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भारत में अफगानिस्तान के मामले में दो विचारधाराओं- ‘धीरज रखें’ और ‘सक्रिय रहें’ के बीच हो रही लड़ाई

भारत, अमेरिका के इस विश्वास के साथ खड़ा दिखता है कि यदि ज़्यादा-से-ज़्यादा देश तालिबान को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, तो इस आंतकी समूह के लिए काबुल पर कब्जा करना मुश्किल होगा.

विदेश मामलों के मंत्री एस जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन जुलाई 2021 | Twitter

कुछ ही हफ़्ते पहले अफ़ग़ानिस्तान के स्पिन बोल्डक इलाक़े में तालिबान के हाथों फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी की वीभत्स हत्या अब एक चेतावनी की तरह लगती है, अगर वाकई इसकी कोई जरूरत भी थी तो. भारत को अफगानिस्तान के मामले में किसी उचित परिणाम के निकलने या उसमें किसी तरह की भूमिका निभाने के बारे में अपनी महत्वाकांक्षाओं को भूल जाना चाहिए.

द न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर के अनुसार, तालिबान की हिरासत के दौरान सिद्दीकी का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत कर दिया गया था और उनका चेहरा पहचानने योग्य भी नहीं था. तालिबान को इस बात की कतई कोई परवाह नहीं थी कि वह उनकी ही तरह एक मुस्लिम है, उन्होंने उसे सिर्फ एक भारतीय के रूप में देखा.

वास्तव में, तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद, जिन्होंने पहले तो सिद्दीकी को अपने समूह द्वारा मारे जाने से ही इनकार किया था, अब नई दिल्ली के ऊपर यह कहते हुए ताना मार रहे हैं कि ‘भारतीय विमान (हेलिकॉप्टर) का इस्तेमाल आफ्गानिस्तान में लश्कर गाह स्थित एक अस्पताल सहित कई नागरिक और सरकारी सुविधाओं को नष्ट करने के लिए किया गया था. लश्कर गाह दक्षिणी अफगानिस्तान में हेलमंद प्रांत की राजधानी है जो कंधार और हेरात की ओर जाने वाले कई मार्गों को जोड़ेने वाले मार्ग पर स्थित है.

यहां एक अहम सवाल, ख़ासकर अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की पिछले सप्ताह हुई दिल्ली यात्रा के मद्देनजर, यह उठता है कि क्या भारत उस खूनी झमेले/झंझट में पड़ना चाहता है जिसे अमेरिका अफगानिस्तान में अपने पीछे छोड़े जा रहा है?


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‘सक्रिय रहें’ वाली विचारधारा के तर्क

जमीनी हक़ीकत एकदम साफ है. अमेरिकी 20 साल तक चले एक ऐसे लंबे युद्ध से बुरी तरह थक चुके हैं जिसमें 2,000 से अधिक अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं और हजारों अन्य घायल हो गये हैं. उन्होने इस दौरान एक ट्रिलियन डॉलर से अधिक की धनराशि भी खर्च कर दी है. अब वे बस बाहर निकलना चाहते हैं. अमेरिकियों के लिए यह बात कोई मायने नहीं रखती कि जिस ख़ालीपन को अमेरिका पीछे छोड़ रहा है, क्या उसे पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा भरा जा रहा है? ताज़ातरीन खबारों से यह पता चलता है कि पाकिस्तानी लड़ाके तालिबान को हेरात प्रांत में चल रहे भयानक हमले को अंजाम देने में सहायता कर रहे हैं.

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नई दिल्ली में एक विचारधारा वाला समूह- जिसमें ज्यादातर अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत शामिल हैं, जिन्होंने चीजों को बहुत करीब से देखा है और उस इलाके को अच्छी तरह से जानते हैं- एक अधिक सशक्त नीति की वकालत कर रहे हैं. इसका मतलब है अफ़ग़ानिस्तान में अपने सेना उतारने के विकल्प को छोड़कर भारत को वहां और अधिक प्रभावशाली भूमिका निभानी चाहिए. इसमें 2011 के अफगान-भारत रणनीतिक साझेदारी वाले समझौते को फिर से सक्रिय करना भी शामिल है, जिसका अर्थ होगा अफ़गानी रक्षा बलों- जो अब एक लगभग हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं- को वित्तीय सहायता और हथियारों की निरंतर एवं स्थाई आपूर्ति.

