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ब्राह्मण तुष्टिकरण में बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाएगी बीएसपी और कांग्रेस

इन दिनों यूपी में ब्राह्मण और ठाकुर आपसे में टकरा रहे हैं. सत्ता का अधिकतम लाभ पाने के लिए दोनों समुदायों में होड़ मची है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इनमें से कोई बीजेपी को छोड़ देगा.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती। दिप्रिंट टीम

कानपुर के अपराधी विकास दुबे की ‘पुलिस मुठभेड़’ में हुई मौत के बाद से बीएसपी अध्यक्ष मायावती और कांग्रेस के नेता जितिन प्रसाद ब्राह्मण वोटबैंक की तरफ बेहद उम्मीद से देख रहे हैं. मानो ब्राह्मण वोट बैंक पेड़ से गिर चुका या गिरने को तैयार कोई फल है, जिसे उठा लिया जा सकता है. दोनों नेताओं ने जिस तरह ब्राह्मणों को लक्ष्य करके उन्हें लुभाने की कोशिश की, वह दिलचस्प है. संभवत: इन नेताओं का गणित ये है कि ब्राह्मण गैंगस्टर विकास दुबे की मौत से ब्राह्मणों का योगी सरकार से मोहभंग हो गया है और वे इस समय पाला बदल सकते हैं या इस बारे में सोच सकते हैं.

लेकिन ऐसा शायद नहीं होगा. यूपी के ब्राह्मणों ने कांग्रेस के पतन के बाद लगभग 25 साल तक राजनीतिक रूप से अनाथ रहने और कभी यहां तो कभी वहां भटकने के बाद 2014 में बीजेपी में अपना ठिकाना तलाश लिया है. उनके पास फिलहाल ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे बीजेपी को छोड़कर किसी और पार्टी का दामन थाम लें. ये आलेख इस मान्यता के साथ लिखा गया है कि ब्राह्मणों के एक हिस्से में बीजेपी से क्षणिक नाराजगी हो सकती है, लेकिन नाराजगी का स्तर ऐसा नहीं है कि किसी के लुभाने भर से वे उनके पीछे चल दें.

ब्राह्मण तुष्टिकरण की कोशिश

विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत के दो दिन बाद मायावती ने ट्वीट करके ब्राह्मण उत्पीड़न की बात की और सरकार को आगाह किया कि ब्राह्मण समुदाय को डराया न जाए. उनके ट्वीट का भावार्थ ये है कि बीएसपी मुसीबत की इस घड़ी में ब्राह्मणों के साथ है.

दूसरी तरफ, लगभग ऐसा ही राग कांग्रेस के ब्राह्मण नेता जितिन प्रसाद ने छेड़ रखा है. हालांकि वे कुछ अजूबा नहीं कर रहे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व और महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा भी यूपी में ब्राह्मणों को कांग्रेस के पाले में लाने की कोशिश कर चुकी हैं. जितिन प्रसाद ने ब्राह्मण चेतना परिषद नाम का एक संगठन बनाया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि ‘यूपी में सबसे ज्यादा हत्याएं ब्राह्मणों की हो रही हैं.’

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ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश नई नहीं

बीएसपी और कांग्रेस काफी समय से खासकर यूपी में ब्राह्मणों को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही हैं. राहुल गांधी ने तो इस चक्कर में खुद को कौल ब्राह्मण बता दिया और ये भी पता लगा लिया कि वे दत्तात्रेय गोत्र के हैं. वैसे भी, ब्राह्मण बेशक कांग्रेस से अब पंडित नेहरू, गोविंद वल्लभ पंत, इंदिरा गांधी या नरसिम्हा राव के जमाने की तरह जुड़े हुए नहीं है, फिर भी कांग्रेस का पुराना सांगठनिक ढांचा बरकरार है, जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम है.


