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भारतीय अर्थव्यवस्था को इकॉनॉर्मिक्स की ज़रूरत, न कि वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ

हाल-फिलहाल मेरी नज़र से एक दस्तावेज़ गुज़रा और मन उसी पर अटक गया- लगा कि इसे तो मैं एक वक्त से खोज रहा था. यहां सुविधा के लिए हम उस दस्तावेज़ का नाम ‘इको-नॉर्मिक्स’ रख लेते हैं.

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बाम्बे स्टॉक एक्सचेंज मार्केट के प्रवेश द्वार पर बैल की एक कांसे की मूर्ति | ब्लूमबर्ग

हाल-फिलहाल मेरी नज़र से एक दस्तावेज़ गुज़रा और मन उसी पर अटक गया- लगा कि इसे तो मैं एक वक्त से खोज रहा था. यहां सुविधा के लिए हम उस दस्तावेज़ का नाम ‘इको-नॉर्मिक्स’ रख लेते हैं, क्योंकि एक तो इसमें ‘इकॉनॉमिक्स’ यानि अर्थशास्त्र की छाया है और ‘इको’ और ‘नार्मस्’ से यह भी संकेत मिल जाता है कि बात यहां प्रकृति-परिवेश और उससे जुड़े मान-मूल्यों की हो रही है. तो, थोड़े में कहें तो इको-नॉर्मिक्स हमारे अस्तित्व की तीन बुनियादी बातों में तालमेल बैठाने की कोशिश है और ये तीन बुनियादी बातें हैं किः हमें धरती पर रहना है, यहां राज्यसत्ता आगे भी कायदे कानून बनाते रहेगी और बाजार को भी कायम रहना है.

राजनीति से पूर्णकालिक तौर पर जुड़ने के बाद, पिछले कुछ सालों से मैंने आर्थिक नीतियों के बाबत नेक मशविरे हासिल करने के खयाल से बहुत फेरा लगाया है. शुरुआत में तो लगा कि बात जेहन में ठीक नहीं उतर रही तो इसमें मेरी ही पढ़ाई-लिखाई का दोष है, जो अर्थशास्त्र की बारीकियों को नहीं समझ पा रहा. लेकिन वक्त गुज़रने के साथ मेरे भीतर यह अहसास गहराता गया कि हमारी सार्वजनिक ज़िंदगी में अगर कोई शै सबसे ज़्यादा विचारधाराओं के घेरे में बंधी है तो वो है अर्थ-नीति.


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अपनी रहनुमाई के लिए मैंने दोस्तों, सहकर्मियों और विशेषज्ञों की सोहबत में वक्त बिताया, तो मुझे उनके तीन खेमे दिखाई पड़े. एक खेमा आर्थिक जगत में सुधार की पैरोकारी करने वालों का है और व्यावसायिक मीडिया में इन्हीं का रौब गालिब है: यह खेमा (आर्थिक) वृद्धि को परम पूज्य परमेश्वर मानकर चलता है, बाज़ार की अदृश्य सर्वदोष-निवारक शक्ति पर आस्था रखता है और ‘लाइसेंस कोटा राज’ इस खेमे के लिए किसी कुफ्र से कम नहीं.

दूसरा खेमा लीक के फकीर बने वामपंथियों का है और आंदोलनधर्मी राजनीति के दायरे में अब भी बहुत ताकतवर है: इस खेमे ने समानता के मूल्य के साथ ही नहीं, बल्कि इस विश्वास के संग भी अपना जन्म-जन्मांतर का रिश्ता गांठ रखा है कि बराबरी कायम करने के एतबार से राजसत्ता की भूमिका अहम है. एलपीजी मतलब ‘उदारीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण’ के नुस्खे इस खेमे के लिए शैतान के बहकावे की तरह हैं.

तीसरा खेमा पर्यावरणवादियों का है. इसे अकादमिक दुनिया में और जन-आंदोलनों के बीच इज़्ज़त हासिल है: यह खेमा टिकाऊपन को महत्व देता है, चाहता है कि संसाधनों पर लोगों का नियंत्रण हो और कानून को अपना ब्रह्मास्त्र मानता है. इस खेमे के लिए (आर्थिक) वृद्धि लफ्ज़ वैसे ही जैसे दूध के लिए इमली. इन तीनों खेमों में आपस की बोलचाल नहीं है.

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आर्थिक नीति के सुधार के पैरोकार यों बढ़े चले जाते हैं जैसे बाज़ार खुद ही में एक साध्य हो, जबकि वामपंथी और पर्यावरणवादी अर्थव्यवस्था का नक्शा कुछ यों गढ़ते हैं मानो बाज़ार उससे बाहर की चीज़ हो. सवाल ये है कि पारिस्थितिकी, राजसत्ता के हाथों होने वाले नियमन और बाज़ार की गतिकी के बीच हम तालमेल कैसे बैठायें? यही सवाल मुझे इको-नॉर्मिक्स की ओर खींच ले गया.

