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शादी, बच्चे और शराब: भारतीय मुसलमानों के खिलाफ फैली इन अफवाहों को NFHS-5 ने किया बेनकाब

अत्यधिक जनसंख्या, बाल विवाह, महिलाओं की शिक्षा के प्रति उदासीनता. हाल ही में हुए NFHS-5 के आंकड़े भारत में मुसलमानों के बारे में कुछ और ही हकीकत बयां करते हैं.

सेक्टर 12 के एक स्कूल के बेसमेंट नमाज पढ़ते हुए मुस्लिम बच्चे । फोटोः मनीषा मोडल । दिप्रिंट

नई दिल्ली: 20 करोड़ की आबादी वाले मुसलमान भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में गिने जाते हैं. उसके बावजूद इस समुदाय के बारे में गलत जानकारी और कभी-कभी दुष्प्रचार कर, इन्हें चर्चा के घेरे में लाया जाता रहा है.

इस्लाम में महिला की शादी की उम्र और बच्चे पैदा करने के कुछ निर्धारित विचारों के चलते उनके बारे में काफी हद तक पूर्वकल्पित धारणाएं बना ली गई हैं जो भारतीयों की धर्म और लोगों की समझ को जाहिर करती है. लेकिन मुसलमानों के लेकर बनाई गई इन आम धारणाओं में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना, कभी यह जानने की कोशिश की है?

इस महीने की शुरुआत राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 5 ने शादी, शिक्षा, आबादी और अन्य कई मसलों पर आंकड़े जारी किए थे. एनएफएचएस-5 के इसी डेटा का इस्तेमाल करते हुए दिप्रिंट उन पांच मिथकों का गलत साबित किया है, जिन्हें लेकर अक्सर मुस्लिम समुदाय पर आरोप लगाए जाते रहे हैं.

जनसंख्या बढ़ाने में सबसे आगे

भारत में मुसलमानों के खिलाफ सबसे बड़ा आरोप यह लगाया जाता रहा है कि उनके बहुत ज्यादा बच्चे होते हैं, जो भारत की जनसंख्या विस्फोट और जनसांख्यिकीय संतुलन को बिगाड़ने की समस्या का कारण बन रहे हैं. 2015 में दक्षिणपंथी हिंदू नेता उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज ने कहा था कि मुसलमानों को पछाड़ने के लिए हिंदुओं को कम से कम चार बच्चे पैदा करने चाहिए.

 हालांकि, कुल प्रजनन दर (टीएफआर, एक महिला द्वारा अपने जीवनकाल में बच्चों को जन्म देने की औसत संख्या) पर एक नजर डालने से पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय में उच्च प्रजनन दर तो है लेकिन यह अन्य समुदाय की तुलना में बहुत ज्यादा नहीं है.

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राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

एनएफएचएस-5 के अनुसार, 2019-21 में मुसलमानों के लिए टीएफआर 2.36 था- 100 महिलाओं द्वारा 236 बच्चों का संभावित जन्म- यानी एक महिला द्वारा दो से अधिक और तीन से कम बच्चों को जन्म दिया जा रहा है. टाइम सीरीज डेटा से पता चलता है कि पिछले 25 सालों में मुसलमानों के बीच टीएफआर तेजी से नीचे गिरा है. 1998-99 में यह 3.6 था जो 2019-21 में गिरकर 2.36 हो गया. हिंदुओं में टीएफआर 1.94 दर्ज किया गया है. 100 हिंदू महिलाएं मुसलमानों की तुलना में 42 बच्चों को कम जन्म दे रही हैं.


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सजातीय/सगोत्रीय विवाह का पक्षधर

ऐसा माना जाता है कि मुसलमानों में अपने परिवार में शादी करने की प्रथा आम है. हालांकि डेटा एक अलग तस्वीर दिखाता है.

सर्वे में पाया गया कि केवल 15.8 मुस्लिम महिलाओं की शादी एक रक्त संबंध (पिता या माता की ओर से पहली या दूसरी चचेरी बहन, चाचा या अन्य रक्त संबंधियों) में हुई है, लेकिन 80% से अधिक मामलों में  पति-पत्नी आपस में संबंधित नहीं थे. जबकि बौद्ध/नव बौद्ध समुदाय में सजातीय विवाह का यह आंकड़ा 14.5%, ईसाइयों में 11.9% और हिंदुओं में 10.1% रहा.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

कुल मिलाकर राष्ट्रीय स्तर पर 11% भारतीय महिलाओं की कथित तौर पर उनके सगे-संबंधियों से शादी की जाती है. साफ पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा आगे नहीं हैं.

एनएफएचएस ने पुरुषों के बहुविवाह पर भी डेटा इकट्ठा किए है. लेकिन यह अंतिम रिपोर्ट में उपलब्ध नहीं है. पिछले उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2005-06 तक केवल 2.5% मुस्लिम महिलाओं ने माना था कि उनके पति की एक से अधिक पत्नियां थीं. वही हिंदू महिलाओं के लिए यह प्रतिशत 1.7 था. दिप्रिंट ने एनएफएचएस टीम से बहुविवाह पर डेटा उपलब्ध कराने का अनुरोध किया है. उनकी तरफ से आंकड़े मिलने या जवाब आने पर लेख को अपडेट किया जाएगा.

