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ICU- 70 साल के बुजुर्ग या 30 साल की महिला के लिए? कोरोना की दूसरी लहर में डॉक्टर, नर्स मनोचिकित्सक का कर रहे रुख

भारत मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान नहीं देता है. दूसरी लहर ने इसे नकारे जाने को उजागर भी कर दिया है.

ICU for 70yr man or 30yr woman? Doctors, nurses are turning to psychiatrists in 2nd wave ICU- 70 साल के बुजुर्ग या 30 साल की महिला के लिए? कोरोना की दूसरी लहर में डॉक्टर, नर्स मनोचिकित्सक का कर रहे रुख

मेरे पास हाल ही में मुंबई के एक बड़े निजी अस्पताल में काम करने वाले पारिवारिक मित्र और सीनियर एनेस्थिसियोलॉजिस्ट का फोन आया. उन्होंने बताया कि पिछले दो महीनों से लग रहा है कि उनके दिल की धड़कन कुछ असामान्य है. उसके बाद बेचैनी इस कदर बढ़ गई कि वह अस्पताल की क्रिटिकल केयर यूनिट में भर्ती एक गंभीर कोविड-19 मरीज की नली ही नहीं लगा पाए. उनके 35 साल के करियर में ऐसा कभी नहीं हुआ था. वह जड़वत खड़े रह गए और एक अन्य डॉक्टर को आकर यह काम करना पड़ा. उनको अपराधबोध ने घेर लिया और फिर उन्होंने मुझे यानि एक मनोचिकित्सक को फोन किया.

स्काइप पर प्रारंभिक जांच के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह क्लीनिकल एंजाइटी का एक रूप था. फिर मैंने उनका संपर्क एक थेरेपिस्ट से कराया जिसने बिना-दवा थेरेपी के जरिये इस बीमारी का इलाज शुरू किया. मैंने थोड़े समय के लिए उन्हें लो-डोज एंग्जियोलाइटिक पर रखा. दवा और थेरेपी सेशन के साथ वह जल्द ही अपनी एंजाइटी से उबरने में सक्षम हो पाए. यह सिर्फ एक घटना है— मेरे लिए तो ऐसे लोगों की सही संख्या बता पाना मुश्किल है जो मदद के लिए हमारे संगठन के पास पहुंच रहे हैं. जब मैंने अन्य सहयोगियों के साथ बात की तो उनके पास भी बताने के लिए ऐसी ही कई घटनाएं थीं.

भारत की दूसरी कोविड लहर ने हमारे हेल्थकेयर प्रोफेशनल को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है. खासकर यदि बात मानसिक स्वास्थ्य की जाए तो. पहली लहर के दौरान स्थिति इस हद तक नहीं पहुंची थी. दूसरी लहर में कोविड-19 मरीजों के साथ-साथ हेल्थकेयर प्रोफेशनल भी खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं. मैंने हाल ही में पढ़ा कि दिल्ली के एक निजी अस्पताल में एक रेजिडेंट डॉक्टर ने कथित तौर पर इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि हर दिन हताशापूर्ण स्थितियां झेलते हुए वो परेशान हो गया था. उसे कोविड वार्ड में हर दिन सात से आठ गंभीर कोविड मरीजों की देखभाल करनी होती थी. वह अपने पीछे दो महीने की गर्भवती पत्नी छोड़ गया है.

अधिकांश डॉक्टरों, नर्सों और अस्पताल के अन्य कर्मचारियों में बुरी तरह थकान, महामारी से ऊबन, अलग-थलग पड़ने की भावनाएं, अकेलापन, दुख जाहिर करने का मौका न मिलने जैसी स्थितियां उभर रही हैं. ज्यादा से ज्यादा लोग मदद हासिल करने की कोशिश में लगे हैं.


