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इंदिरा गांधी के ‘हिंदू धर्म खतरे में’ से लेकर कर्नाटक का हिजाब विवाद- यही तो जिहादी चाहते हैं

लेबनान, यूगोस्लाविया, पाकिस्तान और श्रीलंका गवाह है कि स्थानीय या धार्मिक तनावों को खत्म न कर पाने वाले राष्ट्रों के साथ क्या होता है.

चित्रण: प्रज्ञा घोष/ दिप्रिंट

काफी पहले 1983 में देश में बंटवारे के बाद सबसे भयावह सांप्रदायिक दंगे दिल्ली, अलीगढ़, मेरठ, गोधरा और मुरादाबाद में सुलग रहे थे और उसकी लपटें जल्दी ही कश्मीर और पंजाब को अपने आगोश में लेने वाली थीं. उसी दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कुरुक्षेत्र के सन्निहित सरोवर में एक रैली को संबोधित किया. प्रधानमंत्री ने महाभारत का उदाहरण देकर धर्म युद्ध छेड़ने का आह्वान किया. कुछ दिन पहले वे दावा कर चुकी थीं कि ‘हिंदू धर्म और संस्कृति’ खतरे में है.

चार दशक बाद साफ है कि वे शब्द अपने स्वार्थ के खातिर कहे गए थे. हिंदू अंध-भक्ति का चुनावी औजार की तरह इस्तेमाल करने की उनकी कोशिशों से हिंसा का एक दुश्चक्र शुरू हुआ, जिससे सांप्रदायिक दंगों में हजारों जानें गईं और एक मायने में, देश में आधुनिक जिहादी संगठनों को जन्म दिया, जिसे बहुत ही कम जाना-समझा गया.

अब देश नफरत के जहरीले दलदल में और गहरे धंसता जा रहा है-मसलन, कर्नाटक में हिजाब पहनी लड़कियों को धमकी, मुस्लिम व्यापारियों का बॉयकॉट, यहां तक कि कत्लेआम का आह्वान-तो यह कहानी उन खतरों को समझने में मदद करती है, जो आगे आ सकता है.

आजादी के बाद से ही आस्था के टकराव देश को बांट रहे हैं. उत्तर प्रदेश में जन्मा अल-कायदा सरगना सना-उल-हक ने 2013 में सवाल उछाला था, ‘तुमने आठ सौ साल तक भारत में राज किया है, तुमने बहुदेववाद के अंधकार में एक सच्चे अल्लाह की रोशनी जगाई. फिर, तुम कैसे सोए हुए हो? तुम्हारे सागर में तूफान क्यों नहीं उठ रहा?’

हालांकि, सांप्रदायिक तनाव इतना गहरा होता जा रहा है कि जिस तूफान की बात वह कर रहा है, वह उससे कम खतरनाक नहीं है. चौड़ी होती सांप्रदायिक खाई उस हिंसक नरक की ओर ले जा सकती है, जहां से वापसी का कोई रास्ता नहीं मिलेगा.

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कैसे दंगों ने भारतीय जिहाद को जन्म दिया

अब्दुल करीम का बायां हाथ एक बम के कुछ टुकड़ों के साथ प्लास्टिक बैग में लपेट कर राजस्थान के टोंक में एक बबूल के पेड़ के नीचे दफन है. हाथ बम के साथ ही उड़ गया था. 1982 में करीम ने अपने शहर भिवंडी को सांप्रदायिक आग में जलते देखा था. उसके सात रिश्तेदारों को जिंदा जला दिया गया था. फिर, फरवरी 1985 में एक जज ने-कथित तौर पर प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार की शह से-बाबरी मस्जिद के दरवाजे हिंदू श्रद्धालुओं के लिए खोलने का आदेश दे दिया था.

उसके बाद 1986 में ही बम के प्रयोग का वह मौका है जब भारतीय जिहाद आकार लेने लगा था.

