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सौ साल पहले किसानों के आंदोलन और शक्ति प्रदर्शन का बड़ा केंद्र थी अयोध्या

इतिहास की पुस्तकों में यह शक्तिप्रदर्शन अयोध्या कांफ्रेंस के नाम से दर्ज है, जिसमें कोई एक लाख किसानों ने भाग लिया था. उस वक्त के लिहाज से यह संख्या बहुत बड़ी थी.

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खेतो में काम करते किसान । प्रतीकात्मक तस्वीर: कॉमन्स

आज की तारीख में देश की तो क्या, किसानों की युवा पीढ़ी को भी, शायद ही मालूम हो कि कोई सौ साल पहले भगवान राम की अयोध्या किसानों के आन्दोलन और शक्ति प्रदर्शन का बड़ा केन्द्र थी और दिसम्बर 1920 में अवध किसान सभा के तत्वावधान में वहां हुए किसानों के अभूतपूर्व शक्ति प्रदर्शन ने तत्कालीन गोरी सरकार को हिलाकर रख दिया था.

इतिहास की पुस्तकों में यह शक्ति प्रदर्शन अयोध्या कांफ्रेंस के नाम से दर्ज है, जिसमें कोई एक लाख किसानों ने भाग लिया था. उस वक्त के लिहाज से यह संख्या बहुत बड़ी थी, क्योंकि तब यातायात के साधनों का अभाव तो था ही, ऐसी कांफ्रेंसों में जाने पर किसानों पर सरकारी कहर भी खूब बरपा होता था. इस कांफ्रेंस से पहले भी जमीनदारों व ताल्लुकदारों ने सरकारी अमले से मिलीभगत कर किसानों को अयोध्या पहुंचने से रोकने के लिए कुछ उठा नहीं रखा था. लेकिन वे सफल नहीं हो पाये थे.

आगरा कालेज, आगरा में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर डाॅ. निशा राठौर, जिन्होंने अवध के किसान आन्दोलन पर कई शोध किये हैं बताती हैं कि अयोध्या के संतों-महंतों ने तरह-तरह की असुविधाएं झेलते और गोरी सरकार की निगाहों से बचते-बचाते इस काफ्रेंस में भाग लेने पहुंचे किसानों का हार्दिक स्वागत किया था. उन्होंने उनके लिए अपने मठों-मंदिरों के दरवाजे खोल दिये थे और उनमें ठहराकर उनका हर सम्भव आतिथ्य सत्कार किया था.

इससे चिढ़ी गोरी सरकार संतों-महतों का तो खैर कुछ नहीं बिगाड़ पाई थी, लेकिन किसान सके कोप से नहीं ही बच पाये थे. कॉन्फ्रेंस की समाप्ति पर वे अपने घरों को वापस जाने लगे तो उनके द्वारा रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ियों की प्रतीक्षा करने और उनमें सवार होने में भी बाधाएं डाली गईं. लेकिन किसान जैसे इस सबके लिए तैयार होकर आये थे. पुलिस ने उन्हें रोका तो वे नये सिरे से आन्दोलित हो उठे, रेलपटरियों पर ही लेट गये और शांतिपूर्वक सत्याग्रह शुरू कर दिया.

पुलिस ने उन्हें तितर-बितर करने के लिए पहले उन पर लाठियां भांजीं, फिर उन पर रेल के भाप के इंजन से निकले गर्म पानी की बौछारें डालीं. फिर भी उन्हें भगा या रास्ते से डिगा नहीं पाई. अंततः रेल-प्रशासन को झुकना पड़ा और उनको ट्रेनों से अपने-अपने जिलों में वापस भेजना पड़ा.

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ज्ञातव्य है कि अवध किसान सभा इस कॉन्फ्रेंस से थोड़े ही दिनों पहले, 17 अक्टूबर 1920 को प्रतापगढ़ जिले में गठित की गई थी, जिसके बाद किसान सभा के बैनर पर होते आ रहे किसान आन्दोलनों का स्वरूप एकदम से बदलकर आजादी के राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा से जुड़ गया था.

दरअसल, अवध किसान सभा ने अपने गठन के बाद जल्दी ही कोई 330 किसान सभाओं को अपने साथ जोड़ लिया था, जो अब तक अलग-थलग सी किसान हितों के लिए संघर्ष करती आ रही थीं. इतना ही नहीं, उसने रायबरेली के रसूलपुर गांव की किसान सभा से भी समन्वय स्थापित कर लिया था और सुल्तानपुर व फैजाबाद में भी अपनी इकाइयां सक्रिय कर दी थीं.

