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बर्तन धोने से पहले जो दिल बैठ जाता है, भूलिए उसे अब डिशवॉशर इससे आपको निजात दिलाने आ गया है

महामारी हमें जीवन में एक बेहतर संतुलन पर पहुंचने के मौक़े दे रही है. डिशवॉशर्स और दूसरे बहुत से घरेलू उपकरण लोगों को ज़्यादा प्रोडक्टिव बना रहे हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर : रसोई में एक डिशवॉशर | फोटो: फ़्लिकर

पिछले दो महीनों में तेज़ी से बढ़ी बिक्री के बाद, बहुत से शहरों में डिशवॉशर्स की सप्लाई कम हो गई है. कुछ प्रतिष्ठित ब्राण्ड्स के लिए तो दो महीने तक इंतज़ार करना पड़ रहा है. सुपर मार्केट्स और ऑनलाइन रिटोलर्स के पास से डिशवॉशर डिटर्जेंट्स भी ग़ायब हो गए हैं. कोविड-19 महामारी से भारत में, डिशवॉशर्स के भी दिन फिर गए हैं. अगर इससे आगे चलकर भारत के घरों में डिशवॉशर्स ज़्यादा इस्तेमाल होने लगें, तो भारतीय समाज के लिए ये एक अच्छी चीज़ होगी.

समझना आसान है कि डिशवॉशर्स की मांग अचानक क्यों बढ़ गई है. लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के चलते, घर में पकाए और खाए जाने वाले खानों की संख्या भी बढ़ गई है. साथ ही घरेलू वर्कर्स की सुविधा भी सीमित हो गई है. घर पर खाना पकाने और खाने के अतिरिक्त बोझ ने, किचन सिंक के आस-पास गंदे बर्तनों का ढेर लगा दिया है. बहुत से लोगों की समझ में आ गया है कि सिर्फ सिंक के पास छोड़ देने से बर्तन साफ नहीं हो जाते- किसी को उन्हें धोना पड़ता है. अगर गिरते हुए सेब को देखकर न्यूटन के दिमाग़ में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का विचार जाग उठा था तो हो सकता है कि बिना धुले बर्तन देखकर ही. उन्होंने गति का अपना पहला नियम या एमिली दु शेतलेत ने ऊर्जा संरक्षण के नियम का विचार पेश किया हो.

डिशवॉशर है नई वॉशिंग मशीन

ये देखते हुए कि दूसरे बहुत से देशों के मुक़ाबले भारत के पुरुष सबसे कम घरेलू काम करने के लिए बदनाम हैं. घर की महिलाओं को उससे भी अधिक बर्तन धोने पड़ रहे हैं, जितने वो पहले धो रहीं थीं. उन घरों में भी जहां मर्द घर के काम में हाथ बटाते हैं, महिलाओं के हिस्से में हमेशा ज़्यादा काम आता है.


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जैसा कि मैंने एक पिछले कॉलम में लिखा था, वर्क फ्रॉम होम में ख़तरा ये रहता है कि ‘काम में महिलाओं का प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है, जिसका संबंध उनकी टेलंट या उनके प्रयासों से नहीं होता. बल्कि अपने प्रोफेशनल काम के अलावा, उन्हें घर में भी ज़्यादा काम करना पड़ता है.’

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स्वीडिश फिज़ीशियन और डेटा एनलिस्ट, हैंस रॉसलिंग बिल्कुल सही थे, जब उन्होंने वॉशिंग मशीन को औद्योगिक क्रांति का सबसे महान अविष्कार क़रार दिया. वो कहते हैं कि इसने महिलाओं को न सिर्फ कठिन कामों से मुक्त कर दिया, बल्कि इससे उनके और उनके बच्चों के दिमाग़ को विकसित होने में भी मदद मिली. यही बात डिशवॉशर और उन सभी उपकरणों के लिए भी सही है, जो लोगों को कमरतोड़ काम से निजात दिलाते हैं.

सिर्फ यही एक वजह नहीं है कि डिशवॉशर का अधिक इस्तेमाल समाज के लिए अच्छा है. डिश वॉशिंग मशीन सिर्फ हाथ से बर्तन धोने का विकल्प नहीं है, बल्कि ये इस काम को बेहतर ढंग से करती है. इसमें पानी कम लगता है और इसका कार्बन फुटप्रिंट भी कम हो सकता है. नहीं, मैं कोई डिशवॉशर सेल्समेन नहीं हूं, ना ही ये लिखने के लिए मुझे इंडस्ट्री से कुछ पैसा मिला है. मैं इसे अपने निजी अनुभव, पत्नी की मंज़ूरी और प्रयोगसिद्ध सुबूतों के आधार पर लिख रहा हूं.

