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आर्यन खान को देख इतने खुश न हों, NDPS हथियार से सरकार आपके बच्चों को भी शिकंजे में ले सकती है

‘नार्कोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सब्स्टेंसेज एक्ट’ नामक कठोर कानून उन लोगों के हाथ में थमा दिया गया है जो इसका दुरुपयोग कर सकते हैं. आज टीवी के परदे पर इसी खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग की कहानी चल रही है

चित्रणः सोहम सेन । दिप्रिंट

दुनिया भर के अधिकतर लोकतांत्रिक देशों में तार्किक सोच-विचार के बाद हो सकता है कि ‘ड्रग्स के खिलाफ जंग’ शांत हो गई हो, लेकिन ईरान से लेकर चीन तक तानाशाही वाले कई देशों और सिंगापुर और मलेशिया जैसे निर्वाचित निरंकुश शासनों वाले देशों में यह जंग जारी है. भारत इस जमात में अजनबी की तरह शामिल है. यह आर्यन खान और उनके साथ दूसरे लोगों के खिलाफ चल रहे मामले को लेकर छिड़े बदनुमा और दुखद विवाद से उजागर हो रहा है. जैसा कि पहले भी बेचारी रिया चक्रवर्ती और अन्य लोगों के साथ किया गया.

मैं यहां किसी को निर्दोष या दोषी नहीं घोषित कर रहा हूं. अदालत में चल रहे किसी मामले में मैं इस तरह की कोशिश करने की हिम्मत नहीं कर सकता, खासकर उन मामलों में जो ऐसे कठोर और पुराने पड़ चुके कानून के तहत चल रहे हों जिसमें जज भी आरोपी को पहले से ही दोषी मान लेने के सिवा कुछ नहीं कर सकता.

यह उन कानूनों में है जिनके आगे यह सिद्धांत भी उलट जाता है कि जब तक आरोप सही साबित न हो, आरोपी को निर्दोष माना जाना चाहिए. ऐसे कानून इस सिद्धांत को लागू करते हैं कि जब तक निर्दोष साबित न हो तब तक आरोपी को दोषी माना जाए. यही वजह है कि इस मुकाम पर जमानत लगभग नामुमकिन है बशर्ते जज, भारत के पूर्व एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के मुताबिक, इतना साहसी हो कि तथ्यों को कानून से ज्यादा अहमियत दे. भारत में, खासकर निचली अदालतों में ऐसे कुछ साहसी जज खोज निकालिए तो मैं आपके लिए सुप्रीम कोर्ट की एक ऐसी बेंच तैयार कर सकता हूं जो गुमनाम चुनावी बॉण्ड के मामले की सुनवाई शुरू कर सके.

कहा जाता है कि कानून तो एक गधे जैसा होता है और खास तौर से 1985 में लागू किया गया यह ‘नार्कोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सब्स्टेंसेज एक्ट’ (एनडीपीएस) नामक कानून इतना विचित्र, कठोर, अव्यावहारिक, निष्प्रभावी, शोषणकारी, और दुरुपयोग किया जाने वाला कानून है कि इसे गधा कहना भी गधे की तौहीन होगी. इसे दिखावे के लिए बनाया गया था; और पिछले चार दशक में इसमें कई बदलाव किए गए, इसे कमजोर किया गया फिर भी यह नागरिकों के लिए आफत है और सुर्खियों बटोरने की चाह रखने वाले व भ्रष्ट पुलिसवालों के लिए एक वरदान, वकीलों के लिए लॉटरी, और जजों के लिए सिरदर्द बना हुआ है.

हमें अब तक यह मालूम हो चुका है कि नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) ने आर्यन के पास से कोई ड्रग्स बरामद नहीं किया. रिया चक्रवर्ती के पास से भी वह कोई ड्रग्स बरामद नहीं कर पाए थे. लेकिन कथित रूप से व्हाट्सएप पर हुई बातचीत से ड्रग्स खरीदने और उसका इस्तेमाल करने के इरादे का संकेत मिलता है, या पहले भी इसका कुछ इस्तेमाल किए जाने का संकेत मिलता है. इसके अलावा उनके साथ जो आदमी था उसके पास कुछ ड्रग्स थे यानी उसने उसे ‘जानबूझकर अपने पास रखा था’. ऐसे में सामान्य रूप से आप यह सोचने लगेंगे कि किसी क्रिमिनल मामले में दूसरे के बदले जवाबदेही कैसे तय की जाती है? लेकिन यहां तो आपका सामना किसी सामान्य, सभ्य किस्म के कानून से नहीं है. जमानत के लिए शर्तों, और खुद को निर्दोष साबित करने के लिए सबूत देने के मामलों में यह कानून ‘यूएपीए’ जैसे कानून से भी कठोर है. ‘टाडा’ नामक कानून जितना तो नहीं मगर कुछ-कुछ उतना ही कठोर है यह.

