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लॉकडाउन से कोविड-19 संकट नहीं टलेगा क्योंकि 21 दिनों में भारत की स्वास्थ्य सेवा का विस्तार संभव नहीं

कोविड-19 जैसी महामारी भारत जैसे लोकतंत्र में निर्णय लेने और प्राथमिकताएं तय करने की प्रक्रिया पर भी सवाल खड़ा करती है.

ओमीक्रॉन वैरिएंट के मामले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं. प्रतीकात्मक तस्वीर

क्या कोरोनावायरस लॉकडाउन उचित है? बहुत से लोगों का ये मानना है कि जान बचाने के लिए कोई भी सामाजिक कीमत चुकाई जा सकती है. पहली नज़र में ये दलील समझदारी भरी लगती है लेकिन सामान्य परिस्थितियों में भारत में या विश्व स्तर पर हम इस सिद्धांत को नहीं मानते हैं. विकासशील देशों में हम संसाधनों की कमी के कारण लोगों के काल कवलित होने, अक्सर बड़े पैमाने पर, को सहन करते रहते हैं.

महामारी के संदर्भ में भारत जैसे लोकतंत्र में निर्णय लेने और प्राथमिकताएं तय करने की प्रक्रियाओं को लेकर सवाल पैदा होते हैं.

मोटे तौर पर अनुमान से पता चलता है कि भारत में अधिक से अधिक अमेरिका के बराबर संख्या में वेंटिलेटर हैं, जबकि आबादी उससे चार गुना है. पूरी संभावना है कि महामारी फैलने के पहले से ही इनमें से बड़ी संख्या में वेंटिलेटर मरीजों के उपयोग में होंगे. भले ही अस्पतालों की क्षमता में बड़े पैमाने पर वृद्धि की जाती हो, भारत में कोविड-19 के प्रसार को धीमा करने का अभियान गंभीर अस्वस्थता को रोकने पर केंद्रित होना चाहिए, न कि वेंटिलेटरों की उपलब्धता सुनिश्चित कर उनका उपयोग बढ़ाने पर.

लेकिन वायरस को अस्थायी रूप से दबाना इसके बाद में नहीं फैलने की गारंटी नहीं है. टीके की अनुपस्थिति और भारत के खस्ताहाल स्वास्थ्य ढांचे की सीमाओं के मद्देनज़र ऐसा करना चुनौतीपूर्ण होगा. लॉकडाउन हो सकता है उम्मीदों से भी अधिक सफल साबित हो, पर घरों को वायरस मुक्त करने के लिए इक्कीस दिन अपर्याप्त हैं. लॉकडाउन का अच्छे से अनुपालन होता है तो भी जब तक कि जलवायु या अन्य कारकों (जैसे आक्रामकता के साथ संक्रमण के व्यापक परीक्षण और क्वारेंटाइन का कार्यक्रम, जिसकी क्षमता भारत में इस समय बहुत कम है) का प्रभावी हस्तक्षेप नहीं होगा, वायरस का प्रसार दोबारा शुरू हो सकता है.

स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ाने की ज़रूरत

स्वास्थ्य पर भारत का औसत खर्च अन्य विकासशील देशों से बहुत कम है, जिससे पता चलता है कि सरकारी प्राथमिकताओं में ये अपेक्षाकृत नीचे है.

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भारत में स्वास्थ्य पर व्यय जीडीपी का 3.7 प्रतिशत है, जिसमें से करीब एक चौथाई भाग ही सरकारी व्यय का है. यह निम्न और मध्यम आय वाले देशों के औसत 5.4 प्रतिशत से काफी कम है जिसमें लगभग आधा सरकारों का योगदान है.
इसके अलावा, भारत में मरने वालों में बड़ी संख्या युवाओं की होती हैं. यही कारण है कि हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ने के बावजूद भारत की 68.5 वर्ष की जीवन प्रत्याशा, अभी भी अमेरिका की तुलना में 10 वर्ष कम और स्पेन की तुलना में 17 वर्ष कम है. भारत में 2018 में लगभग 1 करोड़ मौतें हुईं, जिनमें से 12 प्रतिशत से अधिक ने वायु प्रदूषण के कारण जान गंवाई. इसके अलावा, लगभग 7 प्रतिशत डायरिया जनित बीमारियों के कारण मरे, 5 प्रतिशत तपेदिक के कारण और 2 प्रतिशत से अधिक सड़क दुर्घटनाओं की वजह से.


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इनमें से प्रत्येक में, निवारण और इलाज के प्रयासों से जुड़े नीतिगत बदलावों के ज़रिए मौतों की संख्या कम करने की गुंजाइश थी.

मौत, खास कर निवारणीय रोगों से होने वाली, का खतरा वर्ग, जाति, क्षेत्र और लिंग के अनुसार असमान होता है. लेकिन एक अत्यधिक संक्रामक बीमारी के रूप में कोविड-19 का खतरा सभी वर्गों, विशेषकर बुजुर्गों के लिए, के लोगों पर दिखता है. मृत्यु के कुछ अन्य कारणों का खतरा उन लोगों पर अधिक देखा गया है जो गरीब या सामाजिक रूप से वंचित तबके से हैं.

केवल लॉकडाउन से ही काम नहीं चलेगा

इसलिए इस पृष्ठभूमि के बरक्स भी कोरोनावायरस लॉकडाउन को ठीक से समझना आसान नहीं है. ऐसा नहीं है कि हमें मौजूदा महामारी के कारण असमय होने वाली मौतों से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. लेकिन अगर हम मौतों से बचने का इतना ध्यान रखते हैं तो हमें अन्य वजहों से होने वाली मौतों को लेकर भी बहुत कुछ करना चाहिए था और अब भी करना चाहिए.

