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यूक्रेन में रूस की हार के चार मायने- एक का भारत पर सबसे अधिक असर

भारतीय विदेश नीति के लिए कमज़ोर रूस के मिले-जुले मायने हैं: वो बीजिंग के प्रति अधिक आभारी हो सकता है, लेकिन इंडो-पैसिफिक में चीन को उसका समर्थन कोई ख़ास मायने नहीं रखेगा.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ रूस के राष्ट्रपति (फोटो क्रेडिट - रायटर्स)

यूक्रेन में रूस को लगे झटकों ने सभी को हैरान कर दिया है, जिनमें बहुत संभावना है कि राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन भी शामिल हैं. निश्चित रूप से उन्होंने सोचा नहीं होगा कि उनके हमले का ये अंजाम भी हो सकता है, जिसमें रूसी फौजें अब खारकीव क्षेत्र से पीछे हटने लगी हैं. ये सोचना बहुत मुश्किल है कि रूस जैसी ताक़त पूरी तरह से लड़ाई हार जाएगी, लेकिन इसकी संभावना ज़रूर पैदा हो गई है. इसी से कुछ विचार और निहितार्थ निकलते हैं.

परंपरागत युद्ध, अपरंपरागत परिणाम

पहली बात, अगर रूस हार जाता है- या तो पूरे यूक्रेनी इलाक़ों से निकाले जाने से, या फिर किसी शांति समझौते के ज़रिए जो यूक्रेन के पक्ष में हो- तो ये अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक दुर्लभ परिणाम पेश करेगा. महाशक्तियों ने बार-बार अपने से कमज़ोर विरोधियों से जंग हारी है, लेकिन ऐसा आमतौर पर गुरिल्ला लड़ाइयों में हुआ है. ऐसी लड़ाइयों में अनियमित बल अपने से कहीं ज़्यादा ताक़तवर पारंपरिक बलों को निराश और विफल करने के लिए, हिट एंड रन की रणनीति अपनाते हैं, जिससे उन्हें तैनात करने वाली बड़ी ताक़तें थक कर हार जाती हैं.

लेकिन ऐसा विरले ही हुआ है कि अपेक्षाकृत छोटे और कमज़ोर देशों ने, किसी पारंपरिक युद्ध में बड़ी शक्तियों को हराया हो. जब वो ऐसा करते हैं- जैसा कि छह दिन के युद्ध में हुआ जब इज़राइल ने संयुक्त अरब बलों को परास्त कर दिया- तो उनके कारनामे दास्तान बन जाते हैं. ये एक कारण है जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ताक़त को सैन्य उपकरणों तथा कर्मियों, और उनके पीछे की दौलत के संकेतकों से नापा जाता है. हालांकि ऐसे संकेतक हमेशा ही, ख़ासकर अंतर्राष्ट्रीय सियासत के रोज़मर्रा के व्यवसाय में, परिणामों की भविष्यवाणी करने में उपयोगी साबित नहीं होते, लेकिन उनसे अपेक्षा रहती है कि हम कम से कम कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हथियारों के सीधे टेस्ट में क्या हो सकता है. और वो ये काम करते भी हैं- गुरिल्ला युद्ध के अपवाद को छोड़कर- और यही एक कारण है कि उनकी सीमाओं के बावजूद, ताक़त के इन मापकों का इस्तेमाल किया जाता है.

यक़ीनन, यूक्रेन को अमेरिका और यूरोप से भारी मात्रा में हथियार मिले हैं. उनके बिना यूक्रेन को मिलने वाली जीत मुमकिन नहीं थी. लेकिन ये भी है कि यूक्रेन का दृढ़ निश्चय, उसका कौशल और बलिदान उसकी शानदार कामयाबी के लिए ज़रूरी था, जिसे रूस की अक्षमता से भी मदद मिली. यहां पश्चिमी हथियार ही एकमात्र परिवर्तनशील चीज़ नहीं है. इसलिए, अगर यूक्रेन को जीत मिल जाती है, तो भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ये एक असामान्य परिणाम बना रहेगा.


