होम मत-विमत आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों के मद्देनजर अमित शाह शासन पर ज्यादा ध्यान...

आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों के मद्देनजर अमित शाह शासन पर ज्यादा ध्यान दें और नड्डा पार्टी संभालें

गृह मंत्री अमित शाह के लिए काम निश्चित हैं, लेकिन अगर वे उत्तर प्रदेश की राजनीति में उलझे हुए हैं तो इसकी वजह यह है कि भाजपा उन पर बहुत ज्यादा निर्भर है

गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की फाइल इमेज। | फोटो: एएनआई

ट्वीटर टाइमलाइन अक्सर आसानी से पता दे देते हैं कि किसी के दिमाग में क्या चल रहा है. उदाहरण के लिए, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के शनिवार के ट्वीट पर नज़र डालिए. उसी दिन सुबह 11 बजे मणिपुर में म्यांमार सीमा पर असम राइफल्स के काफिले पर आतंकवादी हमले में जब एक कर्नल, उनकी पत्नी, आठ साल के उनके बेटे के साथ चार जवान मारे गए थे.

शनिवार को शाह का उत्तर प्रदेश में बेहद व्यस्त कार्यक्रम था. वाराणसी में उन्होंने राजभाषा सम्मेलन को संबोधित किया और बताया कि उनके मंत्रालय में कोई भी फाइल हिंदी में लिखी या पढ़ी नहीं जाती है. उन्होंने यह भी बताया कि ‘रामायण’ में ‘आदर्श पति, आदर्श पत्नी… आदर्श शत्रु’ भी पाए जा सकते हैं. इस सम्मेलन के बाद वे आजमगढ़ पहुंचे, जहां उन्होंने लोगों से कहा कि वे फैसला कर लें कि अगले चुनाव में वे सपा नेता अखिलेश यादव के ‘जाम’ (जिन्ना, आजम खान, मुख्तार अंसारी) को चुनेंगे या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘जाम’ (जनधन, आधार, मोबाइल) को वोट देंगे. शाह इसके बाद बस्ती पहुंचे और दीप जलाकर तथा फुटबॉल को किक मार कर एक खेल आयोजन का उदघाटन किया.

इन आयोजनों को उनके ट्वीटर टाइमलाइन पर दर्ज किया गया. शाम 8.24 बजे जाकर उन्होंने ट्वीट करके मणिपुर में मारे गए सैनिकों के परिवारों को शोक संदेश भेजा. यह तो जगजाहिर है कि खासकर सैनिकों के मारे जाने की घटनाओं को वे कितनी गंभीरता से लेते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव को लेकर अपनी व्यस्तता के कारण उन्हें उक्त घटना पर प्रतिक्रिया देने में देर हो गई. इस तरह की वारदात के बाद आम तौर पर सुरक्षा संबंधी स्थिति की तुरंत समीक्षा की जाती है और आतंकवादियों के लिए कुछ कड़ी चेतावनी दी जाती है. इस सबके लिए शाह अधिकारियों से फोन पर जानकारी हासिल कर सकते थे.

अपनी सरकारी और सियासी व्यस्तताओं से मुक्त होते ही तुरंत उन्होंने आंध्र प्रदेश रवाना होने से पहले ट्वीट करके शोक संदेश भेजा. शाह ने इसी 25 जुलाई को शिलंग में असम राइफल्स के मुख्यालय में सैनिकों से बात की थी, इसलिए भी इन हत्याओं ने उन्हें झटका पहुंचाया होगा. असम राइफल्स उनके मंत्रालय के अधीन ही है.


यह भी पढ़े: BJP की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में ‘सब ठीक है’ के संदेश के बीच पार्टी तमाम अहम मसलों को दरकिनार कर रही है

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


शाह के लिए चुनौतियां बेहिसाब

भारत के गृह मंत्री होने के नाते उनके सामने चुनौतियां भारी हैं, खासकर आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर. वे अक्सर जिक्र किया करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किस तरह ‘बगावत मुक्त’ उत्तर-पूर्व का सपना देखते हैं. मणिपुर में ताजा आतंकवादी हमला बताता है कि यह सपना पूरा करना कितना कठिन है. अब तक यह तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा रहा है.

इससे पहले मणिपुर में आतंकवादियों ने सुरक्षा बलों को 2015 में निशाना बनाया था, जिसमें 18 सैनिक मारे गए थे. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (खापलांग) का मिलिटरी कमांडर निकी सुमि इसका प्रमुख आरोपी था. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने सुमि का पता देने के लिए 10 लाख रुपये का इनाम तक घोषित किया था.

लेकिन मोदी सरकार ने एनएससीएन (के) के निकी सुमि गुट से सितंबर 2021 में युद्धविराम का समझौता कर लिया. सुमि ने 2019 में इस गुट का गठन किया था.

