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कोविड की वजह से या सामान्य ट्रेंड, आखिर क्यों ज्यादा से ज्यादा बच्चे ले रहे हैं प्राइवेट ट्यूशन

फिलहाल 70% से अधिक छात्र सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं, और लगभग 40% छात्र प्राइवेट ट्यूशन (निजी शिक्षकों से पढ़ना) में भी भाग लेते हैं. विशेषज्ञ मानते हैं कि इस बात का अध्ययन किया जाना चाहिए की क्या ये रुझान महामारी से प्रेरित हैं या अधिक दीर्घकालिक रुख की और इशारा करते हैं.

दिल्ली के एक स्कूल में क्लास लेने के लिए पहुंची छात्राएं । प्रतीकात्मक तस्वीर । फोटोः एएनआई

नई दिल्लीः कोरोना महामारी के दौरान किए गए सबसे बड़े सर्वेक्षणों में से एक एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट   (एएसईआर- असर) 2021 इस बुधवार को जारी की गई. स्वयंसेवी संस्था प्रथम एजुकेशन की सहायता से प्रकाशित यह रिपोर्ट दो विरोधाभासी प्रवृत्तियों का खुलासा करती है: एक, भारत में सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन बढ़ गया है, और दो, अधिक संख्या में बच्चे अब निजी ट्यूशन ले रहे हैं.

इसका अर्थ यह है कि अभिभावक अपने बच्चों को अब निजी स्कूलों से निकालकर उन्हें सरकारी स्कूलों में दाखिल करवा रहे हैं और पैसे बचा रहे हैं. लेकिन साथ ही वे अब निजी ट्यूशन के लिए नई सिरे से फीस का भुगतान भी कर रहे हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, कक्षा, स्कूल के प्रकार या लिंग की गणना से परे ट्यूशन लेने वाले बच्चों का अनुपात 2018 से 2021 के बीच काफी बढ़ गया है. वर्तमान में, लगभग 40 प्रतिशत बच्चे सशुल्क निजी ट्यूशन वाली कक्षाएं लेते हैं. इस बीच, सरकारी स्कूलों में नामांकन भी पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ा है. साल 2021 में, 70 प्रतिशत से अधिक छात्रों ने सरकारी स्कूलों में दाखिला लिया, जो 2020 में 65.8 प्रतिशत और 2018 में 64.3 प्रतिशत था.

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि हमें यह अध्ययन करना चाहिए कि क्या ये कारक अस्थायी एवं महामारी से प्रेरित हैं या फिर अधिक स्थायी हैं.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एनआईईपीए-नीपा), नई दिल्ली में कार्यरत प्रोफेसर मनीषा प्रियम ने कहा कि इन दोनों तथ्यों को अलग-अलग कर के देखा जाना चाहिए और इन्हें आपस में जोड़ा नहीं जाना चाहिए.

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प्रियम कहती हैं, ‘इसमें एक तथ्य यह है कि सरकारी स्कूलों में छात्रों का नामांकन बढ़ा है, और यह इस वजह से है क्योंकि लोगों की आय के प्रति जोखिम बढ़ गया है. गरीब लोग अब और गरीब हो गए हैं तथा उनके पास अपने बच्चों को कम फीस वाले निजी स्कूलों में भेजने के लिए भी पैसे नहीं हैं. इसलिए, वे सरकारी स्कूलों पर निर्भर कर रहें हैं.’

वे आगे कहती हैं, ‘इससे यह भी पता चलता है कि सार्वजनिक शिक्षा का बुनियादी ढांचा अब एक भरोसेमंद इकाई के रूप में उभरा है. लॉकडाउन के दौरान सरकारी शिक्षक छात्रों तक पहुंचे और सामुदायिक रसोई भी चलाई गई. इससे पता चलता है कि सार्वजनिक व्यवस्था को चलाते रहने की जरूरत है और निजीकरण समय की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.’


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ऊंची कक्षाओं के लिए निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या अधिक

ट्यूशन लेने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि पर टिप्पणी करते हुए, प्रियम ने कहा कि इससे पता चलता है कि ऑनलाइन शिक्षा का मॉडल काम नहीं कर रहा है और छात्रों को अभी भी किसी-न-किसी रूप में शारीरिक उपस्थिति वाली कक्षाओं में भाग लेने की आवश्यकता है.

उनका कहना है, ‘हमें उस उम्र और स्तर को देखना होगा जिस पर अधिक संख्या में छात्र निजी ट्यूशन में भाग ले रहे हैं. ऊंची कक्षाओं में ऐसे छात्रों की संख्या अधिक है, जिसका अर्थ है कि यह बोर्ड परीक्षा की तैयारी में इन छात्रों के लिए एक सेतु के रूप में कार्य कर रहा है, जो अपने खोए हुए पढाई के समय की भरपाई करना चाहते हैं. निजी ट्यूशन में भाग लेने वाले ज्यादातर बच्चे स्कूल के बाद वाले परिवर्तनकाल की दहलीज पर हैं.’

