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35 असफल मिशन के बाद भी आखिर क्यों जारी है 1960 से मंगल पर जीवन की खोज

मंगल के अंदर प्रीबायोटिक कंडीशंस या जीवन के विकास से पहले की स्थितियों के अबाधित सबूत मौजूद हो सकते हैं, भले ही वहां जीवन विकसित हुआ हो या नहीं.

पर्सीवियरेंस रोवर द्वारा कैप्चर की गई मंगल ग्रह की सतह । क्रेडिटः नासा/जेपीएल-कैलटेक/एएस

बेंगलुरू: अकेले पिछले एक महीने में, पहले के जीवन के निशान तलाशने के लिए, पृथ्वी से तीन मिशन मंगल ग्रह पहुंच गए हैं- यूएई का पहला अंतर्ग्रहीय मिशन दि होप ऑर्बिटर, चीन का पहला मंगल मिशन तियानवेन-1 ऑर्बिटर, और अमेरिका का पर्सीवियरेंस रोवर.

ये मिशन, जैसा कि मंगल के सभी मिशंस के साथ होता है, बुनियादी रूप से खगोल-जीवविज्ञानी (ऐस्ट्रोबायोलॉजिकल) नेचर के होते हैं, और इनका लक्ष्य पिछले जीवन के निशान खोजने, इसके रहने लायक़ होने, और ग्रह के पृथ्वी-जैसी स्थितियों से, आज के ठंडे रेगिस्तान तक, विकसित होने का अध्ययन करना है.

1960 के दशक से आज तक, कुल 49 मिशन मंगल तक भेजे जा चुके हैं, और उनमें से लगभग 35 नाकाम रहे हैं. फिर भी मंगल ग्रह के लिए मिशंस लगातार बन रहे हैं, क्योंकि इसके भीतर से हमारे वजूद और विकास के बारे में, जो जानकारी अभी निकाली जानी बाक़ी है, वो बहुत विस्तृत है.

इस ग्रह के लिए मिशंस हर दो साल बाद लॉन्च किए जाते हैं, क्योंकि एक समय अवधि होती है, जिसे लॉन्च विण्डो या लॉन्च पीरियड कहा जाता है. लॉन्च किए जाने के बाद, ये मिशंस कुछ महीने बाद मंगल पर उतरते हैं.

मसलन, तीनों मिशन जिनका पहले उल्लेख किया गया, जुलाई 2020 में लॉन्च किए गए थे, और वो इस साल फरवरी में ग्रह पर पहुंचे.

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क्या होती है लॉन्च विंडो?

किसी भी अंतरिक्ष यान को लॉन्च करते समय, बुनियादी लक्ष्य ये होता है कि कम से कम ईंधन इस्तेमाल करते हुए, वो अपने लक्षित ठिकाने पर पहुंच जाए. ऐसे में लॉन्च का आदर्श समय वह होता है, जब कोई लॉन्च विण्डो खुलती है, जैसा कि नीचे समझाया गया है.

ये सुनिश्चित करने के लिए, कि कोई मिशन अपनी मंज़िल तक पहुंच जाए, होहमैन ट्रांसफर ऑर्बिट नामक उड़ान पथ पर चला जाता है. ये ऑर्बिट सूर्य के चारों ओर होता है, और इसका आकार अंडाकार होता है, जैसा कि ग्रहों की परिक्रमा होती है, और इस अंडाकार का फोकस सूर्य होता है.

लॉन्च तब होता है जब पृथ्वी, ऑर्बिट में सूर्य के सबसे क़रीब होती है, और अराइवल तब होता है जब अंतरिक्ष यान, आधी परिक्रमा पूरी करने के बाद, सूर्य से सबसे दूर के बिंदु पर मंगल से मिलता है.

ये एक सबसे ऊर्जा-कुशल मार्ग है जो कोई अंतरिक्ष यान ले सकता है, और मंगल पर लॉन्च करने के लिए, इंजीनियर्स हमेशा होहमैन ट्रांसफर ऑर्बिट के, विविध रूप का इस्तेमाल करते हैं.

