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डेटा के सरकारी स्रोत गैर-भरोसेमंद होते जा रहे हैं, निजी स्रोत सोने की खान साबित हो रहे हैं

जनगणना से मिलने वाले मूलभूत सामाजिक-आर्थिक आंकड़ों की कमी से सांख्यिकीय व्यवस्था और नीति विश्लेषण कुप्रभावित होती है; ऐसे में सीएमआईई, प्रथम, क्रिसिल, स्काईमेट, जैसे दूसरे कई संगठनों ने प्रमुखता हासिल की है.

प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

क्या डाटा के बाजार का निजीकरण होता जा रहा है? अभी पूरी तरह तो ऐसा नहीं हुआ है मगर चीजें उसी दिशा में आगे बढ़ रही हैं. जरा इस पर गौर कीजिए— सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले रोजगार के आंकड़े सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) प्रस्तुत करता है, जो ऐसे सर्वेक्षणों के आधार पर होता है जिनका सेंपल साइज सरकार द्वारा इस्तेमाल सेंपल साइज जितना बड़ा होता है.

भारत में स्कूली शिक्षा की सही स्थिति के डाटा का शायद सबसे विश्वसनीय स्रोत ‘प्रथम’ है, जो एक नॉन- प्रॉफ़िट संगठन है. यह हर साल शिक्षा की स्थिति का सर्वे करता है, जिसका काफी इंतजार किया जाता है. जिन दूसरे आंकड़ों पर करीबी नजर रखी जाती है उनमें ‘आईएचएस मार्किट’ का पर्चेजिंग मैनेजर सूचकांक भी है, जो आर्थिक गति का विश्वसनीय जायजा देता है. विश्लेषण करने वाली फर्म ‘क्रिसिल’ कंपनियों की साख के बारे में स्रोत का काम करती है. तकनीकी मसलों पर डाटा के मामले में सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी, इनोवेशन, एंड इकोनॉमिक्स रिसर्च का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता. मौसम की भविष्यवाणी करने वाली स्काईमेट जैसी निजी कंपनी ने इधर कुछ वर्षों से सरकारी मौसम विभाग से बेहतर काम कर रही है. और जब विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि भारत में कोविड से हुई मौतों की वास्तविक संख्या इसके सरकारी आंकड़ों से 10 गुना ज्यादा है, तब कई लोगों को सरकारी आंकड़ों को लेकर हैरानी हो सकती है.

यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक भी, जो उत्कृष्ट डाटा का विश्वसनीय स्रोत है, कॉर्पोरेट सेक्टर के कामकाज के डाटा की तेजी और दायरे के मामले में पिछड़ रहा है. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है.

सीएमआईई, प्रथम, क्रिसिल, स्काईमेट, आईएचएस मार्किट, सीटीआईआर और इन जैसे दूसरे कई संगठन पिछले दो-तीन दशकों में बने और प्रमुखता हासिल की. ऐसा होना भी चाहिए था. विकासशील अर्थव्यवस्था में डाटा की नए और कई स्रोत बनते हैं, जिनमें डिजिटल स्रोत वाले भी शामिल हैं. सरकार अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संस्थाएं देशों की जो रैंकिंग जारी करती है उस पर सवाल उठा सकती है, मसलन हाल में जारी भूख सूचकांक. लेकिन सरकार के आंकड़ें खुद विवादों में घिर रहे हैं.

इसका परिणाम यह है कि सरकार द्वारा जारी कुछ ऐसे अहम आर्थिक आंकड़े के स्तर और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं, जिनके मामले में निजी स्तर पर कोई तुलनात्मक विकल्प उपलब्ध नहीं होता.

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देश के पास 2011-12 के बाद उपभोग के सर्वे का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है (2017-18 के आंकड़े दबा दिए गए थे). यही कहानी रोजगार के आंकड़ों की है. सरकार ने पुराने स्वीकृत आंकड़ों (क्योंकि वे दोषपूर्ण थे) को दबा दिया और उनके बदले प्रोविडेंट फंड के खातों के आंकड़े प्रस्तुत कर दिए. जीडीपी के आंकड़ों में तो बार-बार संशोधन किए जाते रहे हैं.

आंकड़े हासिल करने के जनगणना जैसे उपक्रम, जो 1881 से हर दशक पूरा होने पर किए जाते रहे हैं, 2021 में निर्धारित समय पर नहीं किया गया. इसके लिए कोविड को कारण बताया गया, लेकिन एक साल से ज्यादा हो गया जबकि चीन की तरह लॉकडाउन नहीं लगा है और लोग आज़ादी से घूम-फिर रहे हैं. लेकिन जनगणना अगले साल तक तो नहीं ही शुरू हो पाएगी. जनगणना से केवल आबादी के आंकड़े नहीं मिलते, बल्कि कई सामाजिक-आर्थिक आंकड़े भी मिलते हैं. जाहिर है, इस तरह के मूलभूत आंकड़ों की कमी से सांख्यिकीय व्यवस्था और नीति विश्लेषण कुप्रभावित होती है. हर बदलाव बुरा नहीं होता. सरकार द्वारा जारी किए जाने वाले आंकड़े त्वरित गति से सामनी आते रहे हैं, जैसे जीडीपी के आंकड़ें (जो पहले अस्तित्व में नहीं थे). कुछ आंकड़ों के संग्रह के तरीके में सुधार हुआ है; कुछ आंकड़ें पहले के मुक़ाबले अब ज्यादा तेजी से सामने आ रहे हैं, जैसे व्यापार के आंकड़े, और कुछ ज्यादा पारदर्शी हैं, जैसे टैक्स और वित्तीय आंकड़े.

फिर भी, आप वित्त मंत्रालय की किसी वेबसाइट पर देख सकते हैं कि जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं वे कितने पुराने हैं और कमजोर हैं. और उन्हें असुविधाजनक तथ्यों को छिपाने के लिए किस तरह पेश किया गया है. बाकी तमाम चीजों की तरह आंकड़ों का भी राजनीतिकरण हो गया है.

डिजिटाईजेशन से भारी फर्क पड़ा है. इसने अर्थव्यवस्था के डाटा विहीन अंधेरे कोनों पर नयी रोशनी डाली है. एक उदाहरण यह है कि कंपनियों और व्यक्तियों के क्रेडिट रेकॉर्ड की सूचनाएं जुटाने वाले क्रेडिट ब्यूरो तमाम तरह कर्जदाताओं की मदद करते हैं. इसी तरह, ऑनलाइन बिक्री और भुगतान की व्यवस्था ने उपभोक्ताओं के आचरण के बारे में डाटा हासिल करने के नये स्रोत बनाए हैं.

जिस अर्थव्यवस्था ने एक दशक के अंदर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य रखा है वह ऐसे डाटा के बिना न तो योजना बना सकती है और न काम कर सकती है जो तेजी, निरंतरता, विश्वसनीयता, और पूर्णता की कसौटी पर खरे न उतरते हों. इसलिए डाटा के निजी स्रोतों का विकास काफी सकारात्मक घटना है. यह सरकार के लिए एक चुनौती पेश कर सकता है कि वह समय पर और विश्वसनीय आंकड़े पेश करने का अपना रिकॉर्ड सुधारे.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष व्यवस्था द्वारा, व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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