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कोविड-19 संकट में भारत के किसान अर्थव्यवस्था को आराम से चला सकते हैं पर मोदी सरकार को समझाए कौन

ये वक्त किसानों को धन्यवाद कहने का है और याद रहे कि अपनी कृतज्ञता के इजहार के लिए यहां आपको कोई ताली-थाली बजाने की जरुरत नहीं. आपको बस इतना भर करना है कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित दाम मिल जाये.

उत्तर प्रदेश का एक किसान गेहूं की फसल को थ्रेसर में डालता हुआ, फाइल फोटो | सम्यक पाण्डेय, दिप्रिंट

जैसे-जैसे उत्तर भारत के कई राज्यों में खाद्यान्न के उपार्जन का काम शुरू हुआ है और ग्रामीण भारत से जुड़ी खबरें एक-एक करके लगातार आने लगी हैं, हमारी आंखों के आगे मौजूदा लॉकडाउन की रणनीति की सबसे बड़ी खामी साफ होती जा रही है: दरअसल संकट के वक्त जो चीज सबसे बड़ी संपदा साबित हो सकती है उसे लॉकडाउन की रणनीति लंबे समय के लिए गले की फांस बना सकती है.

मौजूदा संकट के वक्त भारत का कृषि क्षेत्र किसी लौह-दुर्ग की तरह हमारी हिफाजत कर सकता है. अभी कोविड-19 के पैर पसारने का पहला चरण है और इस पहले चरण में ग्रामीण भारत में ये बीमारी सबसे कम फैली है. गांवों में रहना-जीना कुछ इस भांति होता है कि सोशल डिस्टैंसिंग के लिए कहीं ज्यादा गुंजाइश होती है. अगर तुलना करके देखें तो जान पड़ेगा कि ग्रामीणों की तुलना समान आर्थिक हैसियत के शहरी लोग अपनी-अपनी शहरी रिहायशों में ज्यादा पास-पास रहते हैं.

फैक्ट्रियों में होने वाले काम से तुलना करके देखें तो नजर आयेगा कि खेती-बाड़ी के ज्यादातर काम के लिए कहीं ज्यादा जगह की जरूरत होती है. कृषि-मंडियां भी बाकी चीजों के बाजार की तुलना में कहीं ज्यादा विस्तृत होती हैं. सो, हमारी अर्थव्यवस्था में खेती-किसानी का हलका एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जो तालाबंदी के बावजूद अपनी गति से चलता रह सकता था. गौर करें कि सरकारी दिशा-निर्देशों में तो साफ शब्दों में अनुमति नहीं दी गई थी तो भी किसान तालाबंदी के बाद अपने खेतों में जैसे-तैसे करके जाते रहे, फसल की कटाई से पहले के काम और फसल कटाई के काम के जरूरी इंतजाम में लगे रहे.


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संकट के वक्त देश की मदद करने के एतबार से इस साल खेती-किसानी का क्षेत्र कहीं बेहतर हालत में था. सौभाग्य कहिए कि कोरोनावायरस से फैली बीमारी जिस घड़ी भारत में पहुंची है उस घड़ी हम खाद्य-सुरक्षा के मामले में बेहतर हालत में हैं. भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में 87 मिलियन मीट्रिक टन अन्न-भंडार है. इतनी बड़े खाद्यान्न-भंडार का मतलब हुआ कि देश मे जिस परिवार के पास भी राशन कार्ड है उस परिवार के हर सदस्य को गेहूं या चावल की 100 किलो की एक बोरी दी जा सकती है.

सरकारी गोदाम में मौजूद अन्न-भंडार में फसल कटाई के मौजूदा समय की समाप्ति के बाद 20-25 मिलियन मीट्रिक टन अनाज और बढ़ सकता है. शुक्र कीजिए पिछले साल मॉनसून के समय के बाद हुई अच्छी बारिश का जो इस साल रबी की मौसम की बम्पर फसल हुई है. हम उम्मीद बांध सकते हैं कि गेहूं का हमारा भंडार और बढ़ेगा और चना, सरसों तथा मसूर दाल के साथ-साथ मौसमी सब्जियां तथा दूध बाआसानी हासिल होंगे. अनुमान ये भी है कि इस साल मॉनसून की बारिश अच्छी रहेगी सो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की गैरमौजूदगी में भी हम खाद्यान्न के मोर्चे पर कई माह बगैर मुश्किल के गुजार सकते हैं.

ये वक्त खाद्यान्न के मामले में संप्रभुता के मोल को पहचानने का है. खाद्य-संप्रभुता को हम फिलहाल गारंटीशुदा मानकर चलने के अभ्यस्त हो गये हैं. ये वक्त किसानों को धन्यवाद कहने का है और याद रहे कि अपनी कृतज्ञता के इजहार के लिए यहां आपको कोई ताली-थाली बजाने की जरूरत नहीं. आपको बस इतना भर करना है कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित दाम मिल जाये. लड़खड़ाती हुई अर्थव्यस्था को दम देने के लिहाज से भी ये एक अच्छी आर्थिक रणनीति होगी क्योंकि किसी आम शहरी उपभोक्ता की तुलना में देखें तो जान पड़ेगा कि किसानों को अपनी कमाई का अधिकांश तो खर्चा करना ही करना है, उनकी बचत होती ही कितनी है.

लेकिन अभी तक हमारे नीति-निर्माताओं के जेहन में ये बात आ ही नहीं रही. अर्थव्यवस्था का पहिया चलाने रखने की गरज से कहां तो उन्हें किसानों को मदद देनी थी लेकिन वे तालाबंदी के इस समय में गैरजरूरी और बिना सोचे-समझे किसानों की राह में बाधा खड़ी कर रहे हैं. नीति निर्माताओं की पुरानी आदत रही है ग्रामीण भारत को कूड़ादान समझने की और कहावत है कि पुरानी आदत आसानी से नहीं जाती. यों ये बात बीते जमाने की सरकारों पर भी लागू होती है लेकिन इस सरकार के होते तो आप मानकर चलिए कि किसानों का मसला पूरे फसाने में कहीं चेहरा दिखाने भर को भी नहीं आना है.

बीते 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया तो सोचिये कि उसमें किसानों का जिक्र कितनी दफे आया. भाषण में ये जिक्र तक ना आया कि तालाबंदी का यही समय किसानों के लिए फसल कटाई और अपने उत्पाद को बाजार में पहुंचाने का भी है (प्रधानमंत्री ने 14 अप्रैल वाले भाषण में किसानों का जिक्र किया था). तालाबंदी के बाबत जारी शुरुआती दिशा-निर्देशों में खेती-बाड़ी के जरूरी काम के लिए ऐसी किसी छूट की बात दर्ज नहीं थी. शेयर बाजार को छूट मिली लेकिन कृषि-बाजार को नहीं. खैर, बाद में 27 मार्च को जो दिशा-निर्देश जारी हुए उसमें कृषि-कार्यों से संबंधित कुछ छूटों को शामिल किया गया.

लेकिन इस बीच नुकसान तो हो ही चुका था. जल्दी खराब होने वाली चीजों (जैसे फल-सब्जी, अंडा, मुर्ग तथा दूध आदि) का आना-जाना अचानक रोक दिया गया. इससे किसानों को भारी नुकसान हुआ और इस नुकसान की कोई भरपायी नहीं हो सकती. फर्जी खबर फैलायी गई कि मुर्गे-मुर्गियों में कोरोना का वायरस है सो मुर्गीपालन का काम पहले से ही संकट में चला आ रहा था. तालाबंदी मुर्गी-पालन की कमर तोड़ने वाला साबित हुआ. यहां तक कि कागजी तौर पर खेतिहर चीजों के परिचालन पर से रोक हटा ली गई तो भी जमीनी तौर पर इन चीजों के परिचालन पर अंकुश बना रहा. सब्जियों और अनाज की मंडियां बंद रहीं. नतीजे में कहीं-कहीं ये दिखा कि किसान अंगूर की फसल फेंक रहे हैं, गोभी की खड़ी फसल नष्ट कर रहे हैं. और सड़कों पर दूध बहा रहे हैं.

लेकिन बात इतने भर तक सीमित ना रही. कीटनाशकों और खाद की दुकानें बंद थीं सो किसानों को फसल-कटाई से पहले के खेती-किसानी के काम के लिए जरूरी चीजें ना मिलीं. चूंकि अंतर्राज्यीय आवागमन पर प्रतिबंध था सो मध्य प्रदेश से हरियाणा तथा पंजाब जाने वाले बहुत से हार्वेस्टर रास्ते में ही फंसे रह गये. इस कारण मजदूरों पर निर्भरता बढ़ी जबकि ऐसे वक्त में मजदूर आसानी से मिलते नहीं.

ऐसी विकट परिस्थिति में भी किसानों ने जैसे-तैसे फसल कटाई का काम पूरा किया लेकिन अब फसल को बाजार पहुंचाने की मुश्किल उनके सामने आन खड़ी हुई. गेहूं के उपार्जन की राह में 14 अप्रैल के बाद भी बाधा थी और ये बाधा 20 अप्रैल के बाद भी जारी रही. कई किसान और ज्यादा इंतजार ना कर पाने की हालत में औने-पौने दाम में स्थानीय व्यापारियों से अपना उत्पाद बेचने को मजबूर हुये. चना, सरसो और गेहूं की बिक्री न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम कीमत में करनी पड़ी.