लॉन्च का सबसे अच्छा समय, जब अंतरिक्ष यान को मंगल तक पहुंचने में सबसे कम समय लगेगा, हर 26 महीने या 780 दिनों के बाद आता है, क्योंकि दोनों ग्रहों की परिक्रमा की नेचर अलग होती है- पृथ्वी को सूरज का चक्कर पूरा करने में 365 दिन लगते हैं, जबकि मंगल को 687 दिन लगते हैं.

इसलिए अंतरिक्ष यान 26 महीने के अंतराल के साथ लॉन्च किए जाते हैं- मंगलयान और मावेन नवंबर 2013 में, एक्सोमार्स मार्च 2016 में, इनसाइट मई 2018 में, और सबसे ताज़ा तीन मिशंस, जुलाई 2020 में लॉन्च हुए थे.

यही कारण है कि होप मिशन, तियानवेन-1, और पर्सीवियरेंस, एक ही महीने में लॉन्च हुए, और तीनों एक ही महीने में मंगल पर पहुंचे भी. लॉन्च के लिए अगला सबसे अच्छा समय, सितंबर 2022 में आएगा.

लॉन्च के इस समय को लॉन्च पीरियड कहा जाता है, जिसे अकसर लॉन्च विण्डो भी कहा जाता है. लॉन्च विण्डो तकनीकी रूप से, लॉन्च पीरियड के दौरान दिन का वो समय होता है, जब अंतरिक्ष यान को ज़मीन से लॉन्च करना होता है.


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मंगल ग्रह के बारे में

मंगल को भेजे जाने वाले मिशंस आमतौर पर, खगोल-जीवविज्ञानी या भूविज्ञानी नेचर के होते हैं. इसका कारण ये माना जाता है, कि इस ग्रह में पृथ्वी जैसी ही स्थितियां रही हैं, जिसका मतलब है कि ये कभी अतीत में- अरबों साल पहले- जीवन के रहने लायक़ रहा होगा.

इसके अलावा, चूंकि प्लैनेट के इतिहास में प्लेट टेक्टॉनिक्स ने, बहुत पहले ही हरकत करना बंद कर दिया था, इसलिए मंगल की सतह का दो-तिहाई हिस्सा, 3.5 अरब साल से भी पुराना है.

इस प्रकार, मंगल के अंदर प्रीबायोटिक कंडीशंस, या जीवन के विकास से पहले की स्थितियों के, अबाधित सबूत मौजूद हो सकते हैं, भले ही वहां जीवन विकसित हुआ हो या नहीं.

ये विशेष रूप से अहम है, अगर आप देखें कि मंगल, भू-वैज्ञानिक रूप से पृथ्वी से पुराना है, हालांकि दोनों ग्रह एक ही पदार्थ से बने थे, और एक दूसरे के क़रीब भी हैं.

मंगल 4.6 अरब साल पहले वजूद में आया था, जबकि 4.5 अरब साल पहले बनी थी. इसलिए अतीत में अगर मंगल पर जीवन था, तो वो संभवत: 4.48 साल पहले विकसित होना शुरू हो गया होगा, तक़रीबन उसी समय जब पृथ्वी पर शुरू हुआ, हालांकि ज़मीन पर जीवन के प्रत्यक्ष प्रमाण, केवल 3.7 अरब साल पहले के ही हैं.

आज, मंगल एक ठंडा, सूखा रेगिस्तान है, जिसका औसत सतही तापमान -63 डिग्री सेल्सियस है, और जो सूरज के रेडिएशन में नहाया हुआ है, चूंकि उसका अपना कोई वातावरण नहीं है.

ऐसा इसलिए है कि चुंबकीय क्षेत्र खो देने के बाद, प्लैनेट ने एक धीमी प्रक्रिया के तहत अपना वातावरण भी खो दिया, जिसे जीन्स एस्केप कहते हैं- जब सौर वायु (सूर्य के आयनिक कण) ने इसके वातावरण को ख़त्म करना शुरू कर दिया, और इसके कम गुरुत्वाकर्क्षण (ज़मीन के एक तिहाई) की वजह से, गैसें अलग होकर स्पेस में जाने लगीं.

आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी की वजह से, ग्रह की सतह लाल रंग की होती है, और इसमें सल्फर और क्लोरीन जैसे, अन्य वाष्पशील पदार्थ या तत्व होते हैं, जो तुरंत भाप बन जाते हैं. ज्वालामुखी गतिविधि की वजह से, मैगमा से सतह पर चट्टानें बन गईं. उसके बाद से ग्रह पर ये गतिविधि बंद हो गई है.

ये प्लैनेट अब बहुत से लुप्त अथवा निष्क्रिय ज्वालामुखियों का आवास है, जिनमें एक ऑलिम्पस मॉन्स है, जो सौर मंडल का सबसे ऊंचा ज्वालामुखी है.

मंगल पर दो चांद भी हैं, फोबोस और डेमोस, जो अनियमित आकार के हैं.

अंदर से, मंगल पृथ्वी की तरह ही है. इसके अंदर के हिस्से अलग अलग हैं, जिसका मतलब है कि एक केंद्रीय भाग है, एक आवरण है, और एक ऊपरी सतह है. केंद्रीय भाग यानि कोर, आयरन और निकल से बना है, और कम से कम एक बाहरी कोर है, जो तरल है.

पृथ्वी का तरल कोर घूमता है, और एक भू-गतिकीय प्रभाव पैदा करता है, जिससे हमारे ग्रह के चारों ओर, एक सुरक्षात्मक चुंबकीय क्षेत्र बन जाता है. लेकिन, मार्शियन कोर, जो आकार में कहीं छोटा होता है, तेज़ी से ठंडा हो गया, और ये इतना धीमे घूम रहा है कि ये अपने पिछले सुरक्षात्मक चुंबकीय क्षेत्र को बनाए नहीं रख पा रहा है.

वातावरण और चुंबकीय क्षेत्र के न होने की वजह से, प्लैनेट ने अपने सुरक्षात्मक गुण खो दिए हैं, और माना जाता है कि अगर इसमें, पहले कोई जीवन रहा भी होगा, तो वो ख़त्म हो गया. लेकिन एक बहुत दूर की संभावना हो सकती है, कि सतह के नीचे के पानी या झीलों में, काफी नीचे की ओर सूक्ष्म जीवन मौजूद हो सकता है.

चूंकि मंगल की सतह पर वायुमंडलीय दबाव, पृथ्वी के दबाव का सिर्फ 1 प्रतिशत है, इसलिए इसकी सतह पर पानी, तरल रूप में नहीं रह सकता. लेकिन साल के सबसे गर्म महीनों में, कुछ क्षेत्रों में खारा पानी बहता है, चूंकि वो पानी के जमाव बिंदु के नीचे भी, तरल रूप में रह सकता है.

मंगल के दो स्थायी पोलर आईस कैप्स, पानी के बर्फ और कार्बन डाई ऑक्साइड बर्फ या सूखे बर्फ दोनों से बने हैं.


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अतीत में मंगल

खगोल-जीवविज्ञानी रूप से कहें, तो वैज्ञानिक जितने तरल पानी से उत्साहित होते हैं, उतने और किसी से नहीं होते, और इसके पीछे कारण है. ऐसा माना जाता है कि ये जीवन का, एक महत्वपूर्ण और आवश्यक अंग है.

तरल होने की वजह से पानी, रसायनिक प्रतिक्रिया के लिए ज़रूरी सामग्री को, इधर उधर ले जा सकता है, और पोषक तत्व भी इसमें बह सकते हैं. ये तापमान और दबाव की एक व्यापक रेंज के बीच, तरल बना रहता है और एक सार्वभौमिक विलायक का काम करता है- ये किसी भी दूसरे तरल से ज़्यादा पदार्थ घोल लेता है.