डाॅ. निशा राठौर के अनुसार अवध किसान सभा को अयोध्या में किसान कॉन्फ्रेंस आयोजित करने का सुझाव सबसे पहले किसान सभा के संस्थापक सदस्य और कांग्रेस नेता गौरीशंकर मिश्र ने दिया था. वे चाहते थे कि इसकी मार्फत किसानों की ताकत का प्रदर्शन कर सरकार को झुकने और उनका उत्पीड़न रोकने पर बाध्य किया जाये. सभा में उनका सुझाव स्वीकृत होने के बाद उसके कार्यकताओं लल्लन जी (वकील), केदारनाथ व देव नारायण आदि ने सम्मेलन की तैयारियां शुरू की तो किसानों के बीच किवदंतीपुरुष बन चुके बाबा रामचन्द्र भी अयोध्या पहुंच गये.

इन बाबा के बारे कहा जाता है कि वे फिजी में बंधुआ मजदूरी का अभिशाप झेलकर आये महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे.

अवध को अपनी कर्मभूमि बनाने का फैसला उन्होंने किन परिस्थितियों में, कब और क्यों लिया, पक्के तौर पर किसी को नहीं मालूम. इतना ही पता है कि 1909 में वे अवध में गांव-गांव घूमकर लोगों को ‘रामचरित मानस’ के दोहे व चैपाइयां सुनाया करते थे. इस दौरान सराकार के साथ सामंतों का भी अत्याचार झेल रहे किसानों की दुर्दशा नहीं देख पाये तो उनके आन्दोलन से जुड़ गये और जल्दी ही उनके सबसे धारदार नेता बन गये.

अयोध्या कांफ्रेंस में अवध के प्रायः सभी जिलों के किसानों को बुलाया गया था, लेकिन पहुंचने वालों में सबसे अधिक संख्या प्रतापगढ़ के किसानों की ही थी. कारण यह कि अवध किसान सभा के गठन से पहले किसान सभाएं इस जिले में ही सक्रिय थीं. हां, किसानों के अलावा कांग्रेस के अनेक नेता और बहुत से ऐसे जागरूक लोग भी, जो किसानों को अत्याचारों से बचाना चाहते थे, इस कांफ्रेंस में जोशोखरोश के साथ सम्मिलित हुए. कांग्रेस की ओर से पं. मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू के भी आने का कार्यक्रम था, लेकिन आखिरी क्षणों में कुछ ऐसा व्यवधान आया कि वे नहीं आ सके. फिर भी गोरी सरकार और जमीनदारों व ताल्लुकदारों के प्रति किसानों का रवैया जानने के लिए प्रतापगढ़ के डिप्टी कमिश्नर वीएन मेहता भी इस कांफ्रेस में आये.

सारे किसान किसानों ने कांफ्रेंस के मंच पर बाबा रामचन्द्र का अनोखा रूप देखा तो चकित रह गये. बाबा उस पर कैदी के रूप में उपस्थित हुए. उन्होंने अपने शरीर को रस्सी से बांध रखा था. इस तरह वे किसानों को उनकी गुलामी का अहसास कराना चाहते थे. यह कि वे भी उन्हीं की तरह ताल्लुकदारों और अंग्रेजी सरकार की बेड़ियों में जकड़े हुए है और इस आन्दोलन के द्वारा इन बेड़ियों से आजाद हो पायेंगे.


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बाबा ने कहा कि वह अपने शरीर से रस्सी तभी खोलेंगे. जब किसान उन्हें भरोसा दिलायें कि वे एक होकर गुलामी की बेड़ियों से आजाद होने के लिए अपना संघर्ष जोरदार तरीके से जारी रखेंगे. कॉन्फ्रेंस में उपस्थित किसानों ने उनको भरोसा दिलाया कि वे एक होकर लड़ेंगे. महिला किसान सत्यादेवी ने भरोसा दिलाया कि महिलाएं भी इस लड़ाई में पूरी दृढ़ता से साथ रहेंगी. इतना भरोसा मिलने के बाद बाबा अपने शरीर पर बंधी रस्सियां खोलने को राजी हुए. तब गौरीशंकर मिश्र ने उनको रस्सियों से मुक्त किया और किसानों ने कॉन्फ्रेंस स्थल को बाबा रामचन्द्र और सीताराम की जय के नारों से गुंजा दिया.

जयकारों के बीच बाबा ने अपने भाषण में कहा कि वह किसानों की लड़ाई में जेल जाने और फांसी के फंदे पर लटकने से भी नहीं डरते.

इस कांफ्रेंस ने अवध के किसानों में न केवल जोश भर दिया था बल्कि उनके संघर्ष के इरादों को भरपूर मजबूती प्रदान की थी. फिर तो उन्होंने गोरी सरकार और ताल्लुकदारों द्वारा किये जा रहे दोहरे अत्याचार के खिलाफ लम्बी लड़ाई के लिए कमर कस ली थी. अंग्रेज अफसर जेए फरनाॅन ने किसानों पर इस कांफ्रेस के प्रभाव के बारे में जानकारी देते हुए रायबरेली के डिप्टी कमिश्नर को लिखा था कि ‘अब किसान अपने संगठन की ताकत और आंदोलन के महत्व को समझ चुके हैं.’

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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