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बीएसपी तो यूपी में ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए अपने संगठन के जन्मकाल के नारे बहुजन हिताय को बदलकर सर्वजन हिताय तक कर चुकी है. ये मामूली बात नहीं है कि बीएसपी का लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में नेता ब्राह्मण है. किसी भी और राष्ट्रीय पार्टी ने पिछले कुछ दशकों में ऐसा किया हो, ये मेरे संज्ञान में नहीं है. 2007 में जब यूपी में बीएसपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी, तो ब्राह्मण समुदाय के सबसे ज्यादा सात कैबिनेट मंत्री बने. बीएसपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बाकी दलों की तुलना में सबसे ज्यादा ब्राह्मण कैंडिडेट चुनाव में उतारे. ये बात और है कि उनमें से एक रितेश पांडे को छोड़कर कोई जीत नहीं पाया. ये जीत भी उस आंबेडकरनगर नगर सीट पर हुई जो दलित बहुल है और ब्राह्मणों की आबादी इस इलाके में कम है.

ब्राह्मणों को क्यों पसंद आने लगी बीजेपी?

ब्राह्मणों को लुभाने की तमाम कोशिशों के बावजूद बीएसपी या कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण वोट बैंक में सेंध नहीं लगा पाई हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान के बाद सर्वेक्षण में लोकनीति-सीएसडीएस ने पाया कि 80 प्रतिशत से भी ज्यादा ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया. यूपी की दूसरी प्रमुख सवर्ण जाति ठाकुरों का वोटिंग व्यवहार भी इसी तरह का है. 2014 के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है, जो 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा. सवर्ण बीजेपी के कोर वोटर हैं, जिनकी बुनियाद पर बीजेपी बाकी जातियों और समुदायों को जोड़ती है. ब्राह्मण वोटर 2014 के बाद से लगातार बीजेपी के प्रति वफादार बना हुआ है.

ब्राह्मणों की ऐसी वफादारी आजादी के बाद कांग्रेस को हासिल थी. लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक में ब्राह्मणों का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा. राजनीति विज्ञानी अरविंद कुमार इसकी पांच वजहें बताते हैं: 1. मंडल कमीशन की रिपोर्ट का लागू होना और सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में सवर्ण और ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती; 2. कश्मीरी पंडितों का पलायन; 3. शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटने की सरकार का पहल और तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण का नया अध्याय; 4. दलितों और पिछड़ों की विचारधारात्मक राजनीति का उभार और कांशीराम, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं का उदय; और 5. टेलीविजन पर हिंदू धर्म से जुड़े धारावाहिकों का प्रसारण और धार्मिकता का उफान.

इस पूरे दौर में उत्तर भारत के ब्राह्मण कांग्रेस से दूर होते चले गए और उन्होंने कभी इस तो कभी उस पार्टी में ठिकाना तलाशा. कई प्रयोगों के बाद आखिरकार उन्होंने 2014 में बीजेपी को अपना लिया.

ये तो नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी ब्राह्मणों का स्थायी ठिकाना बन चुकी है. कोई भी गतिशील जाति किसी एक पार्टी से गर्भनाल का संबंध नहीं बनाती है. लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी ने ब्राह्मणों को लंबे समय तक जोड़े रखने की रणनीति बना ली है.

बीजेपी की ब्राह्मण राजनीति

बीजेपी ब्राह्मणों की चिंताओं और उनसे जुड़े मुद्दों पर लगातार काम कर रही है. मिसाल के तौर पर, बीजेपी लगातार संदेश दे रही है कि उसके राज में मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं होगा. ये बात और है कि कांग्रेस और सेकुलर पार्टियों के लंबे समय तक चले राज में मुसलमानों की जिंदगी में कोई सुधार नहीं हुआ था और ये बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सामने आई है. बीजेपी ने आगे बढ़कर मुसलमानों के मन में असुरक्षा का भाव पैदा कर दिया है. सीएए और एनआरसी से मुसलमानों के एक हिस्से में डर पैदा हुआ है कि उनकी नागरिकता पर सवाल उठ सकते हैं. ये काम तो कानून के रास्ते से हुआ है. लेकिन संघ परिवार से वैचारिक जुड़ाव रखने वाले संगठन मॉब लिंचिंग से लेकर मुसलमान कारोबारियों के बहिष्कार और तथाकथित लव जिहाद का विरोध से लेकर सोशल मीडिया पर मुसलमानों को निशाना बनाने तक कई तरह से सक्रिय हैं.


