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चीन का सीमा भूमि कानून भारत के लिए चेतावनी की घंटी है कि वह अपनी रणनीति सुधार ले

अपनी जमीन वापस जीतने की फौजी क्षमता भारत में भले न हो, मगर विकास की आड़ में चीन को टुकड़ों-टुकड़ों में हमारी जमीन हड़पने की छूट नहीं दी जानी चाहिए

पैंगोंग त्सो के पास खड़े किए गए अस्थायी ढांचे को तोड़ते हुए चीनी पीएलए के सैनिक | भारतीय सेना द्वारा जारी की गई तस्वीर

अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस की वार्षिक रिपोर्ट में हल्का जिक्र किया गया है कि अरुणाचल प्रदेश में चीन ने ‘2020 में किसी समय’ ‘100 घरों का असैनिक गांव’ बसाया है.  इस जिक्र ने इस मसले को एक साल बाद फिर चर्चा में ला दिया है. अमेरिकी रक्षा विभाग ने अमेरिकी कॉंग्रेस को जो रिपोर्ट सौंपी है वह ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ से जुड़े फौजी और सुरक्षा मामलों से संबंध रखती है. ‘उस समय’ और ‘आज’ जो चर्चा हो रही है उसमें ऐसे सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या वह गांव 1959 से चीनी कब्जे वाले भारतीय क्षेत्र में बनाया गया? क्या वह 2014 से सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार की नज़रों के सामने बसाया गया?

दरअसल, बड़ा मसला विवादित इलाकों के मामले में अपने सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रबंधन/विकास के जरिए अपनी संप्रभुता जताने की चीनी रणनीति से जुड़ा है और इस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है जितना देना चाहिए था. सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रबंधन/विकास की इस प्रक्रिया को 23 अक्तूबर 2021 को ‘लैंड बॉर्डर लॉ’ नामक सीमा भूमि कानून बनाकर औपचारिक रूप दे दिया गया है.


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‘लैंड बॉर्डर लॉ’

चीनी भाषा से अंग्रेजी में अनूदित इस ‘लैंड बॉर्डर लॉ’ नामक कानून का लक्ष्य यह बताया गया है कि इसका मकसद ‘सीमावर्ती जमीन की सुरक्षा और स्थिरता को मानक रूप देना और मजबूत करना’ और ‘राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा और भौगोलिक अखंडता को सुरक्षित करना’ है. यह कानून सीमावर्ती इलाकों के विकास और उनकी सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय अधिकारियों के बीच बेहतर तालमेल बनाने में भी मदद करेगा. यह कानून ‘सीमवर्ती जमीन के परिसीमन, सुरक्षा, प्रबंधन और विकास के मामलों’ पर भी लागू होता है.

ऊपरी तौर पर तो यह कानून सीमा के प्रबंधन और विकास के लिए है, लेकिन इसके अनुच्छेद 3 और 4 भारत और भूटान के लिए गंभीर समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि चीन के 14 पड़ोसी देशों में से केवल ये दो ही ऐसे हैं जिनके साथ उसके सीमा विवाद अभी तक सुलझे नहीं हैं. अनुच्छेद 3 के अनुसार ‘सीमा भूमि का ताल्लुक उन सीमा रेखाओं से है जो चीन और इसके पड़ोसी देशों के बीच जमीन और आंतरिक जल क्षेत्र का विभाजन करती हैं’. अनुच्छेद 4 कहता है— ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता पवित्र और अनुलंघनीय है’.

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चीनी नक्शे पूरे अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड के बाराहोटी मैदानी इलाके, और लद्दाख में 1959 वाली दावा रेखा तक के पूरे क्षेत्र को अपना बताते हैं. भारत के लिए इसका अर्थ यह है कि उसकी जो भी जमीन हथिया ली गई है, फ़ौजी कब्जे में है या आगे कब्जे में होने वाली है उसे चीन की संप्रभुता के अधीन और अनुलंघनीय माना जाएगा, और उसकी भौगोलिक अखंडता पवित्र मानी जाएगी इसके अलावा चीन अपने क्षेत्र की नदियों पर अपना पूर्ण अधिकार मानता है और उनकी धारा के साथ लगे देशों के हितों की कोई परवाह नहीं करता.

