होम देश आजादी केवल कांग्रेस के प्रयासों और सत्याग्रह का नतीजा नहीं—हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस...

आजादी केवल कांग्रेस के प्रयासों और सत्याग्रह का नतीजा नहीं—हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस ने RSS की भूमिका सराही

पिछले कुछ हफ्तों के दौरान हिंदुत्व समर्थक मीडिया में कवर की गई खबरों तथा सामयिक मुद्दों और संपादकीय लेखों पर दिप्रिंट का राउंड-अप.

इलस्ट्रेशन- रमनदीप कौर, दिप्रिंट

नई दिल्ली: संघ परिवार के मुखपत्र ऑर्गनाइजर के ताजा संस्करण (14 अगस्त) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी मनमोहन वैद्य ने लिखा है कि एक ‘सोची-समझी रणनीति’ के तहत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का आंशिक इतिहास ही बताने का प्रयास किया जा रहा है.

स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस की भूमिका के बारे में बताते हुए वह लिखते हैं कि लोगों को यह मानने को बाध्य किया गया कि स्वतंत्रता सिर्फ कांग्रेस पार्टी और 1942 के सत्याग्रह के कारण ही मिली थी. वैद्य ने आगे आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेगडेवार के जीवन से जुड़ी घटनाओं का उल्लेख किया और बताया कि कैसे वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहे थे.

उन्होंने लिखा, ‘आजादी के महत्व और प्राथमिकता को समझने के बाद डॉ. हेडगेवार को एक ही सवाल मथ रहा था कि—आखिर व्यापार के लिए 7,000 मील दूर से आए मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश पर शासन कैसे कर सकते हैं? निश्चित तौर पर यह हमारी कुछ खामियों का ही नतीजा होगा. उन्होंने महसूस किया कि हमारा समाज खुद को भूल चुका था और जातियों, प्रांतों, भाषा और आस्था के आधार पर समूहों में बंटा हुआ था, यह असंगठित और खराब आदतों का शिकार था. अंग्रेजों ने इसका फायदा उठाया और हम पर राज करने लगे.’

वे आगे कहते हैं, ‘यह इतिहास आगे भी दोहराया जा सकता है यदि स्वतंत्रता के बाद भी समाज ऐसा ही रहा. (हेडगेवार) कहा करते थे कि एक नागनाथ जाएगा और दूसरा सांपनाथ आएगा.’

वैद्य बताते हैं कि नागपुर में 1904 से 1905 के बीच स्वतंत्रता संग्राम का जोश भरना शुरू हुआ. उन्होंने बताया, ‘1897 में 9-10 साल के रहे केशव (हेडगेवार का बचपन का नाम) ने महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की हीरक जयंती के अवसर पर स्कूल में बांटी गई मिठाइयों को कूड़ेदान में फेंक दिया. यह अंग्रेजों का गुलाम होने के खिलाफ उनके गुस्से और झुंझलाहट का नतीजा था.’

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

अलप्पुझा में मुसलमान ‘चिढ़े’

आरएसएस की हिंदी पत्रिका पांचजन्य की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अलप्पुझा में अपने जिले में एक ब्राह्मण को जिला कलेक्टर बनाए जाने से ‘चिढ़े’ मुस्लिम समूहों के विरोध के बाद वाम नेतृत्व वाली केरल सरकार ने आईएएस अधिकारी को उनके पद से हटा दिया.

आईएएस अधिकारी श्रीराम वेंकटरमण को जिला कलेक्टर बनाए जाने के कुछ दिनों बाद ही वहां से हटा दिया गया और नागरिक आपूर्ति निगम में ट्रांसफर कर दिया गया. गौरतलब है कि वेंकटरमण ‘शराब पीकर गाड़ी चलाने’ की उस कथित घटना के मुख्य आरोपी थे, जिसके कारण 2019 में के.एम. बशीर नामक पत्रकार की मौत हो गई थी.

इस मामले में अदालती कार्यवाही जारी है. इस महीने के शुरू में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) और कांग्रेस पार्टी ने अधिकारी की नियुक्ति का विरोध किया था.

हादसे का जिक्र करने के साथ पांचजन्य की रिपोर्ट में स्थानीय नागरिकों के हवाले से बताया गया है कि मुस्लिम समूह आईएएस अधिकारी का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे थे क्योंकि वे ब्राह्मण हैं. इसमें कहा गया है, ‘उल्लेखनीय है कि राज्य में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) सरकार है. इसलिए मुसलमान इस बात से और भी ज्यादा चिढ़े हुए थे कि सरकार ने एक ब्राह्मण को कैसे ‘उनके’ जिले में कलेक्टर बना दिया.’

इसमें आगे कहा गया है, ‘मुस्लिम संगठन माकपा के नेतृत्व वाली एलडीएफ सरकार के फैसले का विरोध कर रहे थे. हालांकि, मुख्यमंत्री पिनारई विजयन ने पहले तो वेंकटरमण की नियुक्ति को सही ठहराया, लेकिन जल्द ही उन्हें ऐसा लगने लगा कि वह उन्हें नाराज नहीं कर सकते.’


