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CBSE के मामले में गांधी परिवार ने मिसाल पेश की कि राजनीति सिर्फ वोट के लिए नहीं की जाती

सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा के प्रश्नपत्र में बेहद प्रतिगामी और महिला विरोधी टिप्पणी को संसद में एक अहम एजेंडा बनाकर सोनिया गांधी ने इस उम्मीद को मजबूत किया है कि राजनीति सिर्फ चुनाव जीतने के जुनून से आगे भी सोच सकती है.

राहुल गांधी और प्रियंका गांधी/एएनआई

सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा के प्रश्नपत्र में महिलाओं और बच्चों के पालन-पोषण के बारे में की गई बेहद प्रतिगामी और महिला विरोधी टिप्पणी पर गांधी परिवार के आक्रोश ने इस विश्वास को मजबूत किया है कि राजनीतिक नेताओं, विपक्षी दलों और विधि निर्माताओं का काम ऐसे मुद्दों को उठाना है जिन्हें रेखांकित करना जरूरी है, भले ही वे चुनावी लाभ न दिलाते हों या इतने सनसनीखेज न हों कि कई दिनों तक सुर्खियों में बने रहें.

पिछले करीब एक दशक से भारतीय राजनीति के हर खेमे के कर्ताधर्ता केवल उन्हीं मुद्दों को उठाते रहे हैं, जिनसे जनभावना को उद्वेलित किया जा सके और चुनावी लाभ हासिल हो. बाकी सभी मुद्दों को पेचीदा और फीका मान कर दरकिनार किया जाता रहा है.

ठोस और कम आकर्षक मसलों पर राजनीतिक हलक़ों में शायद ही चर्चा होती है. सीबीएसई की निंदनीय टिप्पणी का सोनिया गांधी ने लोकसभा में जिस तरह जोरदार विरोध किया उसकी हाल के दिनों में शायद दूसरी कोई मिशाल नहीं मिलती. इसे छोटा मुद्दा कहा जा सकता है लेकिन एक महिला राजनेता और मुख्य विपक्षी दल की अध्यक्ष के लिए सदन में इस तरह के मसले पर ज़ोर देना इस बात का संकेत है कि विपक्ष को और देश के राजनीतिक वर्ग को वास्तव में क्या कुछ करना चाहिए, वह भी यह जानते हुए कि ऐसे मुद्दे का न शायद जनता पर असर होगा और न इससे चुनावी प्रतिफल मिलेगा.

मूर्खतापूर्ण टिप्पणी

सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा के पेपर में की गई टिप्पणी के लिए अश्लील, प्रतिगामी और पुरुष प्रधान मानसिकता की उपज जैसे विशेषण भी हल्के ही माने जाएंगे. सीबीएसई ने इस टिप्पणी को वापस ले लिया लेकिन यह मसला इसके साथ खत्म नहीं हो जाता. सबसे पहली बात तो यह है कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि यह टिप्पणी पेपर में आई कैसे, और इसके लिए ज़िम्मेदारी तय की जाए. इस टिप्पणी में कहा गया है कि ‘महिला की आजादी बच्चों पर माता-पिता के प्रभुत्व को खत्म करती है’. इस तरह की टिप्पणी का किसी भी विवेकपूर्ण और सशक्त समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता, कच्ची उम्र के बच्चों के इम्तहान के पर्चे में तो कतई नहीं हो सकता.

सोनिया गांधी ने इसे ‘घटिया’, ‘निंदनीय’ और ‘मूर्खतापूर्ण’ कहा तो ठीक ही कहा और इस प्रासंगिक मुद्दे को उठाने के लिए संसद के सदन का उपयोग किया तो वह और भी उचित था. कांग्रेस अध्यक्ष ने इसे संसद में उठाया, प्रियंका गांधी वाड्रा ने इसके खिलाफ ट्वीट करते हुए इसे ‘बकवास’ बताया, तो राहुल गांधी ने भी इसी तरह का ट्वीट किया.

