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हड़बड़ी में लाया जा रहा ‘गंगा एक्ट’ रेगिस्तान में जहाज़ चलाने की कोशिश है

हल्दिया से रवाना जहाज़ बनारस पहुंचने तक चार बार रुका, क्योंकि गंगा में पानी कम था. आनन-फानन में पानी भरकर माहौल बनाया गया लेकिन असल सवाल है कि गंगा में पानी कैसे आएगा.

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तमाम राजनीतिक माहौल के बीच यह सवाल बना हुआ है कि गंगा में पानी कैसे आएगा? प्रयागराज संगम तट की तस्वीर. (फोटो: कृष्णकांत)

मोदी सरकार चुनावी माहौल में गंगा एक्ट लाने की तैयारी में जुटी है. पर इसके पहले गंगा को साफ होती दिखाना उसकी ज़रूरत है. पर सवाल ये है कि वाटरवेज़ (जलमार्ग) हो या सौंदर्यीकरण, गंगा पर जारी विकास का सीटूसी यानी कास्ट टू कंट्री क्या है?

पिछले महीने की बात है. हल्दिया से एक जहाज़ रवाना किया गया. कई कंटेनरों से लदा यह जहाज़ फरक्का आकर रुक गया क्योंकि गंगा में पानी कम था. आनन-फानन में गंगा और हुगली को जोड़ने वाली फीडर कैनाल के गेट बंद किए गए और उसमें पानी भरा गया. पूरे दिन की कसरत के बाद नहर के रास्ते जहाज़ को गंगा की मुख्य धारा तक लाया गया.

कुछ दिन की यात्रा के बाद पटना के पास जहाज़ फिर रेत में धंस गया. उसके आगे चल रही ड्रेजिंग मशीन ने रेत हटाकर रास्ता साफ किया और जहाज़ फिर आगे बढ़ा. गाजीपुर तक आते-आते वह दो बार और चलने में असमर्थ हुआ लेकिन जैसे-तैसे उसे आगे बढ़ाया गया. उसे आगे बढ़ाना ही था. आखिर बनारस में उम्मीदें इंतज़ार कर रहीं थीं.

12 नवंबर को रवींद्रनाथ टैगोर नामक इस जहाज़ का इस्तकबाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया. और इसके साथ ही इनलैंड वाटरवेज़ अथॉरिटी आफ इंडिया ने देश का पहला वाटरवेज़ शुरू कर दिया. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस वाटरवेज़ के रास्ते 4 मल्टी मॉडल टर्मिनल बनाए गए हैं. और 45 मीटर चौड़ा चैनल तैयार किया गया है. लेकिन इस पहले जहाज़ का सफर बताता है कि कोई चैनल तैयार नहीं है, सच तो यह है कि लगातार गाद पैदा करने वाली गंगा में कोई स्थायी चैनल तैयार किया ही नहीं जा सकता.

साथ ही एकमात्र वाराणसी वाला टर्मिनल आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू किया गया है. हल्दिया में टर्मिनल यानी बंदरगाह कई दशकों से काम कर रहा है. बाकी दो जगह साहिबगंज और गाजीपुर के टर्मिनल अभी दूर की कौड़ी हैं और उन्हें तैयार होने में समय लगेगा. यही कारण है कि पर्यावरण प्रेमी मीडिया ने साहिबगंज और गाजीपुर टर्मिनल की तस्वीरें देश को नहीं दिखाईं.

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पर्यावरणविद् जीडी अग्रवाल की शहादत के बाद यह तय हो गया कि गंगा के मुद्दे को टाला नहीं जा सकता. अब सरकार एक गंगा एक्ट लाने की तैयारी कर रही है. इस एक्ट को लाने के पहले ज़रूरी है कि देश में माहौल तैयार किया जाए. ताकि हर सरकारी कोशिश में गंगा साफ होती नज़र आए.


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पिछले दिनों टर्मिनल उद्घाटन सहित ताबड़तोड़ कई कदम उठाए गए ताकि गंगा पर जीडी अग्रवाल की चार मुख्य मांगों से ध्यान हटाया जा सके. सबसे पहले केंद्र ने 17 नदी बेसिन अथॉरिटी बनाने की घोषणा की. यह अथॉरिटी राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे पर मध्यस्थता करेगी. कुल मिलाकर यह जल के बंटवारे की व्यवस्था है यानी नदी के सर्वोच्च दोहन की. बेसिन अथॉरिटी कहीं भी नदी के जल में नदी के हिस्से की बात नहीं करती.

इस कानून को यूं पेश किया जा रहा है मानो यह नदी स्वच्छता की दिशा में उठाया गया सबसे बड़ा कदम है. बानगी देखिए कावेरी मुद्दा वर्षों पुराना है जो यह साबित करता है कि पानी को लेकर फैला सामाजिक तनाव सुप्रीम कोर्ट और सरकारों के हस्तक्षेप से नहीं दूर हो सकता. अब कावेरी बेसिन अथॉरिटी या कोई भी दूसरी अथॉरिटी किस हद तक इस विवाद को दूर कर पाएगी जबकि सरकारों के लिए यह सामाजिक नहीं, विशुद्ध राजनीतिक मुद्दा है.