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डॉक्टर ऑटो-पायलट नहीं हो सकते

पहली लहर से उबरने के कुछ ही महीनों बाद फिर से वैसे ही हालात से जूझ रही मौजूदा वर्कफोर्स की हालत खराब हो चुकी है और स्वास्थ्यकर्मियों के कंधों पर जिम्मेदारियों का जरूरत से ज्यादा बोझ पड़ गया है. जब तक फ्रंटलाइन वर्कर्स को पर्याप्त आराम नहीं दिया जाता, हम उनसे ये उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वे अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभा पाएंगे. आखिरकार हेल्थकेयर वर्कर्स भी इंसान हैं और वे ऑटो-पायलट मोड पर काम नहीं कर सकते.

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स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच डर की भावना तेजी से बढ़ती देखी जा रही है. ऐसे कई नर्सिंग प्रोफेशनल हमारे पास आ रहे हैं जो कहते हैं कि उन्हें कोविड वार्ड में फिर से जाने में डर लगता है.

कर्नाटक के हुबली स्थित एक कोविड अस्पताल में कार्यरत रेखा (बदला हुआ नाम) ने ऑनलाइन अप्वाइंटमेंट मांगा.

उसने हमसे कहा, ‘डॉक्टर, मैं कैच-22 की स्थिति में हूं. अगर मैं काम नहीं करती तो मेरी और मेरे परिवार की जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं. इस सबके बीच, मुझे कोविड वार्ड में कदम रखने के नाम से ही डर लगने लगता है. मुझे दिनभर बेचैनी होती रहती है और हर समय बस घर लौटने का इंतजार रहता है. मैं घर पहुंचती हूं तो थककर चूर हो चुकी होती हूं. फिर भी मुझे अपने परिवार के लिए रात का खाना बनाना होता है. यह सब हताश कर देने वाला है.’

हर हेल्थ वर्कर के दिमाग में एक ही सवाल गूंजता रहता है, ‘कहीं मैं इस घातक वायरस को अपने घर न्योता तो नहीं दे रहा हूं?’ इस डर के बीच एक बड़ा सच यह भी है कि डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है. उनके पास सप्ताहांत पर काम नहीं करने या घर से काम करने जैसी कोई सुविधा नहीं है. अगर वे काम पर जाना बंद कर देते हैं, तो दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलेगी. विडंबना यह है कि वे क्रूरतम हालात से जूझ रहे हैं. एक तरह वे जिंदा रहने के लिए काम कर रहे हैं और दूसरी तरफ इसमें हर पल संक्रमण की चपेट में आकर जान को जोखिम डालने का खतरा बना हुआ है.

काम भी आसान नहीं है. निर्णय में थोड़ी-सी भी चूक घातक हो सकती है, यहां हम जिंदगी और मौत के सवाल पर बात कर रहे हैं. बेड, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की भारी कमी है. इसने डॉक्टरों को कुछ कटु विकल्प अपनाने के लिए बाध्य किया है— और नतीजा उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है. एक तरफ जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुके एक 70 वर्षीय व्यक्ति को वेंटिलेटर की उतनी ही जरूरत है जितनी कि एक 30 वर्षीय महिला को है, जो गंभीर कोविड-19 से पीड़ित है. और केवल एक ही वेंटिलेटर उपलब्ध है. ऐसी स्थिति में हमें किस दिशानिर्देश का पालन करना है?

मूलत: कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. राम (बदला हुआ नाम) ने महाराष्ट्र के नासिक में स्थित अपने अत्याधुनिक अस्पताल को कोविड फैसिलिटी में बदल दिया है. वह मुझे बताते हैं कि इस तरह के कठिन विकल्प अपनाते समय उनके अस्पताल के डॉक्टर एकदम कमजोर पड़ जाते हैं. उनके एक फिजीशियन ने हाल ही में यह कहते हुए अस्पताल छोड़ दिया कि वह अब इस तरह के विकल्पों के कारण होने वाले मानसिक दबाव नहीं झेल सकता.

