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कोविड ने प्रारंभिक शिक्षा को कैसे प्रभावित किया, अभिभावकों, शिक्षकों और तकनीक की क्या है भूमिका

भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को मजबूत करने के लिए अभिभावकों और शिक्षकों को सामर्थ्य और सशक्त बनाना अनिवार्य है और ऑनलाइन शिक्षा को समावेशी और सुलभ बनाने की जरूरत है.

क्लासरूम में छात्र | प्रतीकात्मक तस्वीर | pxhere.com

भारत में कोविड महामारी का प्रभाव शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक महसूस किया गया है. 18 महीने की महामारी के बाद भी स्कूलों का पारंपरिक रूप से खुलना असंभावित है और स्कूलों के आंशिक रूप से खुलने पर भी प्री-प्राइमरी कक्षाओं को सबसे कम प्राथमिकता दी जा रही है. दुर्भाग्यवश महामारी के दौरान, भारत में कई बड़ी संस्थाओं ने शिक्षा पर पड़े प्रभाव के अपने अध्ययन में भी प्री-प्राथमिक शिक्षा को वरीयता नहीं दी है.

बचपन के प्रारंभिक वर्ष बच्चों के शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक, पोषण और स्वास्थ्य विकास के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा (ईसीई) जिसे आमतौर पर भारत में पूर्व-विद्यालय या पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के रूप में जाना जाता है, 3-6 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों से संबंधित है.


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ईसीई पर महामारी का प्रभाव

चल रही महामारी के साथ, कक्षाओं को देश के अधिकांश हिस्सों में ऑनलाइन मोड में अंतरित कर दिया गया है और इसमें ईसीई कोई अपवाद नहीं है. हालांकि, ईसीई के स्तर पर शिक्षा और सीखने की आवश्यकताएं विशेष हैं और इसमें खेल-आधारित और बहु-विषयक सिद्धांतों पर ज़ोर दिया जाता है.

ईसीई को अक्सर देखभाल और समाजीकरण के पहलुओं के साथ जोड़ा जाता है जो छोटे बच्चों के समग्र सीखने के अनुभव में सहायता करते हैं. डिजिटल शिक्षा में अचानक आए बदलाव ने शिक्षकों और माता-पिता को चकित कर दिया है और ईसीई के स्तर के पढ़ाने और सीखने की प्रक्रिया पर व्यापक प्रभाव डाला है.

महामारी के दौरान ईसीई- अभिभावकों, शिक्षकों तथा तकनीकी की भूमिका

महामारी के दौरान स्कूलों के बंद होने के कारण, प्रारंभिक शिक्षा में अभिभावकों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है- माता-पिता की और शिक्षक की.

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आमतौर पर भी पूर्व में ईसीई के ऊपर किए गए अध्ययन माता-पिता और शिक्षकों की भागीदारी की भूमिका पर जोर देते हैं परंतु बहुत से परिदृश्य में समस्या यह है कि न तो माता-पिता शिक्षण में विशेषज्ञ हैं और न ही उनके पास समय और उचित संसाधन है.

अध्ययन ये भी बताते हैं कि परिवारों में प्रायः बड़े बच्चों की शिक्षा को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती हैं, विशेषतः तब जब घर में एक से ज्यादा स्कूल जाने वाले बच्चे हों.

साथ ही, महामारी के दौरान ऐसा देखा गया हैं की शिक्षकों की जिम्मेदारियों में तेजी से वृद्धि हुई है, जहां अब उन्हें बच्चों ही नहीं बल्कि उनके अभिभावकों की भी पढ़ाई सुनिश्चित करनी है तथा डिजिटल शिक्षा के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री या तो खुद बनानी या फिर ढूंढ़नी पड़ रही है.

इसके साथ ही, भारत के कई हिस्सों में शिक्षक को फ्रंटलाइन वर्कर्स के रूप में देखा जा रहा है जहां शैक्षिक जिम्मेदारियों के अलावा उन्हें कोविड से संबंधित कार्यों में लगाया जा रहा है.

सबसे बड़ा बदलाव जो महामारी में शिक्षा पद्धति पर हुआ है वह है- डिजिटल शिक्षा. बच्चों के छोटे होने की वजह से और उनकी ध्यान की अवधि काम होने के कारण, ऑनलाइन शिक्षा छोटे बच्चे के लिए पूरी तरह से उपयुक्त नहीं है.