कांग्रेस 1970 के दशक के आखिर में अपना चुनावी आधार मजबूत करने के लिए दक्षिणपंथ की ओर झुकने लगी. इंदिरा गांधी ने खुद को हिंदू नेता की तरह पेश किया. पार्टी में तब के महासचिव सी.एम. स्टीफन ने दावा किया कि ‘हिंदू संस्कृति और कांग्रेस संस्कृति की भावना एक ही है.’ राज्य की संस्थाओं को संदेश चला गया. कई दूसरों के अलावा पूर्व पुलिस अधिकारी वीएन राय ने कई सांप्रदायिक दंगों में पुलिस की पक्षपाती भूमिका का वृतांत लिखा है.

करीम उर्फ ‘टुंडा’ ने अपने तीन सहयोगियों के साथ तंजीम इस्लाहुल मुस्लिमीन (टीआइएम) की स्थापना की. टीआइएम के सदस्य मुंबई के मोमिनपुरा के यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के मैदान में आत्मरक्षा में लाठी लेकर परेड किया करते थे.

हालांकि, इस छोटे से गुट को बड़े उग्रवादी गुट में बदलने की कोशिशें लोगों की बेहद कम दिलचस्पी और सीमित संसाधनों की वजह से परवान नहीं चढ़ सकीं. दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद टीआइएम ने कार्रवाई करने का फैसला किया, लेकिन वह कारगर नहीं हो सका. मुंबई और हैदराबाद के सात ट्रेनों और 43 जगहों पर कम असर वाले बम दागे गए.

मुंबई में मार्च 1993 में बम धमाके करने वाले माफिया दाऊद इब्राहिम कासकर की तरह टीआइएम के सरगनाओं ने भी यही नतीजा निकाला कि बम का आतंक ही दंगों के आतंक का जवाब है. हालांकि इस्लामी विचारकों के लिए मामला सिर्फ दंगों को दूर रखना नहीं था. उनका मकसद तो जंग को भड़काना था, जिससे भारत के टुकड़े हो जाएं.


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जिहादी भर्ती की दूसरी लहर

अलबत्ता टीआइएम इतना छोटा गुट था कि वह राष्ट्रीय सुर्खियों में नहीं आ पाया, लेकिन उसके विचार 1990 के दशक में इस्लामवादियों में फलते-फूलते रहे. जमाते-इस्लामी की छात्र इकाई स्टुडेंट्स ठस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) की स्थापना 1977 में हुई और उसने कांग्रेस के छोड़े सेक्युलर स्पेस में अपनी पैठ कायम करनी चाही. विद्वान योगिंदर सिकंड ने दर्ज किया है कि उस समूह की दलील थी कि ‘इस्लाम न सिर्फ भारत के मुसलमानों की समस्या का हल है, बल्कि सभी भारतीयों और यकीनन, पूरी दुनिया का हल है.’

2001 में 9/11 की पूर्व संध्या पर सिमी के करीब 400 अंसार या पूर्णकालिक कार्यकर्ता और 20,000 इख्वान या वालेंटियर थे. यह देश की राजनीतिक व्यवस्था में अलग-थलग हुए मुसलमानों की नई पीढ़ी के छात्रों में उसकी भारी अपील का सबूत है.

बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सिमी की भाषा लगातार तीखी होती गई. संगठन ने मुसलमानों से 11वीं सदी के महमूद गजनी यामीन-उद-दावला सेबुक्तेगिन की राह अपनाने की अपील वाले पोस्टर लगाए. 9/11 के बाद उसने अल-कायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को ‘सच्चा मुजाहिद’ बताकर प्रदर्शन किए.

गुजरात में 2002 में सांप्रदायिक आग ने दूसरे जेहादी अभियान को उसी तरह बल दिया, जैसे 1992 में हुआ था. सिमी से जुड़े रहे लेकिन उसकी निष्क्रियता से हताश होकर महाराष्ट्र, तटीय कर्नाटक और उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के कुछ रंगरूटों ने इंडियन मुजाहिदीन नाम के शहरी आतंकवादी गुट का गठन किया.

इंडियन मुजाहिदीन ने 2007 के बाद भारत के इतिहास में सबसे घातक शहरी आतंकी अभियान शुरू किया. औरंगाबाद और केरल में भी ऐसा ही नेटवर्क था, जहां से कुछ रंगरूटों को ट्रेनिंग के लिए कश्मीर भेजा जाता, जबकि दूसरे पश्चिम एशिया में जाते.

