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चीनी खतरा यह इंतजार नहीं करेगा कि भारत बेहतर टेक्नोलॉजी हासिल करे, इसलिए सेना अपनी बुद्धि का प्रयोग करे

इस खतरे का जवाब सामरिक नीति है और टेक्नोलॉजी में श्रेष्ठता का मुक़ाबला बुद्धि की ताकत से किया जा सकता है इसलिए नए सीडीएस को काफी वैचारिक मंथन करना पड़ेगा.

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सेना प्रमुख एमएम नरवणे | मनीषा मोंडल, दिप्रिंट

यूक्रेन युद्ध में ध्वस्त टैंकों की तस्वीरों ने लड़ाई के मैदान में टैंकों के टिकाऊपन पर दुनियाभर में जारी बहस के लिए नया मसाला जुटा दिया है. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (सीओएएस) जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने मार्च 2020 में कहा था कि युद्ध का चरित्र जिस तरह बदल रहा है उसके मद्देनजर मुख्य युद्धक टैंक, और लड़ाकू विमान जैसे 20वीं सदी के साधन विदा लेने की राह पर हैं और भविष्य में युद्ध में विजय का मूल्यांकन आंकड़ों से नहीं बल्कि तकनीकी श्रेष्ठता से होगा.

दिसंबर 2020 में पहियों वाले बख्तरबंद लड़ाकू वाहन (एएफवी) को उन हथियारों/प्लेटफॉर्मों की सूची में शामिल कर दिया गया जिनके आयात पर रोक लगाई गई है. जून 2021 में, सेना ने 1700 ‘फ्यूचर रेडी कंबैट वेहिकल्स (एफआर सीवी) हासिल करने के लिए ‘रिक्वेस्ट फॉर इनफ़ोर्मेशन’ की मांग की. 2017 में इसकी ‘रिक्वेस्ट फॉर प्रोपोज़ल (आरएफपी) को रद्द कर दिया गया. अधिग्रहण की प्रक्रिया में आरएफआइ का चरण पूरा होने के बाद आरएफपी आता है. मार्च 2022 में नरेंद्र मोदी सरकार ने 2020 की ‘डिफेंस प्रोक्यूरमेंट प्रोसीजर’ (डीएपी) के मेक इन इंडिया श्रेणी के तहत हल्के टैंक का विकास करने की मंजूरी दी. इसे उत्तरी सीमा पर इस्तेमाल किया जाना है.

टैंकों को हासिल करने की अफरातफरी उत्तरी सीमा पर चीनी खतरे की आशंका के कारण है. लेकिन यह तकनीकी श्रेष्ठता हासिल करने के लिए जरूरी विविध क्षमताओं के विकास पर सीओएएस के ज़ोर देने के कारण की जा रही कार्रवाई की ओर भी इशारा करता है.

जो रूसी टी-72 और टी-90 टैंक पड़े हैं वे तकनीकी दृष्टि से देखें तो पुराने पड़ चुके हैं, खासकर गति, सुरक्षा और आक्रामकता के लिहाज से. वे 46 से 48 टन के हैं, जिससे उनकी गति प्रभावित होती है. एफआरसीवी के लिए जो चीजें जरूरी मानी गई हैं वे सुरक्षा और आक्रामकता की जरूरत में वृद्धि के रूप में परिलक्षित होती है. उम्मीद की जाती है कि अतिरिक्त क्षमताओं के कारण प्रतिद्वंद्वी के टैंकों, बख्तरबंद वाहनों, मानव रहित एरियल वाहनों (यूएवी) को मात दिया जा सकेगा और हेलीकोप्टरों को भी नाकाम या नष्ट किया जा सकेगा.

इसमें शक नहीं कि एफआरसीवी और हल्के टैंक 2020 वाले दशक के अंत तक बन पाएंगे. तब तक, चीन के साथ सैन्य मुठभेड़ में टेक्नोलॉजी के मामले में उससे कमजोर होने की चिंता बनी रहगी. इसका दायरा जमीन, हवा और समुद्र के युद्ध से संबंधित क्षमताओं तक फैला होगा. भारत को अपने मौजूदा टैंकों, और दूसरे बड़े प्लेटफॉर्मों से ही काम चलाना होगा. सवाल यह है कि तब तक क्या जाए, जबकि खासकर उत्तरी सीमा पर खतरा यह इंतजार नहीं करेगा कि आप भविष्य के टैंक और दूसरे प्लेटफॉर्म हासिल कर लें?

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इस सवाल का जवाब सामरिक नीति के उस दायरे में निहित है जो तकनीक के मामले में कमजोरी की भरपाई कर सकता है. इस नीति की मजबूती उस मानव क्षमता में निहित है, जो प्रतिद्वंद्वी की तकनीकी श्रेष्ठता को परास्त करने की दिमागी ताकत और मनोबल प्रदान करती है.


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उत्तर की ओर देखो

जरूरत इस बात की है कि काल के अनिश्चित अंतर को उस सामरिक नीति से भरा जाए, जो तैनात टैंकों और बख्तरबंद वाहनों की कमजोरियों का लाभ उठाता है. लद्दाख में, इलाका को सुरक्षा हासिल नहीं है और यही हाल लगभग पूरे उत्तर का है. खासकर चीन के अग्रिम मेकेनाइज्ड तत्वों के लिए सबसे बड़ी कमजोरी जमीनी और हवाई खतरों के मेल के रूप में है. बचाव करने वाले के लिए तात्कालिक रूप से जमीनी खतरा पैदल मोबाइल हमलावर अड्डों से पैदा किया जा सकता है जो इलाके का फायदा उठाते हैं और विशेष सेनाओं के साथ-साथ छोटे इन्फैन्ट्री आधारित ग्रुपों के कई घुमंतू दलों के द्वारा कार्रवाई करते हैं.