हरियाणा और पंजाब में आधिकारिक तौर पर गेहूं का उपार्जन शुरू तो हुआ लेकिन हरियाणा में व्यापारियों ने हड़ताल कर रखी थी और पंजाब में ओलावृष्टि हुई और इस कारण गेहूं का उपार्जन बाधित हुआ. अन्य किसी फसल की खरीद की कोई संतोषजनक योजना नहीं. चंद राज्यों को छोड़ दें तो ऐसी कोई योजना नहीं कि कृषि-उत्पाद का कारगर तरीके से उपार्जन हो सके.

जिस वक्त को किसानों के लिए सौभाग्य का समय मानकर चला जा रहा था वही अब किसी दु:स्वप्न में बदल गया है और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ. और, यह भी कोई पहली बार नहीं हो रहा कि खेती-किसानी को जो संकट व्याप रहा है वो नीति-निर्माताओं के जेहन में दर्ज नहीं हो रहा. वित्तमंत्री ने राहत-पैकेज की घोषणा की तो उसमें अर्थव्यवस्था के बाकी क्षेत्रों के लिए कुछ ना कुछ था लेकिन किसानों के लिए उसमें बस जी को बहलाये रखने का जुमला भर.

किसानों को सम्मान निधि की किश्त अप्रैल महीने में मिलनी ही थी. इसी को वित्तमंत्री ने राहत-राशि के अपने खाते में दर्ज कर लिया! फसल के उपार्जन में देरी की वजह से किसानों को हरियाणा में क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ राशि दी जानी है. इस बाबत हरियाणा की सरकार ने केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखी है लेकिन केंद्र सरकार से अनुमति का मिलना शेष है.

फिर भी, अभी इतनी देर नहीं हुई कि स्थिति संभाली ना जा सके. जान पड़ता है, सरकार तालाबंदी के कारण संकट में पड़े लोगों को उबारने के लिए एक और आर्थिक पैकेज लाने की सोच रही है. सरकार कुछ उपायों की घोषणा करके स्थिति संभाल सकती है. एक तो, सब्जी, फल तथा दूध के उत्पादन के काम में लगे किसानों को तालाबंदी के कारण जो नुकसान हुआ है तथा मुर्गीपालन के काम में लगे किसानों को जो नुकसान कोरोना को लेकर फैलायी गई फर्जी खबर के कारण हुआ है, उसे ध्यान में रखते हुए सरकार राष्ट्रीय आपदा राहत फंड से इन किसानों को क्षतिपूर्ति-राशि प्रदान करे.

फिलहाल क्षतिपूर्ति की राशि की जो दर रखी गई है उसमें संशोधन किया जाय.

दूसरी बात, जिन फसलों के दाम में भारी गिरावट आयी है उन पर भावांतर योजना के तहत भरपायी की राशि दी जाये. यही फायदा उन तमाम कृषि-जिन्सों को दिया जाय जो खुले बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर बिकीं.


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तीसरी बात, इस साल फसलों का उपार्जन ज्यादा लंबे समय तक किया जाय और इसमें विशेष ध्यान हरियाणा तथा पंजाब से बाहर के इलाके पर दिया जाय, साथ ही उपार्जन में जोर गेहूं के साथ-साथ अन्य फसलों पर भी हो. केंद्र सरकार को मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कुछ बोनस राशि की घोषणा करनी चाहिए ताकि किसानों को तालाबंदी के कारण हुए आर्थिक नुकसान की भरपायी की जा सके.

चौथी बात, हर मनरेगा-कार्डधारी मजदूर को दो हफ्ते की मजदूरी मुआवजे की राशि के तौर पर दी जाय और ये मानकर चला जाय कि उन्हें तालाबंदी के समय रोजगार की हानि उठानी पड़ी है.

अगर इन उपायों की फौरी तौर पर घोषणा ना हुई तो खेती-किसानी का जो क्षेत्र अभी हमारे लिए संकट के वक्त किसी सुरक्षा-कवच का काम कर रहा है वही हमारे ऊपर भारी बोझ बन जायेगा. याद रहे करोड़ों अप्रवासी मजदूर गर्मी के माह में अपने गांव लौटे हैं, शहरों में उनके लिए कोई रोजगार नहीं रह गया. इनके पास बचत के नाम पर नाम मात्र की राशि रह गई होगी और ऐसे में खाद्यान्न हासिल करने में भी बाधा हो सकती है. ये तमाम बातें किसी बड़ी आपदा की सूचना हैं, ऐसी आपदा जो कोरोनावायरस से पैदा हुई आपदा से बहुत बड़ी साबित होगी.

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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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