भारत में जीवन बचाने के लिए एक वेंटिलेटर लगाने की लागत अन्य तरीकों से जीवन बचाने की लागत की तुलना में बहुत अधिक होने की संभावना है. लेकिन ये वेंटिलेटर नहीं लगाने की वजह नहीं हो सकती, बल्कि इसके मद्देनज़र ऐसे कदम उठाने की ज़रूरत दिखती है जोकि सामान्य समय में भी विभिन्न तरीकों से ज़िंदगी बचा सकें और ज़िंदगी बढ़ा सकें.

स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय में योजनाबद्ध तरीके से वृद्धि भारत को सही दिशा में ले जा सकती है. एक बेहतर स्वास्थ्य ढांचा कोरोनावायरस जैसी जनस्वास्थ्य की आपदाओं की निगरानी और उनके खिलाफ कदम उठाने में भी मददगार साबित होगा.

लॉकडाउन के कारण पड़ने वाले आर्थिक और सामाजिक व्यवधानों का स्वास्थ्य और सेहत पर भी असर पड़ेगा क्योंकि आवागमन संबंधी प्रतिबंधों के कारण स्वास्थ्य कार्यक्रमों को जारी रखना, स्कूलों को संचालित करना, लोगों का पोषण या घरेलू हिंसा से उनका बचाव सुनिश्चित करना कठिन हो गया है. सभी की ज़िंदगी को बराबर का महत्व देने का दावा करने वाले शासन को अपने कार्यों से उस प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहिए. ऐसा करने के लिए उसे कम से कम सार्वजनिक स्वास्थ्य पर केंद्रित योजनाएं बनानी चाहिए.

लॉकडाउन के कार्यान्वयन में दूरदर्शिता का अभाव

सार्वजनिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के घोषित उद्देश्य और और इसके कार्यान्वयन के बीच एक बड़ा फासला है. जल्दबाजी में और निर्णायकता के साथ घोषित उपायों के कार्यान्वयन से यह बात खुलकर जाहिर होती है, जिनमें बुनियादी मुद्दों के बारे में दूरदर्शिता का अभाव है.

ऐसा लगता है कि नीति नियंताओं ने इस बात पर बहुत कम या कोई ध्यान नहीं दिया कि लोगों के सामने आजीविका और भोजन की उपलब्धता का संकट हो सकता है. अचानक लगाए गए प्रतिबंधों के कारण बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हो गया और विभिन्न इलाकों में भीड़ एकत्रित हो गई, जिससे रोग संचरण की संभावना बढ़ गई है. लॉकडाउन का फैसला करने वालों ने इस आशंका पर भी विचार नहीं किया कि प्रतिबंधों को लागू करने का दारोमदार जिस पुलिस पर होगा, वो उन्हें निष्ठुरता से लागू करेगी जोकि अपने आप में जनस्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकता है.


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भोजन और आय की चिंता नहीं करने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आश्वासन इस वास्तविकता से दूर था कि बाजार अर्थव्यवस्था को 21 दिनों में नियोजित अर्थव्यवस्था में ढालना संभव नहीं है, भले ही ये एक अच्छा विचार हो. लॉकडाउन लागू करने वाले कई अन्य देशों ने आवश्यक सेवाओं के लिए स्पष्ट अपवाद छोड़े और उन्हें लगभग पूर्ववत संचालित होने दिया.

प्राकृतिक आपदा से बचना कितना भी अनिवार्य क्यों ना हो, उसे एक सामाजिक आपदा की वजह नहीं बनने दिया जा सकता. वैसे तो महामारी के खिलाफ सरकारों के हस्तक्षेप के कारण दुनिया के कई देश आपूर्ति और मांग संबंधी व्यवधानों से जूझ रहे हैं, लेकिन भारत की कार्रवाई दुनिया में शायद सबसे सख्त है और उसके परिणाम शायद सर्वाधिक बुरे. मोदी सरकार को अब चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटना चाहिए जिसके निर्माण में अंशत: उसके खुद के गुरूर की भूमिका है.

सरकार के कार्यों ने पूरे समाज को यातनापूर्ण जीवन जीने के लिए, अराजकता और अधिनायकवाद के बीच पिसने के लिए छोड़ दिया है, भले ही उसके उद्देश्य सही रहे हों.

क्या हम सही सवाल कर रहे हैं?

महामारी केवल जवाब ही नहीं मांगती, बल्कि एक सवाल भी उठाती है- वास्तव में सार्वजनिक स्वास्थ्य क्या है? गहरी अनिश्चितता के बीच समझदारी भरा निर्णय लेने के लिए निर्णायकता भर ही पर्याप्त नहीं होती है. इसके लिए मुश्किल विकल्पों के तर्कसंगत मूल्यांकन की दरकार होती है. और एक लोकतंत्र में, कदम उठाए जाने के पहले और उसके बाद, विभिन्न सामाजिक दृष्टियों से उसे न्यायोचित ठहराने के प्रयासों की भी आवश्यकता होती है.

बीमारी की प्रवृति चाहे जो भी हो, ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि जनता के नाम पर चुने गए विकल्प क्या उनके लिए, जिनमें सर्वाधिक कमजोर लोग भी शामिल हैं, न्यायोचित है.

महामारी एक दुर्लभ घटना होती है जिसके लिए, लोकतंत्र में भी, एक मजबूत सरकार की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यह उसकी संभावित कमजोरियों को भी सामने लाने का काम करती है. संकट के प्रत्येक चरण में एक सुसंगत, तर्कपूर्ण और ठोस सार्वजनिक बहस होनी चाहिए.

(लेखक न्यूयॉर्क स्थित न्यू स्कूल फॉर सोशल रिसर्च में अर्थशास्त्री हैं. उन्हें @sanjaygreddy पर फॉलो किया जा सकता है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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