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यह नौबत क्यों आई? इसके लिए शायद बीटल्स को दोष दिया जा सकता है, खासकर जॉन लेनन को. मैं विषय से भटक नहीं रहा हूं. वे 1960 वाले दशक की याद दिलाते हैं जब मनोविकृति, हिप्पिवाद, नशाखोरी पश्चिम के विरक्त युवाओं का, खासकर वियतनाम युद्ध के कारण, सहारा बन गई थी. यह दौर जब अपने उत्कर्ष पर था तब बीटल्स ने ‘लूसी इन द स्काइ विद डायमंड्स’ गाना रचा था, जिसे ‘एलएसडी’ के रूप में लिया गया जो उस समय सबसे महंगा, चहेता और अवैध ड्रग था जिसका इस्तेमाल होश उड़ाने के लिए किया जाता था. हमने इस गाने की रचना करने वाले लेनन को पकड़ लिया, बाद में उन्होंने यह समझाने की नाकाम कोशिश की कि उन्होंने तो ‘एलिस इन वंडरलैंड’ से प्रेरणा ली है.

तथ्य यह है कि 1950 के दशक के मध्य से 1970 के दशक तक ड्रग्स को मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता था. 1961 में पेरिस में तमाम देशों की बैठक हुई जिसे नार्कोटिक्स ड्रग्स का ‘सिंगल कन्वेन्शन’ नाम दिया गया और जुलाई में एक समझौते को मंजूर किया कि इस पर दस्तखत करने वाला हर एक देश अपने यहां इतना कठोर कानून बनाएगा कि ड्रग्स का खतरा 25 वर्षों में खत्म हो जाए.

अंतिम समय में काम करने की अपनी ख्याति के अनुरूप भारत ने 1985 में एनडीपीएस एक्ट बनाया. तब तक अमेरिका में रिपब्लिकन सत्ता में वापस आ गए. रिचर्ड निक्सन के लिए वियतनाम युद्ध के दौरान और युद्ध विरोधी आंदोलन के दौरान ड्रग्स के खिलाफ जंग जिहाद के बराबर थी. रोनाल्ड रीगन ने उस कड़ी को आगे बढ़ाया. भारत में नये प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी उनकी और अमेरिका की तरफ हाथ बढ़ा रहे थे.

रूढ़िवादी प्योरिटिनिज़म, भू-राजनीति, और सामंती पारिवारिक संबंधों के नशीले मेल में उलझा एक मामला आदिल शहरयार का था, जिसे एक बड़े जुर्म, धोखाधड़ी, और एक पोत में विस्फोटक रखने के मामले में यूएस में जेल में बंद कर दिया गया था और गांधी परिवार उसे रिहा करवाना चाहता था. संदिग्ध सौदेबाजी की अफवाहें दिल्ली के लुटिएन्स इलाके की हवा में तैर रही थीं. शहरयार इस परिवार के करीबी, वफादार मोहम्मद यूनुस का बेटा था. इस कहानी को विस्तार से वही बता सकता है जिसने उस दौर को करीब से देखा होगा, लेकिन उस दौर ने एक ऐसा दानवी कानून दिया जिसने न केवल आरोपी पर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि वह खुद को बेकसूर साबित करे बल्कि भारी मात्रा में ड्रग्स रखने वाले के लिए मौत की सजा अनिवार्य बना दी (जैसा कि सिंगापुर या ईरान में लागू है) और जज के लिए कोई विकल्प नहीं छोड़ा. निक्सन वियतनाम में भले हार गए लेकिन उनका प्रेत ड्रग्स के खिलाफ जंग जीत रहा था.

भारत में कानून और न्याय की प्रक्रिया से जुड़े हर किसी को मालूम है कि एक भयंकर भूल हो गई है, लेकिन इस पर सवाल कौन उठाए?
इसमें कुछ-कुछ साल पर संशोधन किए जाते रहे हैं. पहला संशोधन 1988 में किया गया और ड्रग्स के निजी इस्तेमाल के लिए कैद की सजा घटाकर 1-2 साल की कर दी गई. लेकिन एक अड़चन आ गई, रीगन के दबाव में हमनें इन अपराधों को गैर-जमानती बना दिया और अनिवार्य मौत की सजा के अलावा संपत्ति की जब्ती का प्रावधान भी शामिल कर दिया. केवल दो साहसी सांसदों ने इसका विरोध किया—कॉंग्रेस की जयंती पटनायक और जनता दल के कमाल मोरारका ने.