जलाशयों के अंदर जब पानी जमता है, तो ये सिर्फ ऊपरी परत होती है जो जमती है (चूंकि बर्फ तैरता है), उसके नीचे का तरल गर्म बना रहता है, जिससे उसमें रहने लायक़ स्थितियां बनी रहती हैं. इसी ने कई हिम युगों के दौरान, ज़मीन पर जीवन को संरक्षित और सक्षम रखा है, जिसमें समुद्री प्राणिजात बचे रहे हैं.

जूपिटर के यूरोपा और सैटर्न के एंकेलेडस जैसे चंद्रमाओं पर, सतह के नीचे तरल पानी की मौजूदगी के कारण ही, इन बॉडीज़ को लेकर अत्याधिक जिज्ञासा है, और भविष्य में इन तक पहुंचने के लिए मिशंस की योजनाएं हैं.

पानी की भूमिगत झीलें मंगल पर भी खोजी गई हैं, जिनके अंदर अन्वेषण की संभावनाएं छिपी हुई हैं.

माना जाता है कि अतीत में मंगल की सतह पर, तरल पानी मौजूद रहा था, जिसके सबूत मंगल की मिट्टी पर, समतल मैदान तथा बहाव के चैनल्स जैसी, सतही बनावटों से मिलते हैं, जो सिर्फ बहते पानी से ही ऐसी शक्ल में आ सकते थे.

ग्रह पर ऐसी बहुत सी जगहें हैं, जहां पहले कभी पानी मौजूद था, जिनमें एक गेल क्रेटर है, जिसपर क्यूरियॉसिटी खोज कर रहा है, और एक जेज़ेरो क्रेटर है, जहां फिलहाल पर्सीवियरेंस स्थित है.

मंगल पर सतह के नीचे ऑर्गेनिक कंपाउण्ड्स भी हैं, जो काफी हद तक ज़मीन की मिट्टी में पाए जाने वाले अणुओं की तरह होते हैं.

इसके अलावा पिछले मिशंस ने, मौसमी तौर पर वातावरण में मिथेन की मौजूदगी की भी पुष्टि की है, जो संभवत: बर्फ में फंसी रहती है, और गर्मियों में बाहर निकलती है, ठीक वैसे ही, जैसे रूस के साइबेरियन पर्माफ्रॉस्ट में निकलती है.

मिथेन या तो जैविक प्रक्रियाओं (सूक्ष्म जीवन और ज़मीन के बड़े पौधों तथा जानवरों), या भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से निकलती है, और मंगल को जितना हम समझते हैं, ये दोनों ही फिलहाल वहां मौजूद नहीं हैं.

ज़रूरी नहीं है कि गैस अतीत में रहे जीवन का वास्तविक सबूत हो, लेकिन ये शुरूआती मंगल का ज्ञान ज़रूर देती है, जो गर्म था, जिसका वातावरण तापमान को नियंत्रित करने वाला था, जो जैविक युक्त था, और जिसकी सतह पर पानी बहता था- और ये सब पृथ्वी से मिलता-जुलता है.

हालांकि मंगल भूविज्ञानिक रूप से सक्रिय नहीं है, और यहां मैगमा या प्लेट टेक्टॉनिक्स का कोई बहाव नहीं है, लेकिन भूकंपीय रूप से ये अभी भी सक्रिय है, जहां रहस्यमयी कंपन आते रहते हैं, जो शायद इसलिए आते हैं, कि ठंडा होने और नाज़ुक ऊपरी परत के टूटने से, ग्रह सिकुड़ रहा है.


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मौजूदा मंगल मिशंस और उनके उद्देश्य

ग्रह पर फिलहाल दो रोवर्स सक्रिय हैं, और ये दोनों नासा से हैं- क्यूरियॉसिटी और पर्सीवियरेंस.

क्यूरियॉसिटी फिलहाल गेल क्रेटर की खोज कर रहा, एक प्राचीन झील का तल, जिसकी चट्टानों में जल प्रवाह के रिकॉर्ड्स दर्ज हैं. रोवर इस इलाक़े की जलवायु और भूविज्ञान के साथ साथ, वहां आवास की संभावनाओं का भी अध्ययन कर रहा है.