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सीबीएसई ने तुरंत टिप्पणी को वापस लेने का बयान जारी किया. कांग्रेस ने अगर इस मुद्दे को इतने जोरदार तरीके से न उठाया होता तो यह पूरा मामला अखबारों में किसी कोने में दफन हो गया होता.


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दुर्लभ उदाहरण

इस बात से बेशक इनकार नहीं किया जा सकता कि सीबीएसई पर गांधी परिवार के हमले के पीछे राजनीतिक मकसद भी था. राहुल गांधी ने तो भाजपा-आरएसएस का नाम भी लिया. लेकिन तथ्य यह है कि कांग्रेस और उसके ये नेता जानते हैं कि यह ‘जनता का मुद्दा’ नहीं है, जो उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में होने वाले चुनावों में नरेंद्र मोदी सरकार को किसी तरह का नुकसान पहुंचा सकते हों.

राजनीतिक नेताओं, खासकर विपक्ष की भूमिका हाशिये पर पड़े तथा कमजोर तबकों के पक्ष में आवाज बुलंद करना है, भले ही इससे चुनावी लाभ न होता हो या मीडिया में धूम न मचती हो या सरकार बड़ी परेशानी में न पड़ती हो. बदकिस्मती से भारतीय राजनीति केवल लफ्फाजी, सनसनी और वोटों के इर्द गिर्द केन्द्रित हो गई है. चुनाव जीतना बेशक लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है और मैं अक्सर कहती रही हूं कि इस पहलू पर पर्याप्त ध्यान न देकर कि सत्ता ही राजनीति का केंद्रीय मकसद है, कांग्रेस अपना अहित ही कर रही है. लेकिन मुद्दों को उठाना और केवल ‘वोट दिलाने वाले’ मुद्दों को ही नहीं दूसरे मुद्दों को भी उठाना लोकतंत्र के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है.

धर्म, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदुत्व, भ्रष्टाचार, किसानों के मसले, ईंधन की कीमत, विवादास्पद कानून, स्वास्थ्य सेवाएं, जनकल्याण योजनाएं आदि ऐसे मसले हैं जो मतदाता से सीधे जुड़ते हैं और इसलिए हमारे राजनीतिक विमर्श में छाये रहते हैं. इसलिए, 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले राफेल, बालाकोट, उज्ज्वल योजना, ग्रामीण आवास, हिंदुत्व, राम मंदिर, आदि मुद्दे छाये हुए थे.

इसकी वजह शायद यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने जिस राजनीतिक दौर का आगाज किया है उसमें चुनावी जीत के सिवा सब कुछ बेमानी हो गया है और हमारा राजनीतिक विमर्श काफी पूर्वाग्रहग्रस्त और अवसरवादी हो गया है.

नेता लोग शायद ही ऐसे मुद्दों को उठाते हैं जिनमें उन्हें चुनावी लाभ न दिखता हो. सीबीएसई वाला मुद्दा निश्चित ही ऐसा था जिसमें इसकी संभावना न्यूनतम थी. यह महज एक परीक्षा के पेपर का मामला दिख सकता है लेकिन ऐसे मुद्दे की अनदेखी के नतीजे गंभीर हो सकते हैं और इनके कारण बड़ा नुकसान हो सकता है. यह जाहिर करता है कि एक समाज के तौर पर हम किन चीजों को सही मानते हैं और महिलाओं की भूमिका को प्रतिगामी रूप से परिभाषित करने के प्रति हम कितने उदासीन हो सकते हैं.

इसे संसद में एक अहम एजेंडा बनाकर, भले ही इसका चुनावों के लिए महत्व न हो या मीडिया अथवा सोशल मीडिया में यह एक दिन से ज्यादा चर्चा में न रहने वाला हो, सोनिया गांधी ने इस उम्मीद को मजबूत किया है कि राजनीति सिर्फ चुनाव जीतने के जुनून से आगे भी सोच सकती है.

यहां व्यक्त विचार निजी है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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