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जम्मू-कश्मीर के मामले में बीजेपी ने निर्णायक पहल की है और वहां मुसलमानों के दबदबे को चुनौती दी गई है. अनुच्छेद 370 निरस्त किया जा चुका है और जम्मू-कश्मीर को बांट दिया गया है. इस तरह कश्मीरी पंडितों और ब्राह्मणों के आहत मन पर मरहम लगाने की कोशिश की गई है.

सामाजिक पिछड़ेपन पर आधारित आरक्षण निशाने पर

बीजेपी का कोर वोटर मन से आरक्षण विरोधी है. उसकी मान्यता है कि ब्राह्मण वर्चस्व वाली प्राचीन समाज व्यवस्था को फिर से कायम करने के लिए आरक्षण को खत्म या कमजोर करना जरूरी है. बीजेपी टुकड़े-टुकड़े में ये काम कर रही है. संविधान के मूल स्वरूप में आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी. गरीबी के नाम पर सवर्णों को आरक्षण देने के लिए बीजेपी ने 48 घंटे से भी कम समय में संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में संशोधन करके ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू कर दिया. बेशक कांग्रेस और बीएसपी ने इसका स्वागत और समर्थन किया, लेकिन इससे लाभान्वित होने वाले जानते हैं कि ये काम कांग्रेस या बीएसपी कभी नहीं करती.

नरेंद्र मोदी की सरकार बड़े पैमाने पर लैटरल एंट्री के जरिए नौकरशाही में अफसरों की भर्ती कर रही है. इन भर्तियों में किसी भी तरह का आरक्षण नहीं है. इससे भी कुल पदों के साथ साथ आरक्षित पदों संख्या में कमी आएगी. इसके अलावा सरकार ने नौकरशाही, निगमों और पीएसयू आदि के उच्च पदों पर बड़ी संख्या में ब्राह्मणों की नियुक्ति की है.

कांग्रेस और बीएसपी की सीमाएं

बीजेपी जितना आगे बढ़कर ब्राह्मणों का तुष्टिकरण कर रही है, वह कर पाना कांग्रेस और बीएसपी के लिए संभव नहीं है. बीजेपी ने धार्मिकता और मुस्लिम विरोध के नाम पर अपने बाकी वोट को जोड़े रखा है और इसकी वजह से उसके लिए हदों से बढ़कर ब्राह्मण हित में काम करना संभव हो पा रहा है. जबकि कांग्रेस और बीएसपी को अपने कोर वोट की भी चिंता सताती है. कांग्रेस को दलित-मुस्लम वोट और बीएसपी को दलित वोट को बचाए रखने के लिए भी सोचना पड़ता है. ये बात उन्हें एक सीमा से बढ़कर ब्राह्मण तुष्टिकरण करने से रोकती है. अगर ये दल एक सीमा से आगे बढ़कर ब्राह्मणों के लिए काम करेंगे तो इनका कोर वोट खिसक सकता है. बीएसपी की एक और समस्या ये है कि उसके कार्यकर्ताओं की पुरानी ट्रेनिंग ब्राह्मणवाद के विरोध की है.

इसके अलावा एक अहम बात ये भी है कि बीएसपी जैसी पार्टियों में शीर्ष पद पर ब्राह्मण नहीं हो सकते. वहां ब्राह्मणों को अपने से ‘नीची जाति’ के अधीन में काम करना पड़ता है. ये ब्राह्मणों की मनपसंद स्थिति नहीं है. इस मामले में आरएसएस-बीजेपी ही ब्राह्मणों का असली घर है, जिसकी संरचना सनातन हिंदू समाज व्यवस्था से मिलती-जुलती है.

ये जरूर है कि इन दिनों यूपी में ब्राह्मण और ठाकुर आपसे में टकरा रहे हैं. सत्ता का लाभ पाने के लिए दोनों समुदायों में होड़ मची है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इनमें से कोई बीजेपी को छोड़ देगा. बल्कि इस बात के आसार ज्यादा हैं कि बीजेपी इन दोनों को जोड़े रखने में सफल होगी. दोनों को मुसलमानों का भय दिखाया जाएगा और साथ में कहा जाएगा कि बीजेपी ही दलितों और ओबीसी को काबू में रख सकती है.

ऐसे में कांग्रेस और बीएसपी के लिए उचित होगा कि वे ब्राह्मण वोट बैंक की तरफ ललचाई नजरों से देखना बंद कर दें.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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