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गीता को ‘धर्मशास्त्र’ कहकर खारिज करना मजाक, यह 19वीं सदी में मिशनरियों के पूर्वाग्रह का नतीजा है

इस मामले में मेरी अपील है कि कम से कम गीता के अध्याय 10 और 11 को साहित्यिक कृति की तरह पढ़ाया जाए.

भगवद गीता | Pexels / सीज़र ओलेक्सी द्वारा फोटो

भारत वाकई अजीबोगरीब देश है. देश का एलिट छात्रों को भगवतगीता पढ़ाए जाने के खिलाफ है. मुझे हैरानी है कि गीता कहां पढ़ाई जानी चाहिए, भारत में नहीं तो क्या जापान या पेरू में पढ़ाई जानी चाहिए?

मैं यह देखकर हैरान रह गया कि अंडरग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट छात्र भी गीता के बारे में सामान्य जानकारी से भी वंचित लगते हैं. यकीनन, मैं अमूमन ऐसे एमबीए छात्रों को पढ़ाता हूं जो अपनी मार-काट वाली प्रवृतियों से तो वाकिफ होते हैं, मगर आध्यात्मिक या साहित्यिक रुचियों से खाली होते हैं. लेकिन ऐसे समूहों से भी क्या यह पूछना कुछ ज्यादा है कि उन्हें अपने देश के शास्त्रीय ग्रंथों की मामूली-सी भी जानकारी है? मैं ऐसे बहुत-से अमेरिकी छात्रों से नहीं मिला हूं, जो द साल्म्स, द एक्सोडस, द सांग ऑफ सांग्स या सरमन ऑन द माउंट का जिक्र करने पर जिनकी आंखें एकदम खाली-सी दिखने लगें. वे शायद इन शास्त्रीय ग्रंथों के बारे में विस्तार से भले न जानते हों, मगर वे कम से कम इतना जरूर जानते हैं कि मैं क्या जिक्र कर रहा हूं. मुझे ऐसा अनुभव भारत के विश्वविद्यालयों या संस्थाओं में नहीं हुआ है.

कुछ साल पहले विश्वस्तरीय ब्रांड खड़ा करने की चुनौतियों जैसे बेहद नीरस और मामूली-से विषय पर चर्चा के दौरान मैंने मैनेजमेंट छात्रों के एक दल से जिक्र कर बैठा कि वे गीता के अध्याय 10 को पढ़ें और उससे प्रेरणा हासिल करें, तो मैं चकित और हैरान रह गया था. मैंने जानबूझकर विषय बदला. कई छात्रों से गीता के बारे में पूछा. ज्यादातर के पास मामूली जानकारी भी नहीं थी. कुछेक लड़कियां बमुश्किल ‘कर्मेण्वेय अधिकारस्ते’ कह पाईं. यही एक पद है जिसे हम ज्यादातर लोग जानते हैं. दूसरे छात्रों ने बस मान लिया कि मैं कोई प्राचीन डायनासोर हैं, जिससे कुछ बोलचाल करनी है.


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गीता धर्म ग्रंथ से कुछ ज्यादा

सच तो यह है कि गीता को महज धार्मिक ग्रंथ मानकर आंख मूंद लेना मजाक भर है. ऐसी मान्यता 19वीं सदी के ईसाई मिशनरियों की ‘हिंदू पवित्र पुस्तक’ की तलाश और दुविधाग्रस्त बुद्धिजीवियों से उपजी है जिन्हें लगा कि एक भी पवित्र पुस्तक न होना अपराध जैसा है. तो, आइए गीता को ऐसा बता दें! सच यह भी है कि वेदांतियों के लिए गीता तीन मूल धर्म ग्रंथों में एक है. लेकिन आप अगर टीकाकारों के काम देखें, तो आपको एहसास होता है कि वे सभी गीता की साहित्यिक खूबियों के कायल थे.

इस संदर्भ में मेरा निवेदन है कि गीता के कम से कम दसवें और ग्यारहवें अध्याय को साहित्य के रूप में पढ़ाया जाए. बेशक, अध्याय 10 मेरा पसंदीदा मैनेजमेंट संबंधी पाठ है. पर्वत शृंखला बनना चाहते हो, तो हिमालय बनो. नदी बनना चाहते हो, तो गंगा बनो. उपनिषदों में बृहदारण्यक बनो, (एक और नजरिए से देखें, क्या इसी वजह से टीएस एलियट इस उपनिषद को अपनी प्रसिद्ध कविता, द वेस्ट लैंड में खूब उद्धरण करते हैं?) और निश्चित रूप से, पांडवों में अर्जुन बनें!! यानी बात जोर देकर कही गई है: होड़ करनी है तो सर्वश्रेष्ठ से करने की ख्वाहिश रखिए, दूसरे या तीसरे नंबर से नहीं. यही ब्रांडों और कारोबार के लिए यकीनन सच है. फिर, मैंने छात्रों से कहा कि 20वीं सदी के प्रबंधन गुरु सी.के. प्रहलाद ने भी अपने लेखन में ऐसी ही बात की है. छात्र गंभीर हो उठते हैं. सी.के. को वेदव्यास या संजय की तरह खारिज नहीं किया जा सकता. मुझे एक बोनस मिल जाता है. जैसे ही मैं कहता हूं कि सी.के. में अच्छे दोस्त और दूर के रिश्तेदार थे, सभी छात्रों के दिल में मेरे लिए आदर का भाव आ जाता है.