इस विचारधारा का सूत्र वाक्य है ‘अगर भारत अभी कार्रवाई नहीं करता है तो वह अफगानिस्तान में हार जाएगा’.
लॉन्ग वॉर जर्नल के अनुसार, अमेरिका की अफगानिस्तान से सैन्य वापसी का मतलब है अमेरिकी हवाई बेड़े में से 80 प्रतिशत से अधिक की वापसी. यह वो कारक है जो वहां अक्सर जीत और हार के बीच का अंतर होता है. अफगानिस्तान के 407 जिलों में से 223 पर तालिबान का नियंत्रण है, जबकि 116 पर नियंत्रण के लिए संघर्ष जारी है; अफगान सरकार सिर्फ़ 68 जिलों को नियंत्रित करती है. 34 प्रांतीय राजधानियों में से 17 तालिबान द्वारा नियंत्रित हैं.

इस ‘सक्रिय रहें’ विचारधारा के अनुसार, अगर भारत इस समय खुद का जोर नहीं लगाता है तो वह पिछले 20 वर्षों में तैयार की गई अपनी उपस्थिति को खतरे में डालने के बराबर होगा. इससे भी बुरी बात यह है कि पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान ठीक उसी तरह वापस इस इलाक़े मे घुस जाएगा जैसा कि उसने 1989 में सोवियत सैन्य बलों की वापसी और 2001 में अमेरिकी आक्रमण के बीच के काल में किया था, और वह भारत को इस इलाक़े में दोबारा दाखिल होने की इजाज़त नहीं देगा.

इसी सप्ताहांत में मुखर माने जाने वाले अफगान उप-राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह ने नाटो पर अफगानिस्तान में इस बग़ावत के पीछे पाकिस्तान का नाम नहीं लेने का आरोप लगाया है.

सालेह ने कहा, ‘अगर आपकी छत टपक रही ही तो आप उस पर पेंटिंग करके उसे ठीक नहीं कर सकते … हम पर दूसरी तरफ – पाकिस्तान से हमाला हो रहा है.’

भारत के लिए, अफगानिस्तान में अपनी उम्मीदों को कायम रखने के लिए ज़रूरी एक दुरूह कार्य प्रतिद्वंद्वी अफगान नेताओं (जैसे अशरफ गनी, हामिद करजई, अब्दुल्ला अब्दुल्ला, मार्शल दोस्तम, अमरुल्ला सालेह आदि) को तालिबान के खिलाफ एक साझा मोर्चा बनाने के लिए राजी करना और यह समझाना भी होगा कि अगर वे एक साथ खड़े नहीं होते हैं, तो वे सब-के-सब बिखर जायेंगे.

इसके अलावा, वहां एक जियो-इकोनॉमिक ग्रेट गेम (एक महत्वपूर्ण भू-आर्थिक परिणामों वाला खेल) भी चल रहा है, जिसे अब पाकिस्तान, चीन से मिलने वाली थोड़ी-बहुत मदद के साथ, खेल रहा है. पाकिस्तान-चीन की जोड़ी द्वारा प्रेरित मध्य एशियाई गलियारे पर तेज़ी से काम चल रहा है, जो मध्य एशिया से संपर्क के लिए अफगानिस्तान के अधिकांश हिस्से को दरकिनार कर देता है. इस बारे में जानने के लिए किसी को भी नक्शे पर केवल यह देखने की जरूरत है कि कैसे पाकिस्तान का गिलगित-बाल्टिस्तान उत्तर की ओर संकरे से अफ़गानी इलाक़े वखान कॉरिडोर और उसके बाद बदख्शां प्रांत, जो वर्तमान में तालिबान के हाथों में है, के रास्ते ताजिकिस्तान से जुड़ता है.