इस रिपोर्ट से पता चलता है कि 2018 से 2021 के बीच निजी ट्यूशन में भाग लेने वाले छात्रों की संख्या में सभी स्तरों पर वृद्धि हुई है, परन्तु, कक्षा 11 और उससे ऊपर के छात्रों के बीच यह प्रतिशत सबसे अधिक है. इस रिपोर्ट के अनुसार इस आयु वर्ग के 41 प्रतिशत से अधिक बच्चे अब निजी ट्यूशन में भाग लेते हैं, जो 2020 में 33.6 प्रतिशत और 2018 में 35.5 प्रतिशत था.

अन्य आयु समूहों के लिए भी यह संख्या पहले से अधिक है – कक्षा 1 से 2 के लिए 37 प्रतिशत, कक्षा 3 से 5 के लिए 39.4 प्रतिशत और कक्षा 6 से 8 के लिए 38.9 प्रतिशत. ये सभी संख्याएं पिछले वर्षों की तुलना में अधिक हैं.

रुक्मणी बनर्जी, सीईओ, प्रथम एजुकेशन, ने कहा, ‘हम अपने सर्वेक्षण से जो निष्कर्ष निकाल सकते हैं वह यह है कि निजी ट्यूशन एक बहुत ही स्थानीय स्तर का और काफी लचीला मामला है. इसलिए, जो माता-पिता आर्थिक तंगी में है, वे भी अपने बच्चों को ट्यूशन भेजने में सक्षम हो पाते हैं. किसी निजी स्कूल के विपरीत यहां वे शिक्षण शुल्क और इसके भुगतान के समय के बारे में आसानी से बातचीत करने में सक्षम होते होंगे.’

उन्होंने यह भी पाया कि महामारी के दौरान ट्यूशन कक्षाओं तक पहुंचना आसान था, वे कहती हैं, ‘हमें थोड़ा इंतजार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या यह एक अस्थायी परिघटना (फेनोमेना) है जो महामारी के कारण उत्पन्न हुई है या फिर यह ग्रामीण भारत के शिक्षा परिदृश्य में देखा है रहा एक अधिक स्थायी बदलाव है.’

राज्यों के अनुसार विशिष्ट रुझानों के बारे में बात करते हुए, बनर्जी ने कहा कि कुछ राज्य ऐसे हैं जहां पारंपरिक रूप से अधिक छात्र निजी ट्यूशन में भाग लेते हैं, जैसे कि पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार. हालांकि, अब पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश सहित अन्य उत्तरी राज्यों, जहां ट्यूशन संस्कृति का चलन बहुत कम है, में भी इसमें वृद्धि हुई है.

वंचित परिवारों में दर्ज की गई सबसे ज्यादा वृद्धि

रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि ट्यूशन लेने वाले बच्चों के अनुपात में सर्वाधिक वृद्धि सबसे ज्यादा वंचित परिवारों में पाई गई है, जहां माता-पिता की शिक्षा का स्तर कम है. 2018 से 2021 के बीच, कम शिक्षित माता-पिता वाले ऐसे बच्चों के अनुपात में 12.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि अधिक शिक्षित माता-पिता वाले बच्चों के मामले में यह वृद्धि 7.2 प्रतिशत ही थी.

प्रमुख शिक्षाविद् और इंडिया लिटरेसी बोर्ड की उपाध्यक्ष सुनीता गांधी ने कहा कि निजी स्कूलों से सार्वजनिक स्कूलों में बदलाव की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि लोगों की वित्तीय स्थिति काफी खराब हो गई है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि , ‘इसका 15 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण प्रवासियों के अपने गांवों में वापस लौटने की वजह से है.’

ट्यूशन में शामिल होने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि पर चर्चा करते हुए गांधी ने कहा, ‘निश्चित रूप से हम यह कह सकते हैं कि बच्चों के अभिभावक स्कूलों में चल रही उनकी पढ़ाई से संतुष्ट नहीं थे. इसका एक कारण बच्चों का सरकारी स्कूलों में जाना भी हो सकता है. उन्हें लगता है कि ख़राब स्तर की शिक्षा सम्बन्धी धारणा की भरपाई करने के लिए, वे निजी ट्यूशन का खर्च उठाने में सक्षम होंगे. एक अन्य संभावित कारक कुछ निजी स्कूलों का बंद हो जाना है.‘

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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