अगस्त 2015 में एक बहुप्रचारित आयोजन में केंद्र सरकार के वार्ताकार आर.एन. रवि ने एनएससीएन (आइ-एम) के साथ समझौते की एक रूपरेखा पर प्रधानमंत्री की उपस्थिती में दस्तखत किया था. छह साल बाद भी अंतिम समझौता नहीं हो पाया है, और वार्ताकार भी बदल गए हैं.

उत्तर-पूर्व के राज्यों के बीच सीमा विवादों ने भी इस क्षेत्र की समस्याओं को और जटिल बना दिया है. पिछली जुलाई में मिजोरम पुलिस ने असम के छह पुलिसवालों को मार डाला था तब दोनों राज्यों के बीच तनाव इतना बढ़ा दिया था कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री तक उलझन में पड़कर कई दिनों तक इस बारे में कोई सार्वजनिक बयान नहीं दे पाए थे.

गृह मंत्री शाह को केवल उत्तर-पूर्व में चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ रहा है. गृह मंत्री के रूप में उन्होंने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे (अनुच्छेद 370) को खत्म करके और इस राज्य को केंद्रशासित दो राज्यों में बांट कर धमाकेदार शुरुआत की थी. इसके बाद उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) को संसद से मंजूरी दिलवाई और पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने के अपने इरादे की घोषणा भी की.

लेकिन 2020 शुरू होते ही उनका सफर भी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगे के साथ कठिन होता गया. संसद से मंजूरी के बाद भी सीएए कागज पर ही है क्योंकि गृह मंत्रालय इसके नियम नहीं तैयार कर पाया है. कश्मीर में नागरिकों, खासकर पंडितों पर आतंकी हमलों ने वहां जल्द सामान्य स्थिति बहाल होने की उम्मीद टूट गई है. यहां तक कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विजय दशमी के अपने भाषण में इस साल कहा कि ‘घाटी में आतंक का राज स्थापित करने के लिए’ ‘राष्ट्रवादी विचार वाले कई नागरिकों को निशाना बनाकर मारा गया है. भागवत ने कहा है कि ‘लोग इस स्थिति का सामना कर रहे हैं और आगे भी साहस के साथ करेंगे लेकिन आतंकी गतिविधियों पर रोक लगाने और उन्हें खत्म करने की कोशिशों में तेजी आनी चाहिए.’


यह भी पढे़: अमित शाह गलत हैं कि 2024 में मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना 2022 में योगी की जीत पर निर्भर है


नड्डा आगे आएं

जाहिर है, अमित शाह की जिम्मेदारियां स्पष्ट हैं. अगर वे शनिवार को उत्तर प्रदेश में सियासी और जाहिर तौर पर सरकारी कार्यक्रमों में व्यस्त थे तो इसकी वजह यह यह है कि भाजपा उन पर बहुत ज्यादा निर्भर है. यूपी विधानसभी चुनाव में पार्टी के बहुत ऊंचे दांव लगे हैं, और शाह को मोर्चे पर आगे आकर उसका नेतृत्व करने की जरूरत है. 2014 से यूपी में पार्टी का राजनीतिक वर्चस्व उन्हीं की बदौलत कायम है. योगी आदित्यनाथ को 2022 में अगर दोबारा जनादेश मिलता है तो वे भविष्य में कभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनकर उभरने की उम्मीद कर सकते हैं. लेकिन भाजपा यूपी में फिर जीतती है तो इसका श्रेय शाह को ही जाना चाहिए. गृह मंत्री एवं पूर्व भाजपा अध्यक्ष शाह का समय और उनकी प्रतिबद्धता सरकार और पार्टी के बीच बंटी हुई दिखती है. वे काम करने के मामले में जुनूनी माने जाते हैं लेकिन भाजपा, और केंद्र तथा राज्यों में उसकी सरकारों के इस प्रमुख संकटमोचन के लिए समय सीमित है.

इसलिए, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को आगे आना चाहिए. उन्हें जनवरी 2020 में यह पद सौंपा गया. वे शाह के नक्शे-कदम चलते हुए खूब दौरे कर रहे हैं और बूथ से लेकर केंद्र स्तर तक पदाधिकारियों के साथ बैठकें कर रहे हैं. पिछले साल बिहार चुनाव के दौरान शाह ने सारी ज़िम्मेदारी नड्डा को सौंप दी थी, और नड्डा के नेतृत्व में भाजपा ने नीतीश कुमत के जदयू को पीछे छोड़ते हुए शासक गठबंधन में पहली बार बड़े भाई का दर्जा हासिल कर लिया था.

लेकिन शाह के उत्तराधिकारी बनने के दो साल बाद भी नड्डा उनकी छाया में दबे नज़र आते हैं. आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर जो चुनौतियां हैं उनके मद्देनजर वक़्त आ गया है कि गृह मंत्री सियासत की जगह शासन पर ज्यादा ध्यान दें. क्या पता नड्डा भी चमत्कार कर दिखाएं.

लेखक का ट्विटर हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़े: राव-गौड़ा-गुजराल-वाजपेयी के PMO में पवार, मुलायम जैसे नेताओं के खिलाफ फाइलें थीं : पूर्व IAS ऑफिसर


 

Exit mobile version