पर्सीवियरेंस क्यूरयॉसिटी के ही डिज़ाइन पर आधारित है, हालांकि ये कहीं अधिक जटिल है, और कई अतिरिक्त कैमरों तथा पहले दो माइक्रोफोन्स से लैस है. पर्सीवियरेंस पूरी तरह खगोल-जीवविज्ञानी मिशन है, जो एक और प्राचीन लेक बेड जेज़ेरो क्रेटर का, आवास की संभावनाओं तथा अतीत के जीवन के संकेतों के लिए, अध्ययन कर रहा है.

एक स्थायी रोबोटिक लैण्डर और भी है, इंसाइट, नासा का स्थायी रोबोटिक लैण्डर, जो ग्रह के गहरे अंदरूनी हिस्सों का अध्ययन करता है, और मार्स पर होने वाले कंपनों को दर्ज करता है.

फिलहाल आठ ऑर्बिटर्स हैं जो प्लैनेट का अध्ययन कर रहे हैं: नासा/जेपीएल का मार्स ऑडिसी, मार्स रीकनैसां ऑर्बिटर और मैवन; यूरोपीय स्पेस एजेंसी का मार्स एक्सप्रेस; ईएसए/रॉसकॉसमॉस सहयोग का एक्सोमास ट्रेसगैस ऑर्बिटर, इसरो का मार्स ऑर्बिटर मिशन (मंगलयान), चीनी सीएनएसए का तियानवेन-1, और यूएई स्पेस एजेंसी का होप ऑर्बिटर.

ये ऑर्बिटर्स ग्रह के वातावरण का अध्ययन करते हैं, मिथेन के संकेत तलाश करते हैं, सोलर रेडिएशन के प्रभाव, मंगल के भूविज्ञान, ग्रहों के विकास, जलवायु, और तरल पानी की मौजूदगी का अध्ययन करते हैं, और अतीत में जीवन के सबूत ढूंढते हैं.


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मंगल पर भविष्य

भविष्य में मंगल के लिए कई मिशंस की योजना बनाई गई है, जिनमें भारत का मंगलयान-2 ऑर्बिटर भी शामिल है, जिसे 2024 में लॉन्च किया जाना है. भारत का पहला मिशन एक टेक्नोलॉजी प्रदर्शक था, लेकिन दूसरा मिशन संभावित रूप से वैज्ञानिक प्रकृति का होगा, जिसके पेलोड्स ज़्यादा होंगे, और वैज्ञानिक लक्ष्य ज़्यादा जटिल होंगे.

2022 में, ईयू-रूसी सहयोग का कज़ाचोक लैण्डर/रोज़ालिंड फ्रैंकलिन रोवर, और जापान का टेरा-हर्ट्ज़ एक्सप्लोरर (टेरेक्स) मिशन, जिसमें एक ऑर्बिटर और रोवर हैं, लॉन्च किए जाएंगे.

जापान की 2024 में, मार्शियन मून्स एक्सप्लोरेशन (एमएमएक्स) ऑर्बिटर भेजने की भी योजना है.

सरकारी एजेंसियों के अलावा, कुछ निजी मिशंस भी हैं, जो जल्द ही मंगल पर जा सकते हैं. इनमें स्पेसेक्स का अपुष्ट स्टारशिप डेमो मिशन शामिल है, जो एक लैण्डर और कार्गो, दोनों लेकर जाएगा. स्पेसेक्स सीईओ एलन मस्क ने संकेत दिया है, कि अगले एक दशक के भीतर, इंसान मंगल पर जा सकता है.

लेकिन, इंसानों को मंगल तक लेकर जाना, और वहां उन्हें जीवित रखना, कोई आसान काम नहीं है. बेहद मुश्किल चुनौतियां हैं जिनपर क़ाबू पाना है, जैसे मंगल की यात्रा के दौरान, और उसकी सतह पर तीव्र रेडिएशन से बचाव, तरल पानी की कमी, और अत्यंत ठंडा तापमान.

