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भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के मुक़ाबले तेज है, मगर इस होड़ में जीत कोई नहीं रहा

यह कहानी तब अलग रूप ले सकती है जब आप अपने अध्ययन के वर्ष को बदलने लगते हैं, और यह हमें भविष्य के बारे में अनुमान लगाने के बारे में सावधान करता है.

प्रज्ञा घोष का चित्रण | दिप्रिंट

लगातार 2 साल से ऐसा हो रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चीन की अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले ज्यादा तेजी से वृद्धि कर रही है. अनुमान है कि इस वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7 फीसदी रहेगी, जबकि कैलेंडर वर्ष 2022 में चीन की वृद्धि दर अस्वाभाविक रूप से महज 3 फीसदी रही. इसी तरह, पिछले वर्ष भी भारत ने 9.1 फीसदी की दर के साथ चीन को मात दी, जिसकी दर 8.1 फीसदी रही.

यह कोविड के लक्षण उभरने से 5 साल पहले तक (कैलेंडर वर्ष 2014-18, और उनके बाद के भारत के वित्त वर्षों में) दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले दो देशों के तुलनात्मक प्रदर्शन के बावजूद हुआ है. तब भारत ने औसत 7.4 फीसदी की वृद्धि दर के साथ पड़ोसी देश चीन को पहली बार पीछे छोड़ा, जो 7 फीसदी की वृद्धि दर ही हासिल कर पाया था. इस तरह यह कहानी चल पड़ी कि भारत दुनिया की वह बड़ी अर्थव्यवस्था है, जो सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज कर रही है और उसने तीन दशकों से इस गौरव के हकदार चीन को इस गद्दी से नीचे उतार दिया है.

लेकिन जैसा कि ऐसे आंकड़ों के साथ होता है, यह कहानी तब अलग रूप ले सकती है जब आप अपने अध्ययन के वर्ष को बदलने लगते हैं. ऊपर जो तस्वीर पेश की गई है उसमें से 2 साल— 2019 और 2020— गायब हैं, जब चीन ने भारत से बेहतर प्रदर्शन किया था; लेकिन जब बात दीर्घकालिक वृद्धि के औसतों की बात हो तब दोनों देशों की स्थिति को इतने बड़े अंतर से उलट देना मायने रखता है.

2019 में चीन की आर्थिक वृद्धि दर 6 फीसदी रही जबकि 2019-20 में भारत की 3.9 फीसदी रही. कोविड वाले पहले साल में उसकी दर 2.2 फीसदी रही जबकि भारत की जीडीपी में 5.8 फीसदी की कमी आई. 2014 से 2022 के पूरे 9 साल को एक साथ लें, तो चीन ने 6 फीसदी से ऊपर की औसत वृद्धि दर हासिल करके भारत को पीछे छोड़ दिया, जिसकी दर 5.7 फीसदी रही. अगर सिर्फ पिछले 4 साल को भी देखें तो कोविड से पहले के साल से शुरू करके चीन ने भारत से बेहतर रफ्तार पकड़ी.


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जब यह अंदाजा लगाने की कोशिश की जाती है कि दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि किस बड़ी अर्थव्यवस्था ने की, तो यह इस दौड़ का कुछ अनिश्चित नतीजा लगता है और यह हमें भविष्य के बारे में अनुमान लगाने के बारे में सावधान करता है. अभी हाल तक, अधिकतर भविष्यवक्ता यही कहते रहे हैं कि भारत 2023 (2023-24) में चीन से काफी बेहतर प्रदर्शन करेगा.

उदाहरण के लिए, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान लगाया है कि चीन की वृद्धि दर 4.4 फीसदी और भारत की 6.1 फीसदी रहेगी. लेकिन हाल के सप्ताहों में परिदृश्य बदल गया है क्योंकि चीन ने नाटकीय परिवर्तन करते हुए कोविड के लिए अपनी ‘ज़ीरो’ सहनशीलता की नीति छोड़ दी है जिसमें लॉकडाउन और उथल-पुथल होता था.

नतीजतन, एक के बाद एक भविष्यवक्ता ने 2023 के लिए चीन की वृद्धि दर के अनुमान बढ़ा दिए हैं. अधिकतर ने इसका आंकड़ा 5.5 फीसदी के आसपास रखा है, जबकि ज्यादा आशावादी लोग आंकड़ा इससे थोड़ा ज्यादा रखते हैं. यह भारत के लिए 6.0 से 6.8 के बीच के इस आंकड़े के अनुमान से नीचा है जो एक महीना पहले आर्थिक सर्वे में लगाया गया है. सवाल यह है कि भारत की जीडीपी वृद्धि के अक्टूबर-दिसंबर के आंकड़े जब केवल 4.4 फीसदी के आए हैं तब क्या बाद में बनी यह तस्वीर आगे चलकर बुरी हो सकती है? क्या दो चीतों की दौड़ बेमानी साबित होगी?

सरकार का कहना है कि वृद्धि के ताजा तिमाही आंकड़े पिछले 2 साल की वृद्धि के आंकड़े में संशोधन के बाद कमजोर पड़े हैं. शायद ऐसा हो, मगर अनुमान है कि चालू जनवरी-मार्च तिमाही के वृद्धि के आंकड़े 5.1 फीसदी से ज्यादा के नहीं होंगे. और मुख्य आर्थिक सलाहकार ने साफ कबूल किया है उछाल के मुक़ाबले गिरावट के खतरे ज्यादा हैं.

संशोधित अनुमान फरवरी में जीएसटी की ~1.49 ट्रिलियन की उगाही पर आधारित है और इसमें हाल के महीनों में बहुत कम या शून्य वृद्धि हुई है. दूसरे शब्दों में, अब तक ऐसी गति हासिल करने के कोई संकेत नहीं हैं जो भारत को 5 फीसदी वृद्धि दर से 6 फीसदी या ज्यादा की वृद्धि दर के दायरे में पहुंचा दे. अगर ऐसा है तो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अल्पकालिक संभावना चीन की इस संभावना से बहुत भिन्न नहीं है.

कहा जा सकता है कि भारत चीन की तरह घटती आबादी और रियल एस्टेट/कंस्ट्रक्शन सेक्टरों में ढांचागत समस्याओं के कारण परेशान है. लेकिन भारत व्यापार व वित्तीय असंतुलनों, सरकार द्वारा पूंजीगत खर्चों पर अत्यधिक निर्भरता जैसी गंभीर समस्याओं से ग्रस्त है. संदेश साफ है—अगर भारत और चीन के बीच आर्थिक वृद्धि को लेकर कोई होड़ है तो अभी उसमें किसी को विजेता नहीं घोषित किया जा सकता.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)


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