कम उम्र में शादी

मुसलमानों के बीच बाल विवाह, विशेष रूप से किशोर लड़कियों की शादी काफी आम मानी जाती है. मुस्लिम पर्सनल लॉ 15 साल की उम्र के बाद पुरुषों और महिलाओं को शादी की अनुमति भी देता है. लेकिन जैसा कि एनएफएचएस -5 के आंकड़ों से पता चलता है कि ऐसे मामलों में भी मुसलमान अकेले नहीं हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

एक मुस्लिम महिला की शादी की औसत उम्र 18.7 साल है. यानी समुदाय की आधी से ज्यादा महिलाओं की शादी 18 से 19 साल की उम्र में हो जाती है. पहली शादी की औसत उम्र हिंदू महिलाओं में भी 18.7 साल ही है. अन्य अल्पसंख्यकों में महिलाओं के लिए विवाह की औसत उम्र 21 से अधिक है. जबकि सिखों में 21.2 साल, ईसाइयों में 21.7 साल और जैन में 22.7 साल है.


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शिक्षा की कमी

इस साल की शुरुआत में कर्नाटक में देखे गए हिजाब विवाद ने शिक्षा के क्षेत्र में महिला मुस्लिम छात्रों के प्रति दृष्टिकोण के बारे में नई बहस छेड़ दी. मुस्लिम समुदाय महिलाओं को पढ़ाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता है. यह भी एक मिथक है जो मुस्लिम समुदाय को हमेशा से सताता रहा है. अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने लड़कियों के लिए स्कूल बंद कर दिया. उसके इस कदम ने मुसलमानों के बीच महिलाओं की शिक्षा पर बहस को और बढ़ा दिया.

अगर मुस्लिम महिलाओं को स्कूलों में जाने से रोका जा रहा होता तो डेटा लैंगिक असमानता को दर्शाता नजर आता. लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आता. आंकड़े कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

एनएफएचएस-5 के मुताबिक एक मुस्लिम छात्रा ने स्कूल में औसतन 4.3 साल बिताए थे. दूसरे शब्दों में कहे तो सर्वे में शामिल लगभग आधी मुस्लिम महिलाएं 4.3 साल तक स्कूल गईं है. पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 5.4 वर्ष था. औसतन मुस्लिम लड़कों ने मुस्लिम लड़कियों की तुलना में स्कूल में 1.1 वर्ष अधिक बिताया. वास्तव में  शिक्षा के लिए स्कूल जाने वाले सालों में अन्य समुदायों में लिंग अंतर इससे कहीं अधिक था. हिंदुओं में यह अंतर सबसे अधिक यानी दो साल था. जहां पुरुष छात्रों ने औसतन 7.5 साल स्कूल में बिताए तो वहीं महिलाओं के लिए ये आकड़ा 4.9 साल था.


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शराब की खपत

इस्लाम में शराब पीने की सख्त मनाही है. अधिकांश इस्लामी देशों में शराब या तो बिल्कुल नहीं बेची जाती है या केवल गैर-मुसलमानों के लिए बिक्री और खपत तक सीमित है. भारत में शराब का सेवन करने वाले मुस्लिम पुरुषों का प्रतिशत (6.3%) राष्ट्रीय औसत से काफी कम है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5)

अगर हम इस निष्कर्ष को 2011 की जनगणना के हिसाब से देखें, तो 15-54 उम्र के पुरुषों की मुस्लिम आबादी लगभग 6.2 करोड़ है. इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि लगभग 40 लाख मुस्लिम पुरुष शराब का सेवन करने वालों की गिनती में आते है.

तो भारतीय मुसलमानों से अन्जान क्यों रहते हैं?

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद का कहना है कि एनएफएचएस के आंकड़े ‘आश्चर्यजनक नहीं’ हैं. वह कहते हैं, ‘एनएफएचएस के निष्कर्ष, दशकों से भारतीय मुसलमानों को लेकर किए जा रहे सर्वे के तथ्यों की पुष्टि कर रहे है. सीएसडीएस लोकनीति सर्वे कितने सालों से दिखाता आ रहा है कि इस तरह के मामलों से जूझने वाला भारतीय मुसलमान अकेला नहीं हैं. अन्य समुदायों के सामने भी ये समस्याएं है. यह सिर्फ इतना है कि तथ्यों की तुलना में उनके आस-पास के मिथक तेजी से फैलते हैं.’

ब्रिटेन की एक पत्रिका न्यू स्टेट्समैन के विश्लेषण में पाया गया था कि जब भी मुसलमान खबरों में होते हैं, तो उनके आसपास गलत सूचनाएं भी फैल जाती हैं. अहमद कहते हैं, ‘जब आप तथ्यों की जांच किए बिना किसी समुदाय के बारे में राय बनाते हैं, तो आप एक गलत धारणा बना रहे होते हैं. लेकिन जब आप गलत धारणा का समर्थन करने वाला एक नैरेटिव रचते हैं और नजरिया उपलब्ध कराते हैं तो यह एक स्टीरियोटाइप बन जाता है, जो खतरनाक है. मुस्लिम विरोधी समूह मुस्लिम समुदाय के खिलाफ स्टीरियोटाइप तैयार करने वाली कहानियों को गढ़ने में माहिर है. लेकिन इसके खिलाफ प्रतिरोध की आवाज गायब रहती है.’

अहमद का मानना है कि इस तरह की भ्रांतियों या गलतफहमियों को चुनौती केवल राजनीतिक वर्ग की तरफ से ही मिल सकती है. वह कहते हैं, ‘हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि एक आम आदमी सर्वे डेटासेट पर वापस जाएगा और गलत धारणाओं पर सवाल उठाएगा. राजनीतिक वर्ग खासकर वो जो धर्मनिरपेक्षता और भारतीय समाज के मिले-जुले चरित्र में विश्वास करते हैं, उन्हें इन तथ्यों को आगे बढ़ाना होगा और इन मिथकों को तोड़ना होगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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