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ताक़तवर रूस थोड़ा कमज़ोर पड़ा

दूसरे, रूस की हार कैसी भी हो या किसी हद तक हो, एक बात तय है: मॉस्को के लिए वो संभवत: एक अस्थाई झटका होगा. रूस यूक्रेन में मिली हार से उबर सकता है. भरपूर प्राकृतिक संसाधनों और आबादी वाला विशाल देश, महाशक्ति बनने का एक स्वाभाविक उम्मीदवार है, बशर्ते कि उसके पास ऐसा नेतृत्व हो जो इस क्षमता को वास्तविकता में बदल सके. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ये एक और निरंतरता है: संभावित शक्ति वास्तविक शक्ति नहीं होती.

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मसलन, भारत के पास क्षमता है लेकिन आज़ादी के समय से ही, भारतीय नेता इसे वास्तविक शक्ति में तब्दील नहीं कर पाए हैं. एक संभावित महाशक्ति के तौर पर ब्राज़ील का इतिहास और भी लंबा रहा है, जिससे संकेत मिलता है कि क्षमता को शक्ति में तब्दील करना कोई आसान काम नहीं है. रूस लंबे समय तक एक संभावित शक्ति बने रह सकता है, और चीन के स्पष्ट अपवाद को छोड़कर दूसरे ब्रिक्स साझीदारों के साथ शामिल हो सकता है. भारतीय विदेश नीति के लिए कमज़ोर रूस के मिले-जुले मायने हैं: ये बीजिंग के प्रति अधिक आभारी हो सकता है, लेकिन इंडो-पैसिफिक में चीन को इसका समर्थन कोई ख़ास मायने नहीं रखेगा.

शक्ति संतुलन ने घरेलू विचारधारा को पछाड़ा

एक तीसरा निहितार्थ अमेरिका के ‘उदार नेतृत्व’ के बारे में, लंबे समय से चली आ रही बहस से जुड़ा है, जिसमें बहुत से अमेरिकी ‘यथार्थवादी’ आक्रामक विदेश नीति को लेकर अमेरिका की निंदा करते रहे हैं. वॉशिंगटन की अपने स्वार्थ की विस्तारवादी वैश्विक परिभाषा, और उदार मूल्यों के इसके वैचारिक प्रचार के बारे में वो ग़लत नहीं हैं. चकराने वाली बात ये है कि वो इससे उलझे हुए हैं: यथार्थवादियों को पता होना चाहिए कि बड़ी ताक़तें हावी होना चाहती हैं, और आधिपत्य के पहियों को चलाने के लिए वो अपनी विचारधारा का प्रचार करती हैं.

उतनी ही चकराने वाली बात ये है कि उन्हें उदारवाद विशेष रूप से आक्रामक लगता है. उदार लोकतंत्र भी आक्रामक व्यवहार से बचे हुए नहीं हैं, लेकिन आक्रामकता भी उदार लोकतंत्रों तक सीमित नहीं है. जैसा कि रूस का व्यवहार दिखाता है, जो देश ज़्यादा शक्तिशाली होते हैं वो दूसरों पर हावी होना चाहते हैं, ख़ासकर अपने पड़ोस में. समस्या शक्ति असंतुलन है घरेलू शासन की विचारधारा नहीं. एशिया के लिए निहितार्थ स्पष्ट होने चाहिए.