नहीं, इससे किसी का काम नहीं छिनेगा

इस समय मैं अंदाज़ा लगा सकता हूं कि आप क्या सोच रहे होंगे. क्या इससे उन लाखों इंसानों का रोज़गार नहीं छिनेगा, जो घरेलू वर्कर्स के तौर पर काम करते हैं? वास्तव में इसकी संभावना नहीं है. असल में, इसकी वजह से ज़्यादा लोगों को घरेलू सेवाओं में रोज़गार मिल सकता है. वॉशिंग मशीन्स रखने वाले घरों की संख्या में इज़ाफे के साथ, घरों में काम करने वाले लोगों की संख्या में भी बढ़ोतरी देखी गई. स्पष्ट है कि आर्थिक विकास ने वॉशिंग मशीन्स और घरेलू वर्कर्स दोनों की मांग पैदा कर दी. कपड़ों को हाथ से धोने की बजाय घरेलू वर्कर अब शायद उन्हें मशीन में लोड करते हैं, सूखने के लिए बाहर डालते हैं फिर तय करके कबर्ड में रखते हैं और बाक़ी समय में घर के दूसरे काम करते हैं. इसी तरह, डिशवॉशर्स भी भारत में निकट भविष्य में घरेलू वर्कर की जगह नहीं लेंगी, क्योंकि बहुत से काम ऐसे हैं, जो मशीनें नहीं कर सकतीं.

भारत में ये क्यों नहीं चलतीं

ये एक दिलचस्प सवाल है कि भारत में डिशवॉशर की मांग अभी तक कम क्यों रही है. लॉकडाउन से पहले, एक प्रतिशत से भी कम घरों में डिशवॉशर मौजूद थे. पिछले जुलाई की इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘डिशवॉशर निर्माताओं का अनुमान है कि ये मार्केट 140 से 200 करोड़ रुपए के बीच का है. इसके विपरीत भारत में एयरकंडीशनर का बाज़ार कॉरीब 20,000 करोड़ रुपए, रेफ्रीजरेटर का 21,000 करोड़ और वॉशिंग मशीन्स का बाज़ार क़रीब 8,000 करोड़ का होगा.’


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घरेलू वर्कर को काम पर लगाना यक़ीनन सस्ता पड़ता है. लेकिन ख़ुद से करना सस्ता नहीं है. एक मशीन जिसकी ख़रीद लागत 30,000 रुपए और चलाने की लागत 500 रुपए महीना आती है. उसका ख़र्च क़रीब 33 रुपए रोज़ाना बैठता है (मशीन के 5 साल के जीवन में). उन लोगों को छोड़ दें जिन्हें इस काम में मज़ा आता है, तो जो लोग दिन का एक घंटा बर्तन धोने में बिताते हैं, अपने ख़ाली समय की कम क़ीमत लगा रहे हैं.

या, वो घर में किसी और को ये काम देकर अपने ख़ाली समय का मज़ा ले रहे हैं. लेकिन लॉकडाउन में लोगों को वास्तव में अहसास हो रहा है कि उनके समय की अस्ली आर्थिक क़ीमत क्या है और भी कारण हैं जिनकी वजह से डिशवॉशर्स मध्यवर्गीय घरों में आम नहीं हैं: घरों के साइज़ और डिज़ाइन इसकी इजाज़त नहीं देते, बिजली और पाइप का पानी अविश्वसनीय हो सकते हैं और सामाजिक सबूत भी नहीं है कि ‘मेरे दोस्तों के पास ये है.’

मैंने ये दलील भी सुनी है कि ये ‘इंडियन कुकिंग के साथ नहीं चलेंगी’, जिसमें इस बात को नज़रअंदाज़ किया गया है कि बहुत से निर्माता अपने डिज़ाइन्स को स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बना लेते हैं.

जैसा कि मैंने पहले दलील दी थी महामारी हमें जीवन में एक बेहतर संतुलन पर पहुंचने के मौक़े दे रही है. डिशवॉशर्स और बहुत से दूसरे घरेलू उपकरण, उन घरों को जो उन्हें वहन कर सकते हैं, ज़्यादा प्रोडक्टिव होने का मौक़ा देते हैं और उन्हें आराम और मनोरंजन के लिए ज़्यादा समय मिल जाता है. इससे वो जो अतिरिक्त आर्थिक लाभ पैदा करेंगे, उससे समाज में सबको फायदा पहुंचेगा.

स्तंभकार शोभा डे ने एक बार लिखा था कि उन्हें घरेलू इंसानी हेल्पर ज़्यादा पसंद हैं क्योंकि ‘एक डिशवॉशर मुझे ईद मुबारक या हैप्पी दिवाली नहीं कहेगा…डिशवॉशर मुझे सुबह उठते ही सामयिक विषयों पर एक समझदार और व्यवहारिक कमेंट्री नहीं देगा.’

इस बात को 18 साल बीत चुके हैं. आज के स्मार्ट डिसवॉशर्स इंटरनेट कनेक्शंस और स्मार्टफोन एप के साथ आते हैं. वो आपको जल्द ही गप-शप के नेटवर्क्स और सामयिक विषयों पर कमेंट्री से जोड़ सकते हैं. वो कितनी समझदार और व्यवहारिक होगी, मैं आश्वस्त नहीं हूं.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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