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उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलना क्या नरेंद्र मोदी के ‘महानायकत्व’ पर सवाल खड़े करता है

अपनी सरकार की चौथी वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में व्यस्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को भान भी नहीं रहा होगा कि उन्हें अचानक इस तरह दिल्ली बुलाया और इस्तीफे के लिए मजबूर कर दिया जायेगा.

उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और वर्तमान मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत । फोटोः फेसबुक/एएनआईउत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और वर्तमान मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत । फोटोः फेसबुक/एएनआई

यह सिर्फ संयोग नहीं कि जब देश का मुख्यधारा मीडिया कांग्रेस की अंदरूनी कलह के चटखारे लेने में व्यस्त था, खासकर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में इंडियन सेकुलर फ्रंट से गठबंधन के बाद ‘असंतुष्ट ग्रुप-23’ द्वारा अपनी विचारधारा से उसके कथित विचलन पर सवाल उठाये जाने के बाद, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक कलह ने उसके एक मुख्यमंत्री की ‘बलि’ ले ली.

अपनी सरकार की चौथी वर्षगांठ मनाने की तैयारियों में व्यस्त उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत को भान भी नहीं रहा होगा कि उन्हें अचानक इस तरह दिल्ली बुलाया और इस्तीफे के लिए मजबूर कर दिया जायेगा-इतना भी मौका दिये बगैर कि वे नौ दिन और अपनी कुर्सी पर बने रहकर वर्षगांठ का जश्न मनाकर सम्मानपूर्वक विदा हो सकें. यह कम से कम इस लिहाज से बहुत अजीब है कि कहा जा रहा है कि पार्टी ने उन्हीं के सुझाव पर पौड़ी गढ़वाल के सांसद तीरथ सिंह रावत को नया मुख्यमंत्री बनाया है.

फिलहाल, नरेन्द्र मोदी और अमित शाह (यहां जेपी नड़्डा की बात फिजूल है, जो सिर्फ नाम के अध्यक्ष होकर रह गये हैं) की कमान वाली भाजपा में इस तरह कार्यकाल के बीच हटाये जाने वाले त्रिवेन्द्र दूसरे मुख्यमंत्री हैं. इससे पहले 2014 में नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के क्रम में गुजरात का मुख्यमंत्री पद छोड़ा तो 22 मई, 2014 को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाई गई आनन्दी बेन पटेल को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद अपना कार्यकाल नहीं पूरा करने दिया गया था. सात अगस्त, 2016 को उन्हें न सिर्फ मुख्यमंत्री पद से हटाया बल्कि राज्यपाल बनाकर सक्रिय राजनीति तब से निर्वासित कर दिया गया था. लेकिन तब प्रधानमंत्री के मित्र मीडिया ने उसे पार्टी की कलह से जोड़ने के बजाय रणनीति से जोड़ दिया था, हां, प्रधानमंत्री का ‘मास्टरस्ट्रोक’ बताते हुए और बात आई-गई हो गई थी.


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पार्टी के विधायकों व नेताओं को थी शिकायत

लेकिन अब उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र को हटाया गया है तो पार्टी में धान कूटने और कांख ढकने जैसी कोशिशों का माहौल है. एक ही सांस में दो परस्परविरोधी बातें कही जा रही हैं. पहली यह कि पार्टी हाईकमान ने सिर्फ मुख्यमंत्री बदला है. सो भी इस आश्वस्ति के आलोक में कि सरकार पर किसी तरह का कोई संकट नहीं है. इसलिए इसमें कोई रहस्य ढूंढ़ना बेमतलब है. दूसरी यह कि पार्टी कें कई विधायकों व नेताओं को शिकायत थी कि त्रिवेन्द्र के राज में न अफसर उनकी बात सुनते थे, न वे खुद. इतना ही नहीं, कई विधायकों का साफ कहना था कि त्रिवेन्द्र मुख्यमंत्री बने रहे तो अगले बरस के विधानसभा चुनाव में पार्टी की सत्ता में वापसी कठिन होगी.

अब यह तो सर्वविदित ही है कि इस तरह की शिकायतें हाईकमान तक पहुंचीं, तो पार्टी ने डॉ. रमन सिंह और दुष्यंत कुमार गौतम को पर्यवेक्षक बनाकर देहरादून भेजा, जिन्होंने विधायकों से बात कर हाईकमान को रिपोर्ट सौंपी. समझा जाता है कि उनकी रिपोर्ट में विधायकों की शिकायतों पर मुहर लगा दी गई, जिसके बाद पार्टी की चुनावी सम्भावनाएं उजली करने के लिए तुरत-फुरत नेतृत्व परिवर्तन कर दिया गया.

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संवाददाता सम्मेलन में त्रिवेन्द्र से पूछा गया कि उन्हें इस्तीफा क्यों देना पड़ा, तो उन्होंने पार्टी के ‘सामूहिक निर्णय’ के प्रति सम्मान जताते हुए भी यह संकेत देने से गुरेज नहीं किया कि इस ‘क्यों’ के उत्तर के लिए दिल्ली जाना और पार्टी हाईकमान से पूछना होगा. निस्संदेह, इसका एक अर्थ यह है कि वे खुद इस्तीफा नहीं देते तो हटा दिये जाते. पार्टी के लिहाज से अच्छी बात यह है कि उन्होंने हाईकमान के संकेतों को पढ़ने में कोई गलती नहीं की.