जहां कहीं भी संभव हो, सैनिकों के छोटे समूहों को वाहनों से भेजा जा सकता है. समय की कमी के मद्देनजर इसके लिए पहियों वाली एएफवी के आयात पर से रोक हटानी होगी, बशर्ते देसी क्षमता वृद्धि में देरी को स्वीकार नहीं किया जाता. इसके लिए संगठन में भी बदलाव करना होगा, जो कि हमेशा एक चुनौती होती है. सामरिक नीति में बदलाव से तकनीकी श्रेष्ठता का मुक़ाबला किया जा सकता है खासकर तब जब दिमागी ताकत, संगठन के लचीलेपन, और नेतृत्व के बूते ऑपरेशन चलाया जाए.

सामरिक नीति में ऐसा बदलाव बेशक एक उदाहरण है, और जमीन पर तैनात ‘दिमाग’ बेहतर विकल्प चुन सकते हैं. रणक्षेत्र में बड़ा भी छोटे के सामने कमजोर पड़ सकता है. मानवीय उद्यम और तकनीक भी छोटे की पक्ष में हो सकते हैं.


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संयुक्त विचारविमर्श के बिना नहीं

लेकिन सामरिक नीति में बदलाव का अर्थ है सेना और दूसरे बालों को साथ लेना. सामरिक नीति में बदलाव के लिए साझापन को मजबूत करना जरूरी है. बदलाव सेनाओं के बीच और हर सेना के अंदर विभिन्न स्तरों पर संवाद से ही उभरना चाहिए. साझापन के कारण ही वे सुधार हुए जिनके चलते चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का पद बना और दूसरे ढांचागत सुधार हुए जिनमें सैन्य मामलो का विभाग और स्थायी चेयरमैन चीफ़्स ऑफ स्टाफ कमिटी का पद बना. साझापन को मजबूती संयुक्त/एकीकृत कमांड्स के गठन से आई. ऐसे कमांड्स का गठन एक अहम सैन्य सुधार है.

दिसंबर 2021 में भारत के पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत की असमय मृत्यु उर उनकी जगह दूसरे सीडीएस नियुक्ति में देरी ने शुरू की गई कई पहल की गति को धीमा किया है. तकनीकी श्रेष्ठता साजो-सामान पर आधारित होती है. साजोसामान से लैस करने में बुनियादी मसला यह होता है कि समान हासिल करने के फैसले को अंतिम रूप लेने और सामान को तैनात किए जाने में अक्सर अनिश्चित समय लग जाता है. मौजूदा जो सामान है वह सभी स्तरों के फील्ड कमांडरों को योजना बनाने के आधार जुटा सकता है. उन्हें साथ मिलकर विचार करना चाहिए और तकनीकी श्रेष्ठता का मुक़ाबला करने के लिए निश्चित क्षेत्रों में सामरिक नीति बदलने पर भी विचार करना चाहिए.

यूक्रेन युद्ध ने टैंकों के भविष्य को लेकर जिस बहस को जन्म दे दिया है वह भारतीय सेना के लिए भी संदेश दे रहा है. युद्ध तो अंततः मानवीय कौशल से जीते जाते हैं, केवल तकनीकी श्रेष्ठता से नहीं. राजनीतिक नेतृत्व को सीडीएस की नियुक्ति में, जो कि उसकी पहल से ही एक बड़ा सुधार था, देरी की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, बशर्ते वह यह न मानता हो कि भारत की भू-राजनीतिक ऐसी है कि प्रतिरक्षा में सुधार तब तक टाला जा सकता है जब तक वरिष्ठता के बूते कोई उपयुक्त हस्ती सामने न उभरे. अगर ऐसा है, तो यह समझ से परे है क्योंकि मोदी सरकार वरिष्ठता को दरकिनार करने की ताकत रखती है. इस ताकत का इस्तेमाल करके जनरल रावत को ‘सीओएएस’ बनाया गया था. उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति देरी की कीमत का पता भविष्य में लग पाएगा.

अगर अफवाहों की कोई भूमिका है, तो माना जा सकता है कि सीडीएस की नियुक्ति के लिए इंतजार जल्द खत्म होने वाला है. खोए हुए समय को तो वापस नहीं लाया जा सकता लेकिन खोए हुए सोच को वापस लाया जा सकता है और साथ मिलकर सोचने से बात बन सकती है. शांति और युद्ध के समय में अपनी ऑपरेशन संबंधी योजनाओं को लागू करने में अगर कोई बदलाव करना है तो उसका फैसला करने के लिए हमें तुरंत उपयुक्त समाधान की जरूरत है. नये सीडीएस को काफी चिंतन करना पड़ेगा. वे जो भी हों, हम उनके लिए शुभकामनाएं सुरक्षित रखें.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन  बेंगलुरु स्थित तक्षशिला संस्थान के स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम के डायरेक्टर हैं. वह राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के सैन्य सलाहकार भी रहे हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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