अभिभावकों का भी मानना है कि ऑनलाइन पढ़ाई और फोन के ज्यादा इस्तेमाल से बच्चों की आंखों एवं स्वास्थ्य पर भी असर पड़ रहा है. शिक्षकों की मानें तो ऑनलाइन क्लासेज में बच्चों के शारीरिक गतिविधियां, खेलकूद तथा बाकी बच्चों के साथ सामाजिकता बढ़ाने के अवसर पूरी तरह गुम है. इसके साथ ही ज़ूम और गूगल मीट पर ऑनलाइन क्लासेज लेना, इंटरनेट कनेक्शन की उपलब्धि शिक्षकों के लिए स्वयं एक चिंता का विषय है.

इस प्रकार, भारत में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को मजबूत करने के लिए अभिभावकों और शिक्षकों को सामर्थ्य और सशक्त बनाना अनिवार्य है और ऑनलाइन शिक्षा को समावेशी और सुलभ बनाने की जरूरत है.


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सुझाव तथा निष्कर्ष

प्रारंभिक वर्षों में विकास और सीखने की कमी से हुई क्षति अपरिवर्तनीय है और एक बच्चे के भविष्य की शिक्षा को काफी प्रभावित कर सकती है. इस महत्व को देखते हुए सबसे पहला कदम है माता-पिता तथा शिक्षकों को सशक्त बनाना और उनकी जरूरतों पर विशेष ध्यान देना. यह सुनिश्चित करने के लिए कुछ सुझाव इस प्रकार है:

अभिभावकों का सशक्तिकरण: यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की अभिभावकों की भागीदारी, स्कूलों के खुलने के बाद भी जारी रहे. ऐसे में ईसीई के महत्व को अभिभावकों को समझाना और उन्हें अपने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा में सक्रिय रुचि के लिए प्रेरित करना जरूरी है. वो माता-पिता जिनके परिवारों में आर्थिक बाधाएं हैं, उनकी सरकार और स्कूल द्वारा मदद किया जाना महत्त्वपूर्ण हैं. मौजूदा स्कीम जैसे मिड डे मील प्रोग्राम ऐसी स्थिति में बहुत लाभकारी है और ये जरूरी है की बच्चों की स्वास्थ्य और पोषण की जरूरतों को भी प्राथमिकता दी जाए.

शिक्षकों का सशक्तिकरण: यहां ​​जरूरत है एक स्पष्ट विभाजन की जो स्कूल और टीचर दोनों के बीच में भूमिकाओं और जिम्मेदारी को बांटे. उदाहरण के लिए, राशन वितरण और सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करने के काम में शिक्षकों का सहयोग लेना ठीक है पर उनकी मुख्य जिम्मेदारी बच्चों की पढ़ाई से ही जुड़ी होनी चाहिए. इसके साथ की बदलती शिक्षा की पद्धति और डिजिटल शिक्षा के बढ़ते ट्रेंड को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों का समय बाध्य प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिए .

समावेशी और सुलभ तकनीकी: शिक्षा में तकनीकी का उपयोग एक स्वागत योग्य कदम है, विशेष रूप से क्योंकि यह शिक्षा में नवीनीकरण लाता है पर साथ में ये भी ध्यान रखना जरूरी है कि भारत में पहले से ही एक चिंताजनक ‘डिजिटल डिवाइड ‘ मौजूद है जिसका सबसे ज्यादा असर वंचित और गरीब समुदायों पर पड़ता है.

ये ध्यान रखा जाना जरूरी है कि जो भी तकनीकी उपयोग में हो वो कम-तकनीक और कम-लागत वाली हो. उदाहरण के लिए, अभिभावकों और शिक्षकों के बीच व्हाट्सएप ज्यादा प्रसिद्ध है, ज़ूम और गूगल मीट की तुलना में. उसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि शिक्षा सामग्री प्रासंगिक रूप से उपयुक्त है और समझने में आसान है और क्षेत्रीय भाषा में हो.

(लेखक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में रिसर्च फेलो के रूप में कार्यरत हैं. इस संपादकीय के परिणाम और चर्चा, विधि द्वारा हाल में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट से लेकर लिखा गया है. लेखक इस अध्ययन में प्राथमिक शोधकर्ता थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)


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