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हरिद्वार ‘धर्म संसद’ दिखाती है कि मोदी को संघ परिवार से अंदरूनी खतरा झेलना पड़ रहा

‘धर्म संसद’ में मुसलमानों के खिलाफ हमला, मदर टेरेसा की संस्था के बहाने ईसाइयों से द्वेष जैसे नियोजित अपराधों पर मोदी की खामोशी के कारण उनके ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे पर से लोगों का भरोसा उठने लगा है.

पीएम नरेंद्र मोदी और आरएसएस चीफ मोहन भागवत | प्रतीकात्मक तस्वरी| ANI

यति नरसिंहानंद और दूसरों ने मिलकर हरिद्वार में जिस तरह की ‘धर्म संसद’ का आयोजन किया वह भारत में सामाजिक समरसता के लिए एक गंभीर खतरा है. यह नामुमकिन है कि इस तरह के सम्मेलन का आयोजन उत्तराखंड की भाजपा सरकार की अनुमति के बिना किया गया होगा. अब सवाल यह उठता है कि क्या इसका आयोजन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के आला नेताओं की मंजूरी या जानकारी के बिना किया गया? इसमें भाग लेने वाले वक्ताओं ने मुसलमानों की हत्या करने का जो खुला आह्वान किया वह सिर्फ अल्पसंख्यक समुदाय के अस्तित्व के लिए खतरे का मसला नहीं है. नाथुरम गोडसे का नाम बार-बार लिया जाना और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘निशाना’ बनाया जाना यही दर्शाता है कि वे नरेंद्र मोदी की सत्ता को किस तरह खुली चुनौती दे रहे हैं.

आयोजकों को मालूम है कि वे इस्लाम का इस धरती से सफाया नहीं कर सकते क्योंकि मुसलमान अकेले नहीं हैं. इस्लाम की दुनिया इतनी बड़ी है कि इस तरह की ताकतें उनका मुकाबला नहीं कर सकतीं, भले ही आरएसएस/भाजपा आज सत्ता में हो. ‘साधु समाज’ राष्ट्रीय मसलों में ज्यादा उलझने लगा है लेकिन जातीय रुझान की दृष्टि से देखें तो वह ब्राह्मणवादी है. अब तक यही स्थिति है कि शूद्र हालांकि खुद को हिंदू धर्म का हिस्सा मानते हैं लेकिन साधु बनने वाले शूद्रों की संख्या कम ही है. इतिहास यही बताता है कि उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी जाती थी.

मोदी स्व-घोषित ‘ओबीसी’ (अन्य पिछड़ी जाति) प्रधानमंत्री हैं, और 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उनके दूसरे कार्यकाल में ऐसा ही लग रहा है कि चीजें उनके काबू से बाहर हो गई हैं. आरएसएस उनकी सरकार के जरिए अपना एजेंडा लागू करने में जुट गया है. मोदी केवल अपने पहले कार्यकाल में ही ‘मजबूत प्रधानमंत्री’ वाली छवि के अनुरूप दिखे थे. दूसरे कार्यकाल में जब वे कुछ मामलों में अपनी उस छवि के अनुरूप काम करना चाहते हैं तो उन्हें प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है. संघ परिवार के भीतर उनके विरोधी जवाबी गतिविधियां चलाने लगते हैं.


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शूद्रों/ओबीसी से आरएसएस का परहेज

मुसलमानों से जुड़े जो मसले मोदी राज के पहले पांच साल में पूरी तरह किनारे करके रखे गए थे उन्हें अब आरएसएस के एजेंडा में शामिल कर लिया गया है. तब, दिल्ली दरबार के लिए नये होने के बावजूद ऐसा माना जाता था कि केंद्र सरकार के पूरे तंत्र पर मोदी की पूरी पकड़ है.

भाजपा ने 2014 के विपरीत 2019 का चुनाव पाकिस्तान तथा मुस्लिम विरोधी नारों के साथ लड़ा. दोबारा सरकार बनते ही अमित शाह ने आगे बढ़ने का खाका सामने रख दिया. और वे एक के बाद एक, कदम बढ़ाते गए— अनुच्छेद 370 को रद्द करना, तीन तलाक पर कानून बनाना, नागरिकता संशोधन एक्ट लाना, सरकारी संस्थाओं में मौजूद मुसलमानों को हाशिये पर धकेलना. इनमें से कुछ कदमों का शूद्रों/ओबीसी के एक तबके ने इसलिए समर्थन किया क्योंकि उसे इसमें फायदे की संभावना दिखी.

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वैसे, आरएसएस ने शूद्रों/दलितों/आदिवासियों को बार-बार हिंदू बताने के सिवा उनके लिए कोई एजेंडा नहीं तैयार किया है. लेकिन संघ के तंत्र में किसी शूद्र/ओबीसी को विचारक के रूप में उभरने नहीं दिया. शूद्रों/ओबीसी से जुड़े अधिकतर सामाजिक तथा राजनीतिक एजेंडे— चाहे वे आरक्षण के हों, या राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के, या शिक्षा के— संघ की व्यवस्था से बाहर ही तय किए गए. जब कांग्रेस या दूसरे दलों की सरकार थी तब शूद्रों/ओबीसी से जुड़ा एक भी ऐसा मसला नहीं था जिसके लिए आरएसएस ने राष्ट्रीय या प्रादेशिक स्तर पर संघर्ष किया हो.