चूंकि मंगल इतनी दूर है, और हर 26 महीने पर ही चक्कर लगाए जा सकते हैं, इसलिए सुरक्षा, आपातकालीन पहुंच, और अलग रहने के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों का ख़तरा भी बढ़ जाता है. सामाजिक प्रभावों में बेचैनी, अवसाद, सिज़ोफ्रेनिया, थकावट, नींद की बीमारी, फोकस न कर पाना और चिड़चिड़ापन आदि शामिल हैं.

इसके अलावा, अंतरिक्ष उड़ान और कम गुरुत्वाकर्षण से, शारीरिक समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं, जिनमें मांसपेशियां और बोन मास, दोनों कम हो जाते हैं, कम गुरुत्वाकर्षण से हृदय प्रणाली धीमी पड़ जाती है, और दूसरे मनोदैहिक तनाव पैदा हो जाते हैं, जो शारीरिक लक्षणों की सूरत में सामने आते हैं, जिनमें मोशन सिकनेस होती है जिससे चक्कर आते हैं, और सरदर्द, जी मिचलाने, और सुस्ती की समस्या पैदा होती है. अंतरिक्ष यात्रियों ने कमज़ोरी, और एरोबिक क्षमता या ऑक्सीजन के सेवन में कमी का भी अनुभव किया है.

अंतरिक्ष उड़ान और कम गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में, रोगाणु ज़्यादा विषैले हो जाते हैं, जिसके सबूत इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर हुए प्रयोगों में मिले हैं. इससे ज़्यादा गंभीर बीमारियां हो सकती हैं, जिससे ग्रह पर बसने वाले इंसान, जोखिम में पड़ सकते हैं.

इंसानों को पावर सप्लाई, ऑक्सीजन, और इधर उधर जाने के लिए वाहन भी चाहिए होंगे. साथ ही रेडिएशन प्रूफ आवास, और प्लैनेट पर मौजूद बर्फ से, पानी निकालने की क्षमता की भी ज़रूरत होगी.

इसके अतिरिक्त, ग्रह पर जाने से पहले इंसानों को सुनिश्चित करना होगा, कि ग्रहों के संरक्षण के मानदंड पूरे किए जाएं. इससे तात्पर्य मंगल पर किसी भी संभावित जीवन को, पृथ्वी से गए जीवन के प्रदूषण से बचाना है, चाहे वो सूक्ष्मजीव हो या कुछ और, जोकि बाह्य अंतरिक्ष संधि कहे जाने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत अनिवार्य है, और समझौते में शामिल सभी देशों को, प्रोटोकोल का पालन करना होता है.

परिणामस्वरूप, इस बात की पुष्टि करनी होगी, कि इंसानों के वहां तक पहुंचने से पहले, पानी और पानी की बर्फ की जगहों पर कोई जीवन न हो. संभावना ये है कि इन जगहों पर, पहले एहतियात से कीटाणुरहित किए गए रोबोटिक मिशंस जाएंगे, और साथ ही सैम्पल्स एकत्र करने के मिशंस ग्रह पर काम करेंगे, उसके बाद ही मंगलके लिए इंसानी मिशंस स्वीकृत किए जाएंगे.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. Mangal me jivan Ho ya na Ho….. Koi faida nahi hai…. Inshaan..ko. Jivan. Me jivan. Mila hai wahi bahut Badi Baat hai.. Deso Ka kya… Hai.. Compitison… Ke piche. Bhagte. Hai. Aaj inshaan.. Dharti.. Se power bana raha hai kisi dushre grha me jivan ki talaash kar raha hai.. .lekin.. Is se honga kya.. Ulta apni prithvi ko khatra Ho raha hai.. Jaisa apna sarir.. Apne andar se blood nikalo to sarir kamjor jaisa Ho jaata hai fir Kuch kha Lo to thik lagta thode dino me khun ban hi jaata hai.. Lekin jo gas nikaal rahe hai petrol diesel.. Dharti ko Kon Ye khilayega kya inshaan dharti se Kuch bhi nikalne ki kaabliyat rakhta to wo inshaan kya fir se wahi chizz dharti me wapis zama kar sakta hai are kar hi nhi sakta…

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