आक्रामकता से आक्रामकता पैदा होती है, पुतिन ग़लत समझ बैठे

ध्यान में रखने वाली चौथी बात ये है कि आक्रामक व्यवहार से जिन्हें ख़तरा महसूस होता है, उनकी भी प्रतिक्रिया होती है और ज़्यादा संभावना है कि वो भी आक्रामक ही होती है. दूसरी शक्तियों को व्यवहार के औचित्य या इंसाफ की नहीं, बल्कि सिर्फ नतीजों की चिंता होगी. वो दूसरी शक्तियों द्वारा अपनी शक्ति बढ़ाने का विरोध करेंगी, जब तक कि वो वृद्धि खुद उनके लिए लाभकारी न हो. इसलिए यूक्रेन पर रूस के हमले और चीन की आक्रामकता पर, अमेरिका की प्रतिक्रिया को समझा जा सकता है. जब मॉस्को और बीजिंग अमेरिका का विरोध करने के लिए एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं, तो अमेरिका से ये अपेक्षा न करना मूर्खता ही होगी कि वो दोनों को जवाब देगा और दोनों का विरोध करेगा, ख़ासकर ऐसे में जब वो स्पष्ट तौर पर ग़लतियां करें, और अपनी स्थिति कमज़ोर कर लें जैसा पुतिन ने किया. पुतिन का आक्रमण मूर्खता थी लेकिन जो बाइडन भी उतने ही मूर्ख होते, अगर वो मौक़े का फायदा न उठाते. यूक्रेन की सहायता करने और रूस को कमज़ोर करने से मॉस्को ख़त्म नहीं हो जाएगा, लेकिन उतना घायल ज़रूर हो जाएगा कि अमेरिका चीन पर ज़्यादा तवज्जो दे पाएगा.

उसी तरह, सत्ता का तर्क कहता है कि रूस-चीन साझेदारी होनी लाज़िमी थी. शक्ति के समकालीन संतुलन की स्थिति में उनके पास साथ न आने के क्या कारण हो सकते थे? हां, पड़ोसी के नाते वो एक दूसरे के लिए ख़तरा ज़रूर हैं, लेकिन राज्य ख़तरों की प्राथमिकता तय करते हैं, और ज़्यादा बड़े और तत्काल ख़तरे के खिलाफ सहयोग करते हैं. बाद में जाकर ये बदल सकता है, लेकिन निकट भविष्य के लिए नई दिल्ली को मानकर चलना होगा कि ये एक मज़बूत साझेदारी होगी.

लेकिन भारत का दांव शायद ये है कि रूसी-चीनी सहयोग अमेरिका का मुक़ाबला करने तक सीमित रहेगा, और उससे भारत को नुक़सान नहीं होगा. तर्क या इतिहास ऐसी कोई राहत नहीं देता. तार्किक रूप से, अमेरिका का मुक़ाबला करना अधिक दबाव वाला कार्य होगा, जिसे मॉस्को भारत की सहायता करने के लिए नहीं छोड़ेगा. 1962 का भारत-चीन युद्ध याद कीजिए, जब मॉस्को ने क्यूबन मिसाइल संकट में चीनी समर्थन के लिए भारत को छोड़ दिया था. ये जवाहरलाल नेहरू की रणनीति थी जो मॉस्को के समझ में आने वाले स्वार्थी व्यवहार की नहीं, बल्कि रूसी समर्थन की अपेक्षा की ग़लती कर रहे थे.

हालांकि, युद्ध क्षेत्र के नतीजे वास्तव में हैरान करने वाले हैं, लेकिन कुल मिलाकर ये संकट अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के एक बुनियादी सिद्धांत को बल देता है. शक्ति का असंतुलन मायने रखता है, और देशों को उसका सम्मान करना चाहिए, वरना उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी होगी. ये अपेक्षा करना पुतिन की मूर्खता थी कि पश्चिम उनकी आक्रामकता का जवाब नहीं देगा. उनकी ग़लती का अब रूस को भारी ख़ामियाज़ा भुगतना होगा. जहां तक शक्ति संतुलन को समझने की बात है, उसके लिए अकेले पुतिन ज़िम्मेवार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक जवाहरलाल विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. वो @RRajagopalanJNU.पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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