आरएसएस के लिए यह हमेशा से एक चुनौती रही है. शूद्र/ओबीसी मुख्यतः किसानी करते रहे हैं और उन्होंने महसूस किया है कि नये कृषि कानूनों के जरिए उन पर पहला हमला किया गया है. यह सोचना मुश्किल है कि विशाल नेटवर्क वाले आरएसएस ने इसका पूर्वानुमान नहीं लगाया होगा. वे तो उन्हें ध्वस्त करना चाहते थे. लेकिन यह चल नहीं पाया.

प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने अगर यह नहीं कहा होता कि वे ‘सबका साथ, सबका विकास’ चाहते हैं, तो शूद्रों/ओबीसी ने उन पर कभी विश्वास न किया होता. आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत की भाषा पर सावधानी से गौर करें तो पता चलेगा कि उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि वे या उनका संगठन ‘सबका साथ, सबका विकास’ के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम करेगा. वास्तव में, 2014 के पूरे चुनाव अभियान के दौरान भागवत पूरी तरह खामोश रहे और अदृश्य रहे थे. ऐसा लग रहा था कि उस चुनावी परिदृश्य में आरएसएस कहीं है ही नहीं.

जैसे-जैसे इस बात की सार्वजनिक चर्चा ज़ोर पकड़ने लगी कि मोदी ओबीसी से हैं, भागवत राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने लगे और आरक्षण विरोधी तथा अल्पसंख्यक विरोधी अपने एजेंडे के बारे में विभिन्न मंचों पर बोलने लगे. आरक्षण पर विमर्श की उनकी मांग और मदर टेरेसा की संस्थाओं पर हमले इसके उदाहरण हैं. ऐसा लगता है कि 2014 के चुनाव में रणनीति यह थी कि ‘वोट और सत्ता हासिल करने के लिए मोदी जो भी चाहते हैं, उन्हें करने दो’. मोदी के दूसरे कार्यकाल में आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व का एक खेमा हरकत में आ गया.

ईसाइयों पर हमले

अब ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार की टीम के सबसे शक्तिशाली लोगों का भी पूरी व्यवस्था पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. हाल की घटनाएं भावी दिशा के संकेत दे रही हैं. दुनिया और खासकर पश्चिमी ईसाई जगत में अपनी छवि चमकाने के लिए मोदी जाकर पोप से मिलकर उन्हें भारत आने का न्यौता दे आए. जाहिर है, आरएसएस के कई नेताओं को यह पसंद नहीं आया, क्योंकि वे भारत के लिए पोप के ईसाई एजेंडा का विरोध कर रहे थे. लेकिन क्रिसमस से ठीक पहले ही भारत में कई जगहों पर चर्चों पर हमले शुरू हो गए.

गौरतलब बात यह है कि इन हमलों के लिए उकसाने वालों में ‘ऊंची’ जातियों के लोग थे. 16 दिसंबर को चित्रकूट में हिंदू महाकुंभ के दौरान भागवत ने ईसाइयों से ‘घर वापसी’ यानी वापस हिंदू बनने का आह्वान किया था.

पूरा देश जबकि इन हमलों को लेकर चिंतित था, गृह मंत्रालय ने मदर टेरसा की मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी की एफसीआरए नवीकरण की अर्जी खारिज करने का शर्मनाक फैसला ठीक क्रिसमस के दिन सुना दिया. इसे मदर के कामों के बारे में कुछ साल पहले भागवत के इस बयान के संदर्भ में देखा जा सकता है कि ‘मदर टेरेसा गरीबों की जो सेवा कर रही थीं उसके पीछे एक मकसद छिपा था— उन्हें ईसाई बनाने का.’

मोदी ने ईसाई धर्म के बारे में ऐसा बयान नहीं दिया. ज़्यादातर पश्चिमी देश ईसाई धर्म को मानते हैं, इसलिए पोप को न्यौता देकर मोदी ने अपनी छवि दुरुस्त करने की कोशिश की होगी, मगर संघ नेटवर्क ने जमीन पर अपना विरोध जताया. अब, मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारे पर कोई विश्वास नहीं करता.

हरिद्वार के अपराधियों के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं किया गया है. ऐसे नियोजित अपराधों पर मोदी खुद खामोशी ओढ़े रहते हैं. इससे उनकी सरकार को, खासकर किसान आंदोलन के बाद बड़ा झटका ही लगता है. ये सब कोई आकस्मिक बातें नहीं हैं. ऐसा लगता है कि संघ परिवार के भीतर कोई खिचड़ी पक रही है, जबकि देश हर मोर्चे पर मुश्किलों का सामना कर रहा है.

(कांचा इलैया शेफर्ड एक राजनीतिक विचारक, सामाजिक एक्टिविस्ट और लेखक हैं. उनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं—‘व्हाइ आइ ऐम नॉट अ हिंदू : अ शूद्र क्रिटिक ऑफ हिंदुत्व फ़िलॉसफ़ी, कल्चर, ऐंड पॉलिटिकल इकोनॉमी’, और ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया : अ डिस्कोर्स इन दलित-बहुजन सोशियो-स्पीरिचुअल ऐंड साइंटिफिक रिवोलुशन’. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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