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कब तक अंबानी और अडानी का वर्चस्व बना रहेगा? दक्षिण कोरिया और जापान से मिल सकता है जवाब

दोनों समूह व्यवसाय जगत में नयी मजबूत पहल करने के लिए मशहूर हैं लेकिन दूसरे भी ऐसे हैं. ये दोनों अगर अलग दिखते हैं तो इसलिए कि उनमें अपना वर्चस्व बनाए रखने की भूख है.

चित्रण: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

भारतीय अर्थव्यवस्था पर हाल में अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में एक दमदार प्रस्तुति देते हुए भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. अरविंद सुब्रह्मण्यन ने अंबानी और अडानी की ‘अभूतपूर्व पहुंच’ का जिक्र किया. उन्होंने विभिन्न सेक्टरों में इन दो समूहों के बढ़ते दबदबे को ‘वैश्विक पूंजीवाद के इतिहास में अनूठी घटना’ बताया. भारत में आज यह व्यापक चर्चा का विषय है, खासकर सरकार से इन समूहों की नजदीकियों की चर्चा होती है लेकिन यह कितनी ‘अनूठी घटना’ है, यह भी विचारणीय मुद्दा है.

इन दोनों समूहों को व्यवसाय के मामले में पहल करने के लिए जाना जाता है. लेकिन दूसरे समूह भी इसके लिए जाने जाते हैं. ये दोनों अगर सबसे अलग नजर आते हैं तो इसकी वजह यह है कि इनमें वर्चस्व बनाए रखने की भूख है. माना जाता है कि इनके प्रति पक्षपात ने इस भूख को पूरा करने में मदद की है और इस भूख को लेकर विवाद भी उभरते रहे हैं.

अंबानी ने पेट्रो-रसायन और पेट्रोलियम, टेलिकॉम, ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, संगठित खुदरा व्यपार और मनोरंजन के सेक्टरों में वर्चस्व स्थापित करने पर ज़ोर दिया है. तेजी से तरक्की कर रहा अडानी समूह देश में कोयले का सबसे बड़ा आयातक है, बिजली और सौर ऊर्जा के सेक्टर में निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी है और अब वह भारत में बंदरगाहों और हवाई अड्डों का सबसे बड़ा मालिक है. दोनों समूहों ने एक-दूसरे का रास्ता काटने की कोशिश नहीं की है लेकिन ‘ग्रीन एनर्जी’ के क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने की घोषणा करके टक्कर में आने का फैसला कर लिया है. दोनों को सरकार में बड़ी पैठ रखने के लिए जाना जाता है. कई प्रतियोगी उनके रथों के पहियों के नीचे आ चुके हैं.

मूल्यांकन अपनी जगह है, हम उनके अनूठेपन की ही बात करें क्योंकि डॉ. सुब्रह्मण्यन ने उनकी तुलना दक्षिण कोरिया के चेबोल्स समूह और जापान के परिवार-नियंत्रित जाइबत्सु समूह (जिसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कीरेत्सु नेटवर्क्स ने प्रतिस्थापित कर दिया था) से की है.


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चेबोल्स और जाइबत्सु/ कीरेत्सु में अंबानी-अडानी समूहों से ज्यादा कंपनियां हैं और आधा दर्जन को दबदबे वाला माना जाता है. उनके अपने देश की औद्योगिक पूंजी, संपत्ति आदि में उनका हिस्सा अंबानी-अडानी समूहों के दावों से कहीं ज्यादा है और उनके व्यवसाय का विस्तार इनके विस्तार के लगभग बराबर है. अपने तमाम राजनीतिक संपर्कों के बावजूद अंबानी-अडानी समूहों के सहजैविक संबंध वैसे नहीं हैं जैसे जापानी और कोरियाई समूहों के अपने नेताओं और सरकारों के साथ हैं. चेबोल्स तो शुरू में सरकार द्वारा प्रायोजित नेशनल चैंपियन थे. वे और कीरेत्सु राजनीति को भारी फंड देते रहे हैं.

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अगर टाटा को भी शामिल कर लें तो भी कहानी नहीं बदलती. टाटा कभी (इंटरलॉकिंग शेयर होल्डिंग और निर्देशक वाली व्यवस्था के कारण) कीरेत्सु जैसा समूह था जो होल्डिंग कंपनी के साथ और लंबे समय से एक ही परिवार के नाम से पहचाना जाने वाला जाइबत्सु जैसा ऊर्ध्वाधार ढांचे वाला समूह बन गया है. राष्ट्रीय वर्चस्व नहीं रखने के मामले में भारत के ये तीनों बड़े समूह अपने-अपने देश में अग्रणी चेबोल्स और जाइबत्सु की कहीं बराबरी नहीं करते. आखिर, भारत की स्टार्ट-अप यूनिकॉर्न कंपनियां मिलकर अंबानी साम्राज्य से ज्यादा मूल्य रखती हैं. इसके अलावा, अंबानी-अडानी के विपरीत टाटा समूह वर्चस्व की या राजनीतिक पकड़ बनाने की होड़ में नहीं रहता.

अब दो सवाल उठते हैं. पहला यह कि चेबोल्स और जाइबत्सु ने तो ‘चमत्कारी’ वृद्धि और अपनी अर्थव्यवस्था के लिए निर्यात के मामले में कई सफलताएं हासिल की हैं. लेकिन उनके बराबर माने जा रहे इन भारतीय समूहों के बारे में ऐसा किस हद तक कहा जा सकता है? इसके विपरीत, व्यावसायिक समूह का वर्चस्व देश के लिए कितना नुकसानदेह रहा है? इनके जवाब एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक के हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, कीरेत्सु की आलोचना की जाती है कि वह अपने इंटरलॉकिंग संबंधों का इस्तेमाल करके छोटी फर्मों और प्रतिद्वंद्वियों का पत्ता काटता है.

दूसरा सवाल यह है कि व्यवस्थागत वर्चस्व कब तक कायम रह सकता है? शायद दशकों तक. फिर भी, कीरेत्सु का वर्चस्व समूहीकरण के मॉडल में निहित कमजोरी के कारण तेजी से घटा है. इस मॉडल में एक होल्डिंग बैंक समूह की कमजोर फर्मों को सहारा देता है, जिससे पूंजी का गलत आवंटन होता है. 1990 के दशक में बैंकिंग सेक्टर में जैसा संकट आया था वैसा संकट आने पर कीरेत्सु का ढांचा चरमरा जाता है. इसी तरह, कोरिया में चेबोल्स के कमजोर व्यापारिक व्यवहारों ने उसके देश को 1997 के एशियाई वित्तीय संकट में फंसा दिया, जिसके बाद सुधार की मांग होने लगी.

क्या भारत में कॉर्पोरेट वर्चस्व फीका पड़ेगा? नये प्लेटफॉर्म और नेटवर्क बिजनेस का जो जीता वही सिकंदर वाला जो फंडा है उसके कारण इस सवाल का जवाब देना बहुत मुश्किल है. लेकिन रिलायंस को अपनी लगाई गई पूंजी पर जो लाभ मिलता है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि वह पूंजी का कुशल उपयोग नहीं करता रहा है. अडानी समूह के आंकड़े बहुरंगी हैं. यहां तक कि पूंजी के कुशल उपयोग के मामले में टाटा का रिकॉर्ड भी, उसकी विशाल सॉफ्टवेयर कंपनी के बिना कमजोर ही है. एअर इंडिया इसमें कोई सुधार नहीं कर पाएगी.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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