हमें कैसे पता चलेगा कि यह आघात कितना गहरा है? क्या हमसे यह उम्मीद की जाती है कि हम ऐसा मानकर एक के बाद दूसरे मरीज को देखते जाएंगे, मानों कुछ हुआ ही नहीं हो? मेरे बहनोई एक न्यूरोसर्जन और मेरी बहन एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ है जिन्होंने मुझे बताया कि फ्रंटलाइन वर्कर किस-किस तरह का दबाव झेल रहे हैं. मैं देखता हूं कि जब वे घर लौटते हैं, थककर चूर हो चुके होते हैं. उनके लिए एकमात्र राहत परिवार का डिनर होता है जो हम सभी साथ बैठकर करते हैं और उस दौरान भी बातचीत इसी पर केंद्रित हो जाती है कि स्वास्थ्यकर्मियों को किस तरह का भावनात्मक दबाव सहन करना पड़ता है.


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सिर्फ योग नहीं

भारत मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान नहीं देता है. दूसरी लहर ने इसे नकारे जाने को उजागर भी कर दिया है.

ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ नर्सिंग की तरफ से किए एक अध्ययन में पाया गया है कि क्रिटिकल केयर में काम कर रही खराब शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वाली नर्सों ने बेहतर स्वास्थ्य वाली नर्सों की तुलना में अधिक चिकित्सीय गलतियां की हैं. जांच के दौरान लगभग 40 प्रतिशत में अवसाद के लक्षण पाए गए और 50 प्रतिशत को एंजाइटी से पीड़ित पाया गया. 12 भारतीय राज्यों में किए गए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 से पता चलता है कि 20 में से 1 भारतीय क्लीनिकली डिप्रेशन की स्थिति में है.

इसका एक उपाय स्वास्थ्यकर्मियों को प्रोत्साहित करने में निहित है. ज्यादा वर्क फोर्स आगे आए इसके लिए मुआवजे और कामकाज से संबंधित लाभ काफी आकर्षक होने चाहिए. मौजूदा वेतनमान इतना कम है कि यह हतोत्साहित करने वाला है. किसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना में हेल्थवर्कर की वायरस की चपेट में आकर मौत होने से उक्त कर्मचारी के परिवार को पर्याप्त मुआवजा दिया जाना चाहिए.

योगाभ्यास, व्यायाम और ध्यान करने जैसे अभ्यासों का सुझाव काफी हद तक गैर-स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए लागू होता है. इस तरह की महामारी के बीच में यह उम्मीद करना ही अव्यावहारिक है कि स्वास्थ्यकर्मियों के पास ऐसे अभ्यासों के लिए समय होगा.

प्रोत्साहन उम्मीद से ज्यादा वर्कफोस को आकृष्ट करेगा जिससे मौजूदा पेशेवरों को काम के दबाव से थोड़ा उबरने में मदद मिलेगी और फिर उन्हें भी समय-समय पर आराम देने की व्यवस्था हो सकेगी.

भारत में स्वास्थ्य सेवा संस्थानों को मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेना चाहिए. अधिकांश मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में मनोरोग विभाग को दूरदराज के किसी कोने में डाल दिया जाता है या फिर ऐसा भी हो सकता है कि उसे किसी अलग इमारत में ही स्थापित किया गया हो जो कि मुख्य हेल्थकेयर सिस्टम से अलग हो.

मानसिक स्वास्थ्य को सामान्य हेल्थकेयर सिस्टम से जोड़ने की शुरुआत मानसिक स्वास्थ्य देखभाल आसान बनाए जाने के साथ हो सकती है. एक विषय के रूप में मनोचिकित्सा को स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए और अंतिम वर्ष के पाठ्यक्रम में छात्रों के मूल्यांकन के लिए अलग से थ्योरी और प्रैक्टिकल की परीक्षा होनी चाहिए. यह मानसिक स्वास्थ्य को लेकर किसी कलंक जैसी भावना को दूर करने में मददगार होगा और हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य की जमीनी हकीकत के प्रति ज्यादा से ज्यादा डॉक्टरों को जागरूक करेगा.

उम्मीद है, एक बार जब इस महामारी से उबर जाएंगे तो एक देश के रूप में हम मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चर्चा आगे बढ़ाने के लिए और गंभीरता से प्रयास करेंगे. डॉक्टरों और अस्पताल कर्मचारियों के संबंध में भी.

(लेखक मानस इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ, हुबली में वरिष्ठ सलाहकार मनोचिकित्सक हैं. उनका ट्विटर एकाउंट @alokvkulkarni है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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