कुछ मामलों में ये जिहादी वॉलेंटियर 2002 के अपने अनुभव से ही प्रेरणा पा रहे थे. मसलन, 2012 में एक बम रखने में कथित भूमिका की वजह से गिरफ्तार किया गया फिरोज घासवाला ने दावा किया कि उसने 40 दंगा पीड़ितों की सामूहिक कब्रगाह देखकर हिंसा का रास्ता अपनाया.

हालांकि, इंडियन मुजाहिदीन 2013 तक खत्म हो गया, मगर उसके कई सदस्य पाकिस्तान से अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में भाग गए. हालांकि भारतीय जेहादियों का इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा में जाना जारी रहा. खुशकिस्मती है कि कई आतंकी साजिशें पहले ही पकड़ ली गईं.

सीरिया में 2016 में एक वीडियो में थाणे का रहने वाला अमान टंडेल ने कहा, ‘हम बाबरी मस्जिद और कश्मीर, गुजरात और मुजफ्फरनगर में मुसलमानों की हत्या का बदला लेने लौटेंगे, लेकिन हाथ में तलवार लेकर.’

वीडियो बनाने के फौरन बाद टंडेल मारा गया लेकिन खतरा तो बना हुआ है.


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नफरत का लंबा इतिहास

असली दुनिया की ज्यादातर कहानियों की तरह दक्षिण एशिया में जेहादवाद की दास्तां की शुरुआत भी सीधी-सरल नहीं है. इतिहासकार आएशा जलाल ने दिखाया है कि जिहाद की भावना औपनिवेशिक और उसके पहले के भारत से जुड़ी हुई है. भारतीय जेहादी सिख साम्राज्य के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए शाह इस्लामी देहलवी की याद बार-बार करते हैं. विद्वान स्टीफन डेल ने दर्ज किया है कि 18वीं सदी के जिहादियों ने केरल के तट पर फिदायीन हमले भी किए.

यह समझना जरूरी है कि हर जिहादी परियोजना खास राजनैतिक संदर्भों में ही जन्मी. मसलन, मुगल साम्राज्य का पतन, हिंद महासागर में पुर्तगाली ताकत का दबदबा और 1970 के दशक के आखिरी वर्षों में सेक्युलरवाद का संकट.

यह समझने के लिए ज्यादा कुछ करने की दरकार नहीं है कि क्यों टीआइएम या इंडियन मुजाहिदीन या उसके बाद इस्लामी स्टेट नाकाम रहा. जिहादी सरगनाओं को पता था कि छुट-पुट हमलों से सांप्रदायिक दंगे तो रुक सकते हैं, जैसा कि 1993 के बाद मुंबई में हुआ, लेकिन असली मकसद तो हिंदू-मुसलमान जंग छेड़ने के लिए आतंकी हिंसा का इस्तेमाल करना है.

हालांकि 2002 के बाद भी थोड़े-से भारतीय मुसलमानों ने ही जिहादी प्रोजेक्ट में दिलचस्पी दिखाई. इसके बदले भारतीय मुसलमान समुदाय ने आर्थिक उदारीकरण के दशकों में खासकर सेवा और कारोबार क्षेत्र में, थोड़ा ही सही, अपनी बढ़त की रक्षा करने पर फोकस किया.

हालांकि, सांप्रदायिक तनाव के गहराने से इसकी आशंका बढ़ गई है कि अल कायदा के सना-उल-हक ने जिस तूफान की उम्मीद की है, मामला उसके करीब पहुंच जाए.

बहुत-से लोगों को यह आशंका बेमानी लग सकती है. आखिरकार भारत का राज्य और समाज कई संकट को झेलने का लचीलापन दिखा चुका है. हालांकि दुनिया में ऐसी मिसालें बिखरी पड़ी हैं कि स्थानीय या धार्मिक संकटों को मैनेज न कर पाने वाले राष्ट्र-राज्य तबाह हो गए हैं. मसलन, लेबनान, यूगोस्लाविया, पाकिस्तान, श्रीलंका. इनमें कुछ ही देशों ने खतरे को समझा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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