जब कई हाइकोर्टों ने इस कानून के कई हिस्सों की अलग व्याख्या की तो 1994 में पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने यह जांचने के लिए एक कमिटी का गठन किया कि यदाकदा ड्रग्स का इस्तेमाल करने वालों, छोटे बिक्रेताओं, झोंपड़पट्टी वालों के प्रति यह कानून कितना कठोर है. कमिटी ने कानून को और नरम बनाया लेकिन संशोधन 2001 में (वाजपेयी सरकार के दौरान) किए गए. इसके एक दशक बाद बॉम्बे हाइकोर्ट ने शानदार फैसला सुनाते हुए अनिवार्य सजाए-मौत को परे कर दिया. मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार ने एक कमिटी बनाई और मार्च 2014 में इस अनिवार्य सजा को खत्म कर दिया गया.

लेकिन बाकी बहुत कुछ, मसलन धारा 37 और 54, बचा रहा जिनके तहत मामूली शक होने पर भी, उदाहरण के लिए व्हाट्सएप चैट के आधार पर भी दोषी माना जा सकता है. या धारा 67 भी बची है, जो किसी अधिकारी को अधिकार देती है कि वह किसी को भी समन कर सकता है, एक गवाह के रूप में, और उससे किसी तरह का सवाल कर सकता है, उस पर सबसे गंभीर आरोप भी लगा सकता है— क्या तुम ड्रग्स लेते हो? ड्रग्स बांटते हो? बेशक तुम यह सब करते हो, झूठ मत बोलो! तो खबर यह बन सकती है—‘एनसीबी की पूछताछ में सुपरस्टार…. ने कहा, मैं ड्रग्स नहीं लेता’.

गेस्टापो शैली की पूछताछ का यही असर है. कल्पना कीजिए कि मेज की दूसरी तरफ आप या आपका बेटा बैठा है. इस कानून ने उन्हें दीपिका पादुकोण, रकुल प्रीत सिंह, और दूसरे कई को समन करने का अधिकार दिया और हमारे टीवी चैनलों को कई दिनों तक उनकी आकर्षक तस्वीरें दिखाने का मौका दे दिया. सबसे ताजा हैं बेचारी अनन्या पांडे जो इस तमाशे में भागती-फिरती नज़र आ रही हैं जबकि उनके बारे में खबरें दी जा रही है कि एनसीबी उनसे ‘पूछताछ’ कर रहा है.

इस तरह के कानूनों का दुरुपयोग ही होता है और हासिल कुछ नहीं होता. प्रमाण के लिए ‘विधि लीगल’ नामक थिंक टैंक की कानूनविद नेहा सिंहल और नवीद अहमद के उस लेख को देखिए, जिसे दिप्रिंट ने प्रकाशित किया है. उन्होंने दिखाया है कि 2018 में भारत में एनडीपीएस कानून के तहत 81,778 लोगों पर आरोप दर्ज किए गए, जिनमें 99.9 प्रतिशत लोगों पर ड्रग्स का निजी उपभोग करने का आरोप लगाया गया था. इसके साथ ही केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्रालय की 2019 की रिपोर्ट ‘भारत में मादक द्रव्यों के दुरुपयोग का परिमाण’ को भी देखें. कहा गया कि उस दौरान भारत में भांग का इस्तेमाल 3 करोड़ लोग कर रहे थे. अगर इन सब पर एनडीपीएस कानून लागू कर दिया गया तो हिसाब लगाएं कि कितनी जेलें बनानी पड़ेंगी. इसके अलावा 60 लाख लोग ओपीओड लत के शिकार थे. कड़े ड्रग्स लेने वालों की संख्या 8.5 लाख थी.

कहीं आप इतनी कम संख्या जान कर निराश तो नहीं हो गए? अगर आपने ‘उड़ता पंजाब’ फिल्म देखी हो तो कल्पना कीजिए कि एक छोटे-से राज्य में कोक और हेरोइन लेने वालों की संख्या 20 गुना ज्यादा हो तो क्या होगा. एक प्रदेश के शानदार लोगों को बदनाम करने के लिए कोई बकवास फिल्म बना डालना एक अलग बात है, क्योंकि इससे किसी लोककथा को मसाला मिलता है. लेकिन ऐसी लोककथाएं बुरे कानूनों को जन्म देती हैं. दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का एक अध्ययन बताता है कि 2000 से 2015 के बीच 15 साल में निचली अदालतों ने ऐसी केवल पांच सजाए-मौत सुनाई. इनमें से चार को अपील के बाद उम्रक़ैद में बदल दिया गया और पांचवें को, आप शायद यकीन न करें, बरी कर दिया गया.

हमने मच्छर को मारने के लिए बंदूक का इस्तेमाल कर डाला. और बंदूक भी उन्हें थमा दी जिन्हें इसका गलत इस्तेमाल करने की आदत है. अब टीवी के पर्दे पर जो कहानी चल रही है वह इसके खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग की कहानी ही है. यहां सवाल यह नहीं है कि अमुक बेकसूर है या कसूरवार. यह छिछले मजे लेने का समय नहीं है. याद रहे, कल को आप या आपके बच्चे की भी बारी आ सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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