लेकिन इस सिलसिले में कई और सवाल हैं, जो जवाब की दरकार रखते हैं और उनकी अनसुनी भाजपा पर भारी पड़ सकती है. क्योंकि त्रिवेन्द्र की असमय कहें या समयपूर्व विदाई ने कुछ और किया हो या नहीं, इतना तो साफ कर ही दिया है कि दूसरे दलों में सेंध लगाने वाली भाजपा के अपने घर में भी कुछ कमजोर कड़ियां हैं हीं. उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में शह और मात का राजनीतिक खेल कहें या उठापटक शुरू होती है तो ये कमजोर कड़ियां किस तरह महत्वपूर्ण हो जाती हैं, उत्तराखंड का इतिहास भी इसकी कुछ कम गवाही नहीं देता.


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पहले भी किए गए हैं ऐसे प्रयोग

ऐसे में कोई यह पूछे कि यह नेतृत्व परिवर्तन भाजपा की कमजोर कड़ियों को मजबूत करके उसकी समस्याएं बढ़ायेगा या उसकी चुनावी संभावनाएं उजली करेगा, तो पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. राज्य में इससे पहले भी चुनावी सम्भावनाओं के मद्देनजर मुख्यमंत्री पद को लेकर ऐसे प्रयोग किये जाते रहे हैं. इस कारण राज्य के अब तक के इतिहास में नारायण दत्त तिवारी एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं, जो पूरे कार्यकाल तक अपने पद पर रह पाये. लेकिन जानकारों के अनुसार चुनाव वर्ष में किये जाने वाले ऐसे प्रयोग प्रायः निरर्थक ही साबित हुए हैं. गत विधानसभा चुनाव से पहले ऐसे ही एक खेल में भाजपा ने कांग्रेस की कमजोर कड़ियों में सेंध लगाकर राज्य को राजनीतिक अस्थिरता के हवाले किया तो कोर्ट के आदेश पर बहाल हुई हरीश रावत सरकार भी कांग्रेस को चुनाव नहीं जिता पाई थी.

ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि भाजपा के नये मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत भाजपा के हरीश रावत नहीं सिद्ध होंगे, जबकि यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि भाजपा हार के डर से ही नये असंतुलन का कोई ‘खतरा’ उठाये बिना एक रावत की जगह दूसरे रावत को ले आई है. उसे किसी विधायक के बजाय एक सांसद को इसलिए मुख्यमंत्री बनाना पड़ा है कि पार्टी में मुख्यमंत्री पद को लेकर एक अनार और सौ बीमार की स्थिति है. राज्य में पार्टी के तौर पर उसकी राह भले ही पहाड़ों जैसी पथरीली रही हो, उसमें मुख्यमंत्री पद का अनार पाने के इच्छुक बीमारों की संख्या कम नहीं रही है.

तीरथ सिंह रावत ने भी यह अनार अनिल बलूनी, अजय भट्ट, धन सिंह रावत और सतपाल महाराज जैसे ‘बीमारों’ को रेस से बाहर करके ही पाया है. इसलिए कि पार्टी ने समझा कि इनमें से किसी एक को उपकृत करना दूसरों को नाराज करना होगा. लेकिन भविष्य इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेगा कि तीरथ इन सबके बीच संतुलन साध पायेंगे या अंततः इनकी मेढकों जैसी उछलकूद के शिकार हो जायेंगे. कौन नहीं जानता कि जब से कांग्रेस में फूट डालकर भाजपा उसके बड़े नेताओं को अपने पाले में लाई है, अपने भीतर असंतुष्टों की संख्या बढ़ा बैठी है.

मोदी के ‘महानायकत्व’ पर है सवाल

दूसरे पहलू पर जायें और भाजपा हाईकमान के नजरिये से देखें तो त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटाने का एक अर्थ यह भी है कि कम से कम राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के संदर्भ में उसने मान लिया है कि पार्टी हमेशा के लिए मोदी के ‘महानायकत्व’ पर ही निर्भर नहीं करती रह सकती.

2019 के बाद हुए राज्य विधानसभाओं के गत कई चुनाव गवाह हैं कि उनका ‘महानायकत्व’ अब जीत की गारंटी नहीं रह गया है. यह बात पार्टी में नीचे के स्तर तक प्रचारित हुई तो उसमें अभी तक हाईकमान का जो मतलब है, वह तेजी से बदलने लगेगा और उसकी ‘कमजोर कड़ियां’ पहले से ज्यादा कलहकारी होकर ज्यादा सताने लगेंगी. तब मित्र मीडिया के बूते भी इस कलह को ढक तोपकर नहीं रखा जा सकेगा. पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे कई राज्यों में अभी से हाईकमान के खिलाफ उठ रहे सवाल तब बेहद जटिल चुनौतियों में बदल जायें तो भी आश्चर्य नहीं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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