दूसरा कदम रोचक है. नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) ने विदेशों में मौजूद भारतीय दूतावासों को कहा है कि वे अपने यहां स्थानीय धर्मार्थ कोष का गठन करें ताकि इसमें दान करने वाले अप्रवासी भारतीयों को अंशदान में आयकर छूट मिल सके. एनएमसीजी की कोशिश है कि स्वच्छ गंगा कोष में अप्रवासी भारतीयों का अंशदान बढ़े. यह कोष जनता द्वारा गंगा सफाई के लिए दिए गए धन से बना है. अभी इस कोष में 266 करोड़ रुपए जमा है. एक सच यह भी है कि इस कोष में से पिछले चार साल में एक भी रुपया खर्च नहीं किया गया. वास्तव में गंगा सफाई के लिए धन मुद्दा है ही नहीं. कभी भी नहीं था.

गंगा सफाई के लिए मुद्दा है नीयत और इच्छाशक्ति. नमामि गंगे के लिए 20 हज़ार करोड़ का बजट रखा गया है. इसमें अब तक सरकार ने 5523 करोड़ रुपए जारी किए है और गंगा मंत्रालय ने मात्र 3867 करोड़ की राशि खर्च की है. गंगा पहले से ज़्यादा मैली है, बजट का बीस फीसद हिस्सा भी खर्च नहीं हो पाया और एनएमसीजी चाहती है कि विदेशों में बसे भारतीय गंगा सफाई के लिए पैसा दें. वास्तव में सरकार को पैसे की ज़रूरत नहीं है. वह चाहती है माहौल बना रहे ताकि जब गंगा एक्ट आए तो उसकी खामियों पर बात न हो.

सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी कर न्यूनतम पर्यावरणीय बहाव तय किया. जिसमें कहा गया बांधों से कम से कम 25 फीसद जल बहाव सुनिश्चित किया जाएगा. लेकिन यह नियम प्रस्तावित बांधों के लिए है वर्तमान बांधों को इसके लिए तीन साल का समय दिया गया है. जबकि बांधों को निर्धारित मात्रा में गेट खोलने के लिए एक दिन में ही तैयार किया जा सकता है.

इसके अलावा जिन प्रस्तावित बांधों को यह नियम मानने के लिए कहा गया है उनके नक्शे में बदलाव की कोई बात नहीं है. पर्यावरणीय बहाव को किस आधार पर तय किया गया है इस पर भी चुप्पी है. बिना पर्याप्त बहाव के काशी की गंगा नेचर, कल्चर और एडवेंचर का संगम बनेगी. प्रधानमंत्री के इस दावे में आस्था और पर्यावरण दोनों का अभाव साफ नज़र आता है.


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गंगा के पर्यावरणीय प्रभाव को तय करने का काम जिस आईआईटी कंसोर्डियम को सौंपा गया था उसके प्रमुख थे आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर विनोद तारे. प्रोफेसर जीडी अग्रवाल की शहादत से उभरे सवालों को टालने या मैनेज करने के लिए प्रोफेसर तारे सरकार का सबसे बड़ा हथियार बनकर उभरे हैं. अग्रवाल की मौत के बाद से तारे लगातार दिल्ली में डेरा जमाए हुए हैं और टीवी चैनलों सहित हर संभव मंच से यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि जीडी अग्रवाल की अस्सी फीसद मांगें उनकी सिफारिशों यानी गंगा विज़न डाक्युमेंट में शामिल हैं. वे गंगा पर सरकारी कोशिशों की लगातार तारीफ कर जीडी अग्रवाल को अप्रासंगिक साबित करनें में जुटे हैं.

बेहद शातिराना तरीके से अपनी सिफारिशों पर बात करते हुए वे ये नहीं बताते कि केंद्र ने अब तक उनकी एक भी सिफारिश नहीं मानी है, मानना तो दूर उनकी सिफारिशों को सार्वजनिक भी नहीं किया गया है. तारे ने सरकार के 23 फीसद न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह नोटिफिकेशन की ‘एक अच्छी शुरुआत’ कहते हुए तारीफ की. जबकि उनकी समिति ने ही इसे 49 फीसद तय किया था.

मल्टी टर्मिनल से लेकर तारे तक, माहौल यही बनाया जा रहा है कि गंगा के राजनीतिक पुत्र उसके लिए चिंतित हैं. लेकिन मूल सवाल अपनी जगह मौजूद है कि गंगा को पानी कैसे मिलेगा? वह बिना रुकावट बह सकती है या नही? और अहम बात गंगा पर जारी विकास का सीटूसी यानी कास्ट टू कंट्री क्या है?

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)

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