मैं सोच के इस नये नुक्ते पर बना नक्शा खोज ही रहा था कि मेरी नज़र अभिजीत बनर्जी और रघुराम राजन के एक छोटे से लेख पर गई. ये लेख नये साल के शुरुआत के रोज़ छपे थे. लेख एक झलक देता है कि आज के भारत के लिए इस नये नुक्ते से सोचने के क्या मायने हैं. लेखक-द्वय ने आठ मुख्य बातें गिनायी हैं, जिन पर हमारी आर्थिक नीति में अगले कुछ समय तक के लिए ज़ोर होना चाहिए. यह लेख एक लंबे दस्तावेज़ ‘ऐन इकॉनॉमिक स्ट्रेटजी फॉर इंडिया’ पर आधारित है, जिसे 13 भारतीय अर्थशास्त्रियों ने मिलकर लिखा है. दस्तावेज़ के लेखकों में शामिल ज़्यादातर अर्थशास्त्री विदेश में रहते हैं.

अभिजीत बनर्जी और रघुराम राजन के अतिरिक्त दस्तावेज़ के लेखकों में गीता गोपीनाथन, रोहिणी पांडे, मैत्रेश घटक और नीलकांत मिश्र सरीखे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शामिल हैं. इस दस्तावेज़ में एक नीतिगत नज़रिया पेश किया गया है और आर्थिक नीति के एतबार से कुछ अहम क्षेत्रों के लिए कार्य-बिन्दु सुझाये गये हैं. अर्थशास्त्रियों की आपसी सहमति का इज़हार करते इस दस्तावेज़ के साथ ‘पॉलिसी-नोट’ भी नत्थी है. पॉलिसी-नोट दस्तावेज़ के लेखकों में शामिल हर अर्थशास्त्री ने लिखा है और ये ‘पालिसी-नोट’ एक या फिर एक से ज़्यादा क्षेत्रों के बाबत हैं.

दस्तावेज़ रचने के पीछे रणनीति ‘मज़बूत, समतापरक और टिकाऊ वृद्धि’ की बतायी गई है. दस्तावेज़ में समष्टिगत स्तर के आर्थिक टिकाऊपन, ढांचागत निवेश और व्यापार के उदारीकरण को भारत की मज़बूत वृद्धि-दर को तेज़ बनाये रखने के लिहाज से ज़रूरी बताये गये हैं. दस्तावेज़ में समानता के मूल्य को साधने के लिए प्रगतिशील कराधान, किसानों को आमदनी में मदद, महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना को चलाये रखने और मज़बूत बनाने, सामाजिक सुरक्षा के मकसद से दिये जाने वाले पेंशन की रकम बढ़ाने और शिक्षा और स्वास्थ्य की गुणवत्ता को बढ़ाने की ज़रूरत पर बल दिया गया है.


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दस्तावेज़ में टिकाऊपन मूल्य को तरजीह देते हुए इसे एक मज़बूत और केंद्रीकृत नियामक प्राधिकरण बनाकर सुनिश्चित करने की बात कही गई है. टिकाऊपन को सुनिश्चित करने के लिए जुर्माने का उपाय भी सुझाया गया है. सो, इस रणनीति में ‘इको-नॉर्मिक्स’ की तीनों ही बातें मिल जाती हैं.

दस्तावेज़ में कई नये या फिर मिजाज़ से उदार जान पड़ते उपाय सुझाये गये हैं, जिनके सहारे ऊपर बताये गये मकसद को हासिल किया जा सकता है. मैं यहां कुछ अहम उपायों को दर्ज कर रहा हूं. एक, वित्तीय अनुशासन केंद्र-राज्य परिषद के सहारे सुनिश्चित किया जाय. दो, किसानों को कर्ज़माफी या मूल्य-समर्थन देने की जगह सीधे-सीधे आमदनी में सहायता दी जाय.

तीन, निर्यात-प्रोत्साहन के अतिरिक्त व्यापार को बढ़ावा देने के नये तौर-तरीके आजमाने के लिए नये तर्ज के स्पेशल इकॉनॉमिक जोन बनाये जायें. चार, टिकाऊपन को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय स्तर पर कारगर नियमन हो, साथ ही इससे जुड़े फंड और कामकाज का मोर्चा विकेंद्रीकृत किया जाय- नगरपालिकाओं को ऐसी आयोजना में शामिल किया जाय.

पांच, अनुदान बिल्कुल वांछित व्यक्ति/मुकाम तक पहुंचे, इसके लिए प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण का तरीका अपनाना ठीक रहेगा या फिर मामला खाद्य-सब्सिडी का हो तो नकदी या फिर अनुदानित मूल्य पर खाद्यान्न देने का विकल्प रखा जा सकता है. छह, नौकरियां अपने स्वभाव में टिकाऊ और तादाद में ज़्यादा हों- इसके लिए सरकारी दफ्तरों में बड़े पैमाने पर इन्टर्नस् (प्रशिक्षुओं) की भर्ती हो और निजी क्षेत्र में लंबी अवधि की टिकाऊ करार वाली नौकरियों की अनुमति दी जाय.