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साहित्यिक महाकाव्य

काफी आख्यानों का विषयांतर हो गया, जो स्वांत: सुखाय और उबाऊ लग जा सकता है. आइए गीता पर लौटें. अगर मैनेजमेंट अध्ययन के मामले में इसमें दिलचस्पी नहीं है, तो क्या हम कई अध्यायों को विशुद्ध साहित्यिक कृति के नाते इसकी पढ़ाई की सिफारिश नहीं कर सकते?

पहले अध्याय पर ही नजर डालिए. धर्म-क्षेत्र, युद्धक्षेत्र का वर्णन और योद्धाओं के शंखनाद के विस्तृत संदर्भ-उच्च काव्यात्मक पद, यकीनन मेरे के लिए तो थॉमस मैलोरी और अल्फ्रेड लॉर्ड टेनीसन इसके आगे बेहद फीके लगते हैं. मैं मानता हूं कि अध्याय 15 कुछ अधिक आध्यात्मिक है. यह मेरे पिता का पसंदीदा था. मुझे आश्वत्थ वृक्ष से बार-बार सांत्वना मिली है लेकिन छोड़ो इसे. अध्याय 10 और 11 तो विशुद्ध विलक्षण साहित्यिक रचना है. यहां तक कि यहूदी ओपेनहाइमर ने भी उससे उद्धृत किया. क्या हमारे छात्र अद्भुत काव्य की उस भव्यता और महिमा से लाभान्वित नहीं होंगे?

बेशक,अगली आपत्ति यह होगी कि गीता एक ‘मृत’ भाषा में है. भाषा की मृत्यु की पुष्टि और किसी ने नहीं, बल्कि कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने की है. वह प्रामाणिक मृत्यु प्रमाण पत्र होना चाहिए, है न! तो मेरा एक सुझाव है या कहिए अंग्रेजी से वाकिफ तुलनात्मक साहित्य के छात्रों के इम्तिहान का एक सवाल है: ‘एडविन अर्नोल्ड, एनी बेसेंट और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के गीता के अंग्रेजी अनुवादों की तुलना और उनमें फर्क करें. ये अनुवाद आपको उनके समय, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और उनकी व्यक्तिगत पसंद के बारे में क्या बताते हैं? अगर कोई छात्र इस सवाल का बेहतरीन जवाब लिखता है, उसे अपने आप फर्स्ट क्लास मिल जाएगा. फिर, गीता की मृत भाषा से छुटकारा पाकर उसे समकालीन नजरिए से देखना कैसा है?

तमिल छात्र विशेष रूप से भाग्यशाली हैं. मेरा तमिल का ज्ञान सीमित है, फिर भी सुब्रह्मण्य भारती की तमिल भगवतगीता एक उत्कृष्ट कृति है. यह अपने आप में अनोखी कृति है. ठीक वैसे ही, जैसे यह इंग्लिस किंग जेम्स की बाइबिल है, जो हिब्रु, अरामाईक और ग्रीक मूल से सीधे संबंधित नहीं, बल्कि अपने आप में स्वतंत्र कृति है. हर तमिल छात्र सुब्रह्मण्य भारती की गीता पढ़कर लाभान्वित हो सकता है. उसकी गेयता, गंभीरता और भव्यता उसे हमेशा सहेजकर रखने की मांग करती है, जो आपको जिंदगी भर राह दिखाती रहेगी. वह तमिल छात्रा भाग्यशाली है, जो भले ही इसके साथ कंपनी के काम के लिए दुनिया खंगालती है लेकिन उसे हर वक्त याद रह सकता है कि संगम कवियों, तिरुनावुक्करासर, आंडाल, अरुणगिरिनाथर और रामलिंग वल्लालार के शब्द उसके साथ हैं. 20वीं सदी के महान कवि की सर्वोच्च रचना ने उसे भाषा की गरिमा, उत्कृष्ठता की याद दिलाती है. भारती की भाषा या कृति में कुछ भी ‘मृत’ नहीं है.

बेशक, यह अन्य भाषाओं के विद्वानों और छात्रों पर निर्भर है कि वे पहचानें कि हमारी अन्य भाषाओं में गीता के शानदार अनुवाद, पुनर्रचना और व्याख्याएं क्या हैं. सच्चाई यह है कि गीता हिमालय, गंगा, हिंद महासागर, दक्कन के पठार, बाघ और मोर की तरह ही हमारे भू-परिदृश्य का हिस्सा है. जैसा कि मैंने पहले कहा, इसे अन्य देशों में पढ़ाए जाने की संभावना नहीं है. लेकिन हमारे देश में इसे न पढ़ाने का मतलब यह होगा कि हमारी शिक्षा प्रणाली मजाक और हास्यास्पद है.

(अनुवाद: हरिमोहन मिश्रा | संपादन: कृष्ण मुरारी)

(जयतीर्थ राव सेवानिवृत्त बिजनेसपर्सन हैं. वह मुंबई में रहते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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