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारत की आशंकाओं को व्यक्त करते हुए कहा, ‘सीमा के प्रबंधन के मौजूदा द्विपक्षीय समझौतों और सीमा संबंधी विवादों को प्रभावित कर सकने का कानून बनाने का चीन का एकतरफा फैसला हमारे लिए चिंता का विषय है. इस तरह के एकतरफा कदम दोनों पक्षों द्वारा पहले ही किए जा चुके समझौतों पर कोई असर नहीं डाल सकते, चाहे वे समझौते सीमा विवाद से जुड़े हों या भारत-चीन सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर शांति बनाए रखने से संबंधित हों. इसके अलावा, हमारा मानना है कि चीन पाकिस्तान के 1963 के कथित सीमा समझौते को वैध ठहराने की कोशिश को भारत सरकार हमेशा से अवैध और अमान्य घोषित करती रही है.’

भारत की आपत्तियों के जवाब में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा कि ‘यह (‘लैंड बॉर्डर लॉ’) राष्ट्रीय सीमा भूमि के मामलों से संबंधित मौजूदा संधियों के चीन द्वारा अमल को प्रभावित नहीं करेगा. चीन के साथ जिन देशों की सीमा भूमि जुड़ी है उनके साथ चीन सीमा प्रबंधन और सहयोग के समझौते पर दस्तखत कर चुका है या उसके वर्तमान मॉडल में परिवर्तन कर चुका है. इस कानून के कारण सीमा संबंधी प्रासंगिक मसलों पर चीन की स्थिति और पेशकश में परिवर्तन नहीं आएगा.’

यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि मई 2020 के बाद से चीन ने 1959 वाली दावा रेखा तक कई बार अतिक्रमण करके और एलएसी पर अपनी सेना का जमावड़ा करके 1993, 1996, 2005, 2012, और 2013 में किए गए सीमा प्रबंधन समझौतों/ प्रोटोकॉल का मनमाना उल्लंघन किया है. इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह भविष्य में इनका सम्मान करेगा.

उपरोक्त कानून चीन की सीमा के पास चीनी अधिकारियों की इजाजत के बिना किसी तरह के स्थायी निर्माण को प्रतिबंधित करता है. गोलमोल शब्दों के प्रयोग से यह मतलब निकाला जा सकता है कि यह कानून सीमा के दोनों तरफ के क्षेत्र के लिए लागू होगा. इस तरह टकराव का एक और कारण पैदा कर दिया गया है, खासकर इसलिए भी कि भारत के बड़े क्षेत्रों को चीनी नक्शों में चीन का बताया गया है. चीन नये कानून के बहाने फौजी तथा कूटनीतिक दबाव बनाकर भारत को अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने से रोक सकता है. याद रहे कि पूर्वी लद्दाख में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के भारत की कोशिश ही चीनी फौजी कार्रवाइयों की मुख्य वजह रही.

वास्तव में, चीन की कार्रवाइयां अपने सीमावर्ती क्षेत्रों के इर्दगिर्द गांवों के सशक्तीकरण की उस नीति का हिस्सा हैं, जो 2017 से 4.6 अरब डॉलर के बजट के साथ लागू की जा रही थी. यह योजना 2020 में पूरी हुई. 624 मॉडल ‘श्याओकांग’ (समृद्ध) गांव तिब्बत में सीमाओं पर या उनके पास बसाए गए हैं. चीनी विद्वान क्लाउड आरपी के मुताबिक ऐसे गांवों की संख्या 965 है.

चीन का लक्ष्य स्पष्ट है— सीमाओं पर प्रभावी नियंत्रण और मजबूती के साथ आर्थिक विकास और पर्यटन को बढ़ावा. वफादार निवासियों वाले ‘श्याओकांग’ ‘सीमा सुरक्षा गांव’ सीमा पर ‘बफर’ का काम करते हैं. सीमावर्ती की सुरक्षा के इस सिद्धान्त के निर्माता हैं राष्ट्रपति शी जिनपिंग जिनका मानना है कि ‘सीमावर्ती क्षेत्रों का शासन देश के शासन, और तिब्बत की स्थिरता की कुंजी है.’

इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास और सीमाओं पर मॉडल गांवों/कस्बों का निर्माण विवादित इलाकों पर चीनी दावे को वैध बनाता है. कानून का 90 फीसदी हिस्सा कब्जा करने पर ज़ोर देता है.


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भारत के लिए सुधार करना जरूरी

चीन की सीमा पर जो भीषण घटनाएं घट रही हैं उनके बारे में खंडन, घालमेल और गोपनीयता बरतने की नीति मोदी सरकार को तुरंत त्याग देनी चाहिए. सबसे पहले तो उसे सभी अटकलों को खत्म करने के लिए संसद और जनता के सामने एक श्वेतपत्र पेश करना चाहिए जिसमें चिन्हित नक्शों और उपग्रह चित्रों के साथ उन भारतीय क्षेत्रों का विवरण हो जिन पर चीन ने कब्जा कर रखा है.

मोदी सरकार को भी चीन और पाकिस्तान के मामले में चीन की तरह सीमा भूमि कानून बनाना चाहिए. खबर आ रही है कि पाकिस्तान भी एलओसी के लिए चीनी मॉडल को अपनाने जा रहा है. संसद के प्रस्तावों को कानून नहीं माना जाता. चाहे भी लागत हो, भारत को भी चीन के साथ लगी अपनी सीमाओं के प्रबंधन और विकास के लिए चीनी मॉडल को या उससे बेहतर मॉडल को लागू करना चाहिए.

सीमा भूमि कानून एक बार फिर साबित करता है की भौगोलिक अखंडता की सबसे अच्छी सुरक्षा इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास, लोगों के बसाहट और पर्यटन के जरिए की जा सकती है. जरा कल्पना कीजिए कि भारत ने चीनी सीमा पर गांवों-कस्बों के विकास के लिए 2020-21 में 190 करोड़ रुपये (25 लाख डॉलर) का बजट रखा, जबकि चीन ने तिब्बत में 624 गांवों पर 2017 से 2020 तक हर साल 1.15 अरब डॉलर यानी कुल 4.6 अरब डॉलर खर्च किया. भारत के सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम को बजट और काम की गति के लिहाज से तुरंत और मजबूत करना चाहिए. सड़कों, रेलवे, पनबिजली परियोजनाओं और उद्योग जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए ऐसी ही कार्रवाई की जरूरत है.

सीमाओं को पर्यटन के लिए खोल देना चाहिए क्योंकि उन्हें छिपा कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, सिवा इसके कि इससे वहां के इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमजोरी उजागर हो जाएगी. इनर लाइन परमिट जैसे प्रतिबंधों को खत्म कर देना चाहिए. जरा देखिए कि लद्दाख में जिन कुछ इलाकों को पर्यटन के लिए खोला गया है उनका कितना विकास हुआ है.

फौजी दृष्टि से एलएसी तक भारतीय लोगों के आवागमन की व्यवस्था करने के लिए इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस की चौकियां बनाई जाएं और उन्हें विकसित फौजी अड्डों द्वारा संचालित इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स के रूप में रैपिड रेस्पोंस फोर्स की आकस्मिक व्यय प्रदान करने के तौर पर हो. सैन्य क्षमता में चीन से बराबरी करने के लिए जबरदस्त प्रयास करने की जरूरत है. देश को भरोसे में लीजिए और प्रतिरक्षा के नाम पर टैक्स लगाकर जरूरी पूंजी जुटाइए.

चीन का सीमा भूमि कानून भारत के लिए चेतावनी की घंटी है. मेरा मानना है कि मौजूदा संधियों/ समझौतों/ प्रोटोकॉल के बावजूद यह कानून चीन के लिए अपनी शर्तों पर सीमा विवादों के निबटारे की रणनीति का आधार बनेगा. आज हम सैन्य क्षमता में कमजोर भले हों और अपनी जमीन जीतकर वापस हासिल न कर पा रहे हों, मगर हम चीन को आर्थिक विकास की आड़ में अपनी जमीन पर टुकड़े-टुकड़े कब्जा करने की छूट नहीं दे सकते.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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