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उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में ‘स्वयं-सहायता समूहों’ के जरिए अपने परिवार का पेट पाल रही हैं महिलाएं

गोरखपुर के जिगिना भीयन में 18 स्वयं-सहायता समूह परिवार चलाने में ऐसी महिलाओं की मदद कर रहे हैं, जिनके पति महामारी के दौरान रोज़गार खो बैठे थे. महिलाओं का कहना है कि इसके बिना वो भूखी मर जातीं.

गोरखपुर के जिगिना भीयन गांव के अपने घर में इंद्रावती देवी | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

गोरखपुर: जब 38 वर्षीय इंद्रावती देवी के पति राजेश पासवान की जो मुंबई में एक दिहाड़ी मज़दूर था, पिछले साल अप्रैल में देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान आजाविका खत्म हो गई और वो यूपी के गोरखपुर जिले में अपने गांव वापस आ गया, तो उसे कुछ पता नहीं था कि वो अपने परिवार का पेट कैसे पालेगा.

दो बच्चों की मां इंद्रावती को खासतौर से अपने बच्चों की चिंता थी. उसका बेटा और बेटी एक सरकारी स्कूल में क्रमश: 8वीं और 5वीं क्लास में पढ़ते हैं.

इंद्रावती ने याद किया, ‘मेरे पति सात दिन का सफर तय करके घर वापस आए थे. कभी उन्हें किसी ट्रक में सवारी मिल गई, तो किसी दिन नंगे पांव पैदल भी चले’.

लेकिन इंद्रावती को बस यही एक चिंता सता रही थी कि आने वाले दिनों में उनका गुजारा कैसे चलेगा. पिछले 10 साल से राजेश को मुंