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इंडियन स्पेस टेक को अब छोटे सैटेलाइट्स बनाने और बड़ी ग्लोबल पार्टनरशिप करनी चाहिए

किस्मत से, भारत की घरेलू नीतियों के साथ- साथ अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का परिदृश्य भी इस वक्त इन भू- राजनैतिक लक्ष्यों के साथ मेल खाता है.

SSLV-D1/EOS-02 मिशन | Twitter @isro

इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन, या इसरो ने पिछले हफ्ते वनवेब के 36 सैटेलाइट्स लॉन्च किए. वनवेब, ब्रिटेन सरकार और भारत की भारती एंटरप्राइजेज का संयुक्त उपक्रम है और ये अपने मूल सहयोगी, रूस की अंतरिक्ष एजेंसी रॉसकॉसमॉस के यूक्रेन युद्ध की वजह से पीछे हटने के बाद अपने सैटेलाइट्स के लॉन्च के लिए हड़बड़ी में था. ऐसा लग रहा था कि वनवेब के पास कोई बैकअप नहीं था, और विश्लेषकों का मानना था कि एकमात्र विकल्प है स्पेसएक्स.

इसलिए, इसरो का ये लॉन्च किया जाना मायने रखता है. इसने बाजार की उम्मीदों को ललकारा है. इसने रिकॉर्ड वक्त में सैटेलाइट्स लॉन्च किए हैं. ये ऐसा पहला मिशन भी था जिसने भारत के पारंपरिक भरोसेमंद व्हीकल पीएसएलवी का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि अधिक उन्नत जीएसएलवी – एमके III का विकल्प चुना. और इससे ना सिर्फ इसरो, बल्कि भारत की कॉमर्शियल लॉन्च मार्केट में एक आशाजनक और उभरते खिलाड़ी की छवि बेहतर हुई है. बेशक, भारत ने पहले भी दूसरे ग्राहकों के लिए कॉमर्शियल लॉन्च किए हैं, लेकिन जिस रफ्तार से इसरो ने वनवेब के सैटेलाइट्स को लॉन्च किया, और उनका जो महत्व था, वो वाकई में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है.

भारत की बढ़ी हुई क्षमता और विदेशी ग्राहकों के लिए लॉन्च करने की बढ़ती रुचि को देखते हुए क्या इन गतिविधियों का दायरा फैलाना मुमकिन है? क्या भारत ना सिर्फ छोटे सैटेलाइट्स के समूह को लॉन्च कर सकता है बल्कि उनका निर्माण भी कर सकता है? क्या भारत ऐसा सिर्फ निजी उद्यमों के लिए नहीं बल्कि देशों के लिए भी कर सकता है? भारत को स्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर में अपनी क्षमताओं का उपयोग, छोटे सैटेलाइट्स पर ध्यान देते हुए एक कुशल अंतरिक्ष कूटनीति के लिए करना चाहिए. इससे कई तरह के लक्ष्य पूरे हो सकते हैं.

अंतरिक्ष से जुड़े उपकरणों के छोटे होते जाने की वजह से अंतरिक्ष में छोटे सैटेलाइट्स को अपनाए जाने में तेजी दिख रही है और सैटेलाइट्स तेजी से अलग- अलग तरह के कामों को संचालित कर रहे हैं – क्रेडिट कार्ड स्वाइपिंग मशीन से लेकर मौसम पर निगरानी रखने वाली प्रणाली तक. यूक्रेन युद्ध में, स्पेसएक्स के स्टारलिंक टर्मिनल्स का इस्तेमाल ना सिर्फ युद्ध से प्रभावित इलाकों में इंटरनेट कनेक्टिविटी को बहाल करने में हुआ, बल्कि इसकी मदद से यूक्रेन की सेनाओं ने रूसी सेनाओं के खिलाफ ड्रोन से हमले भी किए. स्टारलिंक टर्मिनल्स पृथ्वी की निचली कक्षा में करीब 3,000 छोटे सैटेलाइट्स  को आपस में जोड़ते हैं. युद्ध का ये गैर- पारंपरिक तरीका असरदार रहा है और इसने बाकी देशों का ध्यान भी खींचा है. कुछ लोग तो इस युद्ध में यूक्रेन की कामयाबी को ‘युद्ध के नियमों का पुनर्लेखन‘ तक कह रहे हैं.

इसलिए, भारत इस क्षेत्र में प्रवेश की सोच सकता है और सोचना भी चाहिए क्योंकि ये छोटे और ‘अंतरिक्ष- तकनीक’ में पिछड़े देशों को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए अपनी रक्षात्मक क्षमताओं का निर्माण करने की ताकत देता है. जहां स्पेसएक्स इस वक्त अपने स्टारलिंक टर्मिनल्स का इस्तेमाल सिर्फ अपने ग्राहकों को करने देता है, और यूक्रेन को इसका इस्तेमाल करने से संभावित रूप से रोकने के लिए ‘लागत’ को एक वजह बता रहा है, भारत को दूसरे देशों को तकनीकी ‘जानकारी’ से जुड़े क्षमता निर्माण समेत एक पूरा वर्टिकल स्टैक (यानी सैटेलाइट पैकेज) देने के बारे में सोचना चाहिए. ऐसा उन राष्ट्रों के लिए छोटे सैटेलाइट्स का निर्माण और प्रक्षेपण करके और उन तक पहुंच देकर किया जा सकता है, जो ऐसी सेवाओं से होने वाले फायदों का इस्तेमाल करना चाहते हैं. रक्षा उद्देश्यों के अलावा इसके फायदे कृषि प्रबंधन, आपदा प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को आंकने में मिल सकते हैं.

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जिन देशों के पास इन सैटेलाइट्स को बनाने की क्षमता है, उनके लिए भी इन्हें समयबद्ध तरीके से और कम लागत पर लॉन्च करना अक्सर एक चुनौती होती है. ज्यादातर रॉकेट लॉन्च के समय कई छोटे सैटेलाइट्स को अक्सर एक सेकेंडरी पेलोड के तौर पर काम करना पड़ता है. जो रॉकेट जितना जोर लगा सकता है, वो उतना ही ज्यादा पेलोड ले जा सकता है. चूंकि एक रॉकेट पर ढेरों पेलोड होते हैं, आमतौर पर छोटे सैटेलाइट्स को वरीयता नहीं मिलती और उन्हें दूसरे पेलोड के साथ ‘राइडशेयर’ करना होता है और रॉकेट लॉन्च कब किया जाएगा, ये निर्भर करता है पेलोड के पूरी तरह तैयार होने पर. अपने नए बने एसएसएलवी के माध्यम से भारत ने दिखाया है कि वो इस गतिरोध को भी दूर कर सकता है. दरअसल, इसरो ने 500 किलोग्राम से हल्के पेलोड को ध्यान में रखकर ही एसएसएलवी को विकसित किया है. इन हल्के पेलोड का इस्तेमाल आमतौर पर दूर- दराज के इलाकों में इंटरनेट सर्विस देने के लिए होता है.


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नियम भी हमारे साथ हैं

किस्मत से, भारत की घरेलू नीतियों के साथ- साथ अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का परिदृश्य भी इस वक्त इन भू- राजनैतिक लक्ष्यों के साथ मेल खाता है. हाल ही में प्रस्तावित भारत का दूरसंचार विधेयक सैटेलाइट स्पेक्ट्रम को सस्ता करना आसान बना सकता है– जो सैटेलाइट टर्मिनलों को अपनाने में मदद कर सकता है और फिर सैटेलाइट ब्रॉडबैंड के इस्तेमाल को आगे बढ़ा सकता है. सैटेलाइट ब्रॉडबैंड के यूजर्स की संख्या ज्यादा बड़ी होने से हर टर्मिनल की लागत कम हो सकती है और इससे इसरो को दूसरे देशों को इन सैटेलाइट अपनाने के लिए सब्सिडी देने में मदद मिल सकती है. इसरो ने पिछले महीने ही सैटेलाइट ब्रॉडबैंड देने के बाजार में प्रवेश किया है.

इसके अलावा, डि-ऑर्बिटिंग (सैटेलाइट्स को ऑर्बिट से बाहर करना) को जरूरी बनाने के अमेरिकी एफसीसी के नए नियमों के लागू होने के बाद ये एक सामान्य घटना बन सकती है, जिससे उन भारतीय कंपनियों को मौके मिलेंगे जिन्हें मिशन पूरा कर चुके सैटेलाइट्स को ऑर्बिट से बाहर करने में महारत हासिल है (ये बात याद रखने की है कि एफसीसी एक तरह से दुनिया का स्पेस रेगुलेटर है). छोटे सैटेलाइट भेजने के बढ़ते चलन और समय- समय पर उनके प्रतिस्थापन/ऑर्बिट से बाहर करने की जरूरत को देखते हुए ऐसा बिलकुल मुमकिन है. हालांकि इसके साथ ही एक डर भी है कि इससे बाहरी अंतरिक्ष में आगे जाते हुए भीड़- भाड़ हो सकती है, लेकिन भारत फिलहाल UNCOPUOS (यूनाइटेड नेशंस ऑफिस फॉर आउटर स्पेस अफेयर्स) एलटीएस गाइडलाइंस पर वर्किंग ग्रुप की अध्यक्षता कर रहा है. ये वर्किंग ग्रुप मौजूदा दिशानिर्देशों को लागू करने के साथ- साथ छोटे सैटेलाइट्स और सैटेलाइट्स के समूहों के टिकाऊ होने से जुड़े मुद्दों पर नए दिशानिर्देश विकसित करने की संभावना पर भी चर्चा कर रहा है.

हालांकि, चुनौतियां भी हैं. भारत को सुनिश्चित करना होगा कि इसके छोटे सैटेलाइट्स से मिलने वाले फायदे सबसे अलग हों और सहयोगी/लाभार्थी देशों के किसी मौजूदा अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विरोध में ना हों. साथ ही, वादे और प्रदर्शन के बीच के अंतर का भी ध्यान रखना होगा क्योंकि ऐसी एक धारणा है कि भारत के दूसरे द्विपक्षीय इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स, किसी ना किसी वजह से, देरी से प्रभावित हुए हैं. संक्षेप में, भारत के पास अंतरिक्ष में अपने कौशल के ढेरों फायदों को दूसरे देशों के साथ साझा करने का एक मौका है. भारत को अंतरिक्ष कूटनीति के रूप में ऐसा सक्रिय रूप से करना चाहिए. अंतरिक्ष को हमेशा से पूरी दुनिया के साझा संसाधन के तौर पर देखा जाता रहा है. अब भारत सभी देशों की भलाई के लिए इस सिद्धांत को मान्यता दिला सकता है.

कोणार्क भंडारी कार्नेगी इंडिया में एक एसोसिएट फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @KonarkBhandari.
तेजस भारद्वाज कार्नेगी इंडिया में एक रिसर्च असिस्टेंट हैं.

यह लेख प्रौद्योगिकी की भू-राजनीति की पड़ताल करने वाली सीरीज का हिस्सा है, जो कार्नेगी इंडिया के सातवें ग्लोबल टेक्नोलॉजी समिट की थीम है. विदेश मंत्रालय के साथ संयुक्त मेजबानी में ये समिट 29 नवंबर से 1 दिसंबर तक होगी. प्रिंट इसमें डिजिटल सहयोगी है. रजिस्टर करने के लिए यहां क्लिक करें. सभी लेख यहां पढ़ें.

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