यह भी पढ़ें-‘नीतीश में PM बनने के सभी गुण’: कुशवाहा ने कहा- ‘उपराष्ट्रपति की उनकी महत्वाकांक्षा’ को लेकर झूठ बोल रही है BJP


विहिप ने कर्नाटक में भाजपा कार्यकर्ता की हत्या पर चेताया

विश्व हिंदू परिषद ने 28 जुलाई के जारी एक प्रेस बयान में 26 जुलाई को कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ता प्रवीण नेट्टारू की हत्या का जिक्र करते हुए चेताया था कि यदि ‘जिहादी हिंसा’ के खिलाफ हिंदुओं की तरफ से कोई आक्रामक प्रतिक्रिया होती है, तो हिंदू समाज इसके लिए जिम्मेदार नहीं होगा.

इसमें कहा गया था, ‘यदि जिहादी मानसिकता इस तरह की प्रताड़ना, वैमनस्यता दिखाती और हत्याएं करती रही, तो हिंदू समाज में भी रोष की भावना उपजेगी और स्वाभाविक तौर पर एक आक्रामक प्रतिक्रिया होगी. अगर ऐसा होता है तो हिंदू समाज इसके लिए जिम्मेदार नहीं होगा.

विहिप महासचिव मिलिंद परांडे ने कहा, ‘मुस्लिम समुदाय को अब यह तय करना होगा कि वह किस नेतृत्व को स्वीकार करता है—मदनी और ओवैसी या कलाम और अशफाक उल्लाह का. मुस्लिम समुदाय को अपनी सामाजिक व्यवस्था से चरमपंथी और आतंकवादी मानसिकता को बाहर निकालना होगा और उसे पूरी तरह खत्म करना होगा, अन्यथा, उनकी कथनी और करनी में एक विरोधाभास बना रहेगा.’

हिंदू संगठन ने उन लोगों के परिवारों को न्याय दिलाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की जरूरत बताई, जो ‘जिहादी हिंसा और सिर कलम’ कर दिए जाने की घटनाओं के शिकार बने हैं.

‘मुसलमानों के विरोध के कारण प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना बंद किया’

दैनिक जागरण में प्रकाशित अपने एक लेख में दक्षिणपंथी पत्रकार अनंत विजय कहते हैं कि हिंदू और उर्दू लेखक प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना बंद कर दिया था क्योंकि वह ‘प्रगतिशील’ और मुस्लिम लेखकों की ‘खारिज करने की संस्कृति’ के शिकार हो गए थे.

विजय लिखते हैं, ‘प्रगतिशील विचार के झंडाबरदार हर उस विचार को दबा देते थे जिससे उर्दू और उर्दू वालों की छवि हिंदी और हिंदीवालों के विरोध की बनती थी. प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ था. उन्होंने उर्दू में लिखना शुरू किया. उनका नाटक ‘कर्बला’ उर्दू में लिखा गया था, लेकिन उस दौर के मुस्लिम लेखकों ने इसका विरोध करते हुए तर्क दिया कि एक हिंदू लेखक अपने लेखन में मुस्लिम इतिहास को कैसे आधार बना सकता है?’

विजय ने निष्कर्ष निकाला, ‘चूंकि इससे प्रेमचंद बहुत खिन्न थे, उन्होंने उर्दू में लिखना बंद कर दिया.’ उन्होंने प्रेमचंद के एक पत्र का भी उल्लेख किया जिसमें उन्होंने लिखा था, ‘किस हिंदू लेखक को उर्दू में लिखने से फायदा हुआ है?’

विजय का तर्क है कि हिंदू लेखकों के प्रति इस लापरवाही को हिंदी उदारवादी लेखकों ने महत्व नहीं दिया. प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ क्योंकि उदारवादी प्रेमचंद को एक प्रगतिशील लेखक के रूप में पेश करना चाहते थे. उनका यह भी दावा है कि प्रेमचंद ने पहले अपने प्रसिद्ध उपन्यास का नाम ‘गौ-दान’ रखा था, जिसे बाद में बदलकर ‘गोदान’ कर दिया गया.

उन्होंने कहा, ‘यह कोई संयोग नहीं कि हिन्दी साहित्य में उर्दू लेखकों को जिस प्रकार का सम्मान मिला, वह उर्दू साहित्य में हिन्दी साहित्यकारों को नहीं मिला. इकबाल से लेकर फैज तक, ये सभी शायर तब प्रसिद्ध हुए जब उनकी शायरी देवनागरी में प्रकाशित हुई.’

सार्वजनिक बैंकों को सार्वजनिक ही रहने दें : एसजेएम

10 अगस्त को अपनी वेबसाइट पर बैंकों के निजीकरण पर अपने लेख में स्वदेशी जागरण मंच के सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने आग्रह किया कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का स्वामित्व सार्वजिक क्षेत्र का ही होना चाहिए, न कि विदेशी (बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अंतर्राष्ट्रीय निगमों का). उन्होंने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ‘आवश्यक’ हैं.