सात, हमें शिक्षा के क्षेत्र में संसाधन मुहैया कराने वाले रवैये से हटकर परिणाम-लक्षी नज़रिए को अपनाना चाहिए, ताकि विद्यार्थी तीसरी कक्षा तक पहुंचकर भाषा और गणित का बुनियादी कौशल सीख जायें. आठ, गैर-संक्रामक रोगों की संभावी बढ़वार को देखते हुए हमें स्थानीय आरएमपी (रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर) या फिर झोला-छाप डाक्टरों की पहचान करते हुए उन्हें प्रशिक्षित करना चाहिए, ताकि योग्य चिकित्सकों के अभाव की वे मौके पर भरपायी कर सकें.

मुझे पता है कि सियासी दुनिया के मेरे दोस्त इनमें से कई उपायों को सीधे-सीधे खारिज कर देंगे. वित्तीय अनुशासन, श्रम-सुधार, प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण, कर्ज़माफी का विरोध, परिणाम-लक्षी शिक्षा-नीति तथा जीन-प्रवर्धित बीज—ये तमान बातें वामपंथी और पर्यावरणवादी खेमे की राजनीति को एकदम ही गवारा नहीं. लेकिन पुरानी प्रतिबद्धताओं को आधार मानकर इन विचारों को सिरे से झटक देना ठीक नहीं. सीखते रहने की इच्छा जीवंत राजनीति का लक्षण है. हम जानते हैं कि परंपरागत समतामूलक राजनीति को आज सिरे से दुरुस्त करने की ज़रूरत है. इस राजनीति के उद्देश्य आज पहले की तुलना में ज़्यादा प्रासंगिक हैं, लेकिन इसके साधनों के बारे में नये ढंग से सोचने की ज़रूरत है.

मुझे इस बात का भान है कि दस्तावेज़ इको-नॉर्मिक्स के तीन पहलुओं में संतुलन नहीं साध पा रहा : पर्यावरणीय पक्ष दस्तावेज़ में सुझाये गये समाधान में ऊपर से लपेट दी गई चीज़ जान पड़ता है, उसके अंदरुनी बनावट का हिस्सा नहीं. यह दस्तावेज़ उतना व्यापक भी नहीं और न ही इसमें बताये उपाय इस तैयारी से बताये गये हैं कि उन पर झट से अमल कर लिया जाय, जबकि हमें ज़रूरत ऐसे ही फौरी उपायों की है.

विनिर्माण, ग्रामीण इलाके के बुनियादी ढांचे, अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गार के सृजन तथा व्यापार-नीति पर दस्तावेज़ में कुछ और ज़्यादा ठोस बातें कही गई होतीं तो अच्छा रहता. मेरा वश चले तो दस्तावेज़ तैयार करने वाले अर्थशास्त्रियों से कहूं कि स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले सुधार और उच्च शिक्षा के बाबत कुछ और विस्तार से अपने प्रस्ताव रखिय़े.


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खैर, यह दस्तावेज़ पांच-सात साल तक की अर्थ-नीति पर सोच-विचार के लिए एक अच्छा प्रस्थान-बिन्दु साबित हो सकता है. इस दस्तावेज़ का असली मोल उसमें सुझाये गये उपायों से कहीं ज़्यादा बड़ा है. दरअसल इसमें एक दिशा सुझायी गई है, एक राह बतायी गई है कि भारत की अर्थ-नीति के बारे में कैसे विचार किया जाय. दस्तावेज़ परंपरागत विचारधारात्मक अलगावों को लेकर तटस्थ रुख अपनाता है. अर्थ-नीति में निजी क्षेत्र बनाम सार्वजनिक क्षेत्र की बहस हावी रही है, लेकिन दस्तावेज़ अपने को इस बहस के दायरे से बाहर रखता है- ऐसी बहस की फिक्र दस्तावेज़ से नहीं झलकती.

सबसे बड़ी बात यह है कि दस्तावेज़ के लेखकों ने तथ्यों की खूब जांच-परख के बाद अपनी बात कही है और साक्ष्य-आधारित उपाय सुझाये हैं. दस्तावेज़ चुनाव के बस चंद महीने पहले आया है और इसका उद्देश्य राजनीतिक अजेंडे को प्रभावित करने का है- सो हर पार्टी को अपना चुनावी घोषणापत्र तैयार करते वक्त इस पर बारीकी से नज़र डालना चाहिए. इस बीच, मैं इंतज़ार करता हूं कि इको-नॉर्मिक्स पर कोई सैद्धांतिक विवेचन भी आयेगी.

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)

(इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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