चीनी वखान में एक सड़क का निर्माण कर रहे हैं, जो उसके शिनजियांग प्रांत से अफगानिस्तान में प्रवेश करती है. इसके बाद, मालगाड़ियों के माध्यम से मध्य एशिया तक पहुंचने वाले चीनी सामानों को कराची तथा ग्वादर के पाकिस्तानी बंदरगाहों तक पहुंचने के लिए अब केवल बदख्शां के माध्यम से इस ज़मीनी मार्ग को अपनाने की ज़रूरत है.


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‘रणनीतिक धीरज’’ वाली विचारधारा के तर्क

इस बीच, नई दिल्ली में एक और विचारधारा ‘रणनीतिक धीरज’ की वकालत कर रही है. यह एक अलग तरह का सूत्र वाक्य है जो तेज़ी से राजधानी के गलियारों में अपनी पकड़ बना रहा है. इसका अर्थ यह है कि ‘इंतजार करना और अपने हाथ गंदे न करना’. इनका मानना है कि चूंकि अफगानिस्तान में एक गृह युद्ध होना तय है तो भारत को इसमें क्यों पड़ना चाहिए?’

इस विचारधारा का मानना ​​​​है कि पारम्परिक रूप से सावधानी वाली अपनी आदत के बावजूद, चीन के अफ़ग़ानिस्तान के सामरिक भंवर में उलझने की पूरी संभावना है. ऐसा न केवल इसलिए कि वे बेल्ट-एंड-रोड वाले बुनियादी ढांचे के माध्यम से अपना प्रभाव बढ़ाने पर आमादा हैं, बल्कि उनके मुख्य ग्राहक पाकिस्तान का भी इसमें हाथ होगा. पिछले हफ्ते तियानजिन में तालिबान नेताओं को दिया गये निमंत्रण के पीछे यही मंशा है.

यही कारण है कि अभी सारा ध्यान कूटनीति पर है. पिछले हफ्ते एंटनी ब्लिंकन के बगल में बैठे, विदेश मंत्री एस जयशंकर ने शांतिपूर्ण तरीके से और बातचीत द्वारा संघर्ष के अंत की आवश्यकता पर ज़ोर दिया था. ब्लिंकन ने कहा कि अगर तालिबान सत्ता तक पहुंचने के रास्ते में लोकतांत्रिक मानदंडों का पालन नहीं करता है तो अफगानिस्तान एक ‘अछूत देश’ बन जाएगा.

स्पष्ट रूप से, भारत अमेरिका के इस विश्वास के साथ खड़ा दिखता है कि यदि ज़्यादा-से-ज़्यादा देश तालिबान को स्वीकार करने से इनकार करते हैं, तो इस आंतकी समूह के लिए काबुल पर कब्जा करना मुश्किल होगा. उसके बाद पाकिस्तान के पीएम इमरान खान ने भी कहा है कि पाकिस्तान तालिबान की तरफ से नहीं बोलता है. दरअसल, ऐसा लगता है कि अमेरिका इस बात की उम्मीद कर रहा है कि अगर तालिबान के लिए काबुल तक पहुंचना मुश्किल हो जाता है, तो उसके तालिबान सैनिक पाला बदल कर इस बार अपने अन्य अफगान बिरादरों के साथ उनके रक्षा बलों में शामिल हो जाएंगे. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या भारत भी ऐसा ही सोचता है, लेकिन यह उस तरह का विचार है जो ‘रणनीतिक धीरज’ वाली विचारधारा के अनुसार ध्यान देने योग्य है.

यहां एक बात स्पष्ट है कि कोई भी नैतिक दबाव तभी काम करेगा जब तालिबान के खिलाफ युद्ध के मैदान में कोई बड़ी बढ़त मिलेगी. यही कारण है कि हेरात शहर के लिए छिड़े भयंकर युद्ध के बीच अमेरीकी बी-52 बमवर्षक विमान शहर के ऊपर हवा में उड़ रहें हैं. बुरी तरह से थके होने के बावजूद अमेरिकी यह अच्छी तरह महसूस करते हैं कि वे अफगानिस्तान को तालिबान और पाकिस्तान को किसी थाली में परोस कर नहीं सौंप सकते.

और भारत का क्या? ‘करें या ना करे’ वाली दुविधा पर विचार-विमर्श इस सप्ताह भी बदस्तूर जारी है.

(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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