निजी बैंकों की बात करते हुए उन्होंने लिखा, ‘उनकी बाजार हिस्सेदारी बढ़ी है, लेकिन यह संदेहास्पद है कि क्या उन पर विश्वास किया जा सकता है.’ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दक्षता बढ़ाने के लिए महाजन ने कहा, आपको नौकरशाहों के माध्यम से निर्णय लेने को अधिक विवेकपूर्ण बनाना होगा और उन्हें सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा.

उन्होंने लिखा, ‘इसके लिए सरकार अपने हिस्से को 51 फीसदी से घटाकर कम कर सकती है. आईपीओ के जरिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के शेयर आम जनता को दिए जा सकते हैं. और सबसे ज्यादा जरूरत किसी संस्थान के लिए पेशेवर प्रबंधन की है.’

सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी आईटीसी का उदाहरण देते हुए हुए वह कहते हैं, यह दिखाती है कि आप किसी कंपनी को निजी कॉर्पोरेट हाथों या विदेशियों को सौंपकर नहीं, बल्कि इसे पेशेवर रूप से चलाकर सफल बना सकते हैं.

बीएमएस ने नीति आयोग की आलोचना की

भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) की मासिक पत्रिका विश्वकर्मा संकेत (अगस्त अंक) में छपे एक लेख में बताया गया है कि कैसे बीएमएस केंद्र सरकार और नीति आयोग की नीतियों की आलोचना करता है.

बीएमएस के एक प्रतिनिधि ने कहा, ‘योजना आयोग पहले तो सरकार का सहायक होता था. लेकिन अब, यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिनिधियों से भरा पड़ा है जो ऐसे सुझाव दे रहे हैं जो आम लोगों के लिए उपयुक्त नहीं हैं. लेकिन दुर्भाग्य से, सरकार भी इन सुझावों को लागू कर रही है.’

उन्होंने कहा, ‘औद्योगिक संबंध संहिता 2020 ट्रेड यूनियनों को समाप्त कर देगी. हम चाहते हैं कि केंद्र सरकार आईआर (औद्योगिक संबंध) कोड और ओएसएच (व्यावसायिक सुरक्षा, सेहत और काम करने की स्थिति) कोड को संशोधित करे. हम निजीकरण, निगमीकरण और मौद्रीकरण करने वाली सरकार की भी निंदा करते हैं. सरकार को समाज के सभी वर्गों के लिए वेतन, सामाजिक सुरक्षा और नौकरी की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए और बीएमएस इन मुद्दों पर 17 नवंबर को बड़े पैमाने पर विरोध की योजना बना रहा है.’

‘भाजपा इतने आत्मविश्वास में क्यों है?’

वरिष्ठ दक्षिणपंथी पत्रकार हरिशंकर व्यास ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) छापों के जरिये विपक्ष पर हमले के लिए भाजपा पर निशाना साधा और नया इंडिया के लिए अपने लेख में सवाल उठाया है कि भाजपा ‘इतने आत्मविश्वास में क्यों है.’

‘सवाल यह है कि क्या भाजपा को अंदाजा नहीं है कि अब अति हो रही है और अगर विपक्षी पार्टियों को ज्यादा परेशान करेंगे तो उनके प्रति सहानुभूति बन सकती है? निश्चित रूप से भाजपा को अंदाजा होगा और इमरजेंसी के बाद के चुनाव का इतिहास भी पता होगा इसके बावजूद विपक्ष को खत्म करने का या कमजोर करने का अभियान थम नहीं रहा है’

व्यास ने खुद ही इस सवाल का जवाब देते हुए लिखा है कि भाजपा ने सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं की छवि खराब की है. उन्होंने लिखा, ‘इसके लिए सबसे पहले मीडिया संस्थानों को काबू में किया गया. अखबार और टेलीविजन चैनल वही दिखाते हैं, जो सरकार कहती है. विपक्षी नेताओं के झूठे बयान या फोटोशॉप की हुई फोटो और एडिटेड वीडियो वायरल कराए जाते हैं और मीडिया उसे जस का तस चलाता है. ऐसे ही वीडिया के जरिए विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी को ‘पप्पू’ ठहराया गया है. ममता बनर्जी को ‘ममता आपा’ बताकर उनको मुस्लिमपरस्त ठहराया गया है.’

व्यास आगे लिखते हैं कि भाजपा के आत्मविश्वास का दूसरा कारण हिंदू-मुस्लिम का नैरेटिव है जिसे भाजपा लोगों के मन में बैठाने में सफल रही है.

उन्होंने लिखा, ‘इसे भी मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए भाजपा ने जनमानस में बखूबी बैठाया है. अलग अलग घटनाओं, कानूनों, भाषणों, टेलीविजन बहसों आदि के जरिए यह स्थापित किया गया है कि मुसलमानों से हिंदुओं को खतरा है और उन्हें नरेंद्र मोदी ही बचा सकते हैं. यह धारणा बनवाई गई है कि भारत असल में 2014 में आजाद हुआ, जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. इसे हिंदुओं की आजादी बताया जा रहा है.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें-कैसे अशराफ उलेमा पैगंबर के आखिरी भाषण में भ्रम की स्थिति का इस्तेमाल जातिवाद फैलाने के लिए कर रहे


Exit mobile version