाल होता. पर 70 के दशक के साथ ही पैकेट बंद आटा, दाल और चावल का जो प्रचलन बढ़ा तो ग्रामीण इलाकों में भी सांवा, कोदो, जौ और अलसी आदि लोगों ने बोना कम कर दिया.


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धान की वह प्रजातियां आ गईं जो पानी ज्यादा लेती थीं लेकिन उनका उत्पादन भी ज्यादा होता था. इनकी कीमत भी ठीकठाक मिल जाती थी. पर इनकी खेती में पानी ज्यादा लगता तो कीटनाशक और उर्वरक का अंधाधुंध इस्तेमाल भी होता. नतीजन अन्न की बहुत सी परम्परागत प्रजातियां समाप्त होने लगीं. बहराइच जैसे तराई वाले इलाके के किसान काला नमक छोड़कर पाकिस्तानी बासमती उगाने लगे. यह काला नमक के मुकाबले कम पानी में हो जाता है. पर मोटे अनाज तो और कम पानी में हो जाते हैं और कीटनाशक की भी जरूरत नहीं पड़ती.

खेती के जानकार बताते हैं कि एक किलो धान पैदा करने के लिए करीब चार हजार लीटर पानी लग जाता है. दूसरी तरफ मोटे अनाज बहुत कम पानी में ही हो जाते हैं. दूसरे मोटे अनाज सेहत के लिए ज्यादा बेहतर हैं. पिछले कुछ वर्षों में खान-पान को लेकर शहरी समाज में भी बदलाव आया है. लोग गेंहू के आटे में जौ, बाजरा, मक्का, सोयाबीन आदि का आटा मिलाने लगे हैं.

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हालांकि, कौन सा आटा कितना मिलाना चाहिए यह समझ कम है. दरअसल, मोटे अनाज का प्रचलन या तो समाज के हाशिए के लोगों में ज्यादा है या फिर उच्च मध्यम वर्ग में. गांव में भी कम जोत के किसान तो मक्का, बाजरा, जौ से लेकर कुटकी, सांवा कोदो जैसे चावल का भी इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन बड़े किसानों या फिर नौकरी पेशा लोगों के घर में गेहूं और महंगे चावल का इस्तेमाल ही होता है. बड़े नगरों महानगरों में सेहत को लेकर हाल के सालों में जो जागरूकता बढ़ी उसके चलते मोटे और आर्गेनिक अन्न का इस्तेमाल भी बढ़ा है. पर यह भी आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों के घर में ही मिलेगा.

कुछ महीने पहले मैं एक बड़े अफसर के साथ यात्रा कर रहा था तो दोपहर का खाना किसी अतिथि गृह में था. सबका खाना बन चुका था पर जो अफसर साथ थे वे रोटी के लिए अपना आटा साथ लेकर चल रहे थे. वह आटा रसोइये को दिया गया और उनकी रोटी अलग बनी. दरअसल उनके आटे में जौ, बाजरा, मक्का और गेंहू शामिल था. मुंबई के कुछ घरों में जौ का आटा ऑनलाइन मंगाया जा रहा है और इसका दाम भी सौ से डेढ़ सौ रुपए किलो पड़ता है. जो सांवा कोदो कोई पूछता नहीं था वह लखनऊ में सवा सौ रुपए किलो मिलता है. जबकि अच्छे और सुगंधित चावल इससे सस्ते मिल जाएंगे. ऑनलाइन सांवा कोदो से लेकर जौ तक की सप्लाई आंध प्रदेश और आसपास के तटीय इलाकों से भी की जाती है.

जबकि एक दौर में यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी अंचल में आसानी से मिल जाता था और गेहूं के मुकाबले काफी सस्ता होता था. जबकि आज इसकी कीमत गेहूं से कई गुना ज्यादा हो गई है. दरअसल, जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं वे अन्न, फल, दूध, घी से लेकर बिना कीटनाशक वाली सब्जियों का इस्तेमाल कर रहे हैं. अन्न में भी मोटा अनाज लोगों को बेहतर लग रहा है. गेंहू के मुकाबले ज्वार, बाजरा, चना, रागी, मंडुआ और मक्का आदि सेहत के लिए बेहतर बताया गया है. खास बात यह है कि मोटा अनाज जो भी किसान उगाते हैं वे आर्थिक दिक्कतों के चलते न तो कीटनाशक का इस्तेमाल करते हैं न ही उर्वरकों का. अब सेहत की चिंता जबसे ज्यादा बढ़ी है तब से लोग ऐसे अन्न का ज्यादा इस्तेमाल करना चाहते हैं.

दक्षिण भारत में अगर रागी को सेहत के लिए बेहतर माना जाता है तो पहाड़ी अंचल में मंडुआ से लेकर भट की दाल को बेहतर माना जाता है. उत्तराखंड में उर्वरक और कीटनाशक का बहुत कम इस्तेमाल होता है जिसकी वजह से इस अंचल के अन्न को लोग पसंद करते हैं. उत्तराखंड में तो कई ऐसे इलाके भी हैं जहां आज भी घराट यानी पन चक्की का पिसा मंडुआ का आटा अगर मिल जाए तो लोग उसकी रोटी ही ज्यादा पसंद करते हैं. दरअसल, मोटा अनाज पर्यावरण के साथ आपकी सेहत के लिए भी बहुत जरूरी है. इसमें पानी बहुत कम लगता है, कीटनाशक और उर्वरक का इस्तेमाल नहीं होता. इसकी वजह से यह नुकसान नहीं करता. इसमें पौष्टिक तत्व ज्यादा होते हैं. इससे वजन नहीं बढ़ता क्योंकि यह पाचक होता है.


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केंद्र सरकार भी अब मोटे अनाज को बढ़ावा दे रही है. 2018 को मोटे अनाज का वर्ष घोषित किया गया था जिससे लोगों का इस तरफ ध्यान भी गया. दरअसल केंद्र सरकार ने खान-पान, खेती और स्वास्थ्य को लेकर कुछ महत्वपूर्ण पहल की है जिस पर लोगों का ध्यान कम जाता है. जैसे आयुर्वेद को इस सरकार ने काफी बढ़ावा दिया. आयुष मंत्रालय ने इस दिशा में अच्छा काम किया है.

मोटे अनाज को लेकर भी सरकार चिंतित दिखी है. दरअसल बासमती चावल हो या गेंहू दोनों में पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है. कुछ देश अपने चावल का उत्पादन कम कर रहे हैं. दूसरी तरफ अपने देश ने वर्ष 2018 में 37 लाख टन बासमती चावल का निर्यात दूसरे देशों को किया. यह बहुत गंभीर तथ्य है. खेती किसानी के क्षेत्र में पानी के भीषण संकट से जूझते देश के लिए यह ठीक नहीं है.

हम दूसरे देश के लिए इतना पानी खर्च कर रहे हैं. मोटे अनाज को अगर बढ़ावा दिया जाए तो पानी का संकट भी कुछ कम होगा. साथ ही आम लोगों की सेहत भी बेहतर होगी. इसलिए गेंहू के आटे में ज्वार, बाजरा, मंडुआ, चना भी मिलाएं और बच्चों में मोटे अनाज को लेकर जागरूक बढ़ रही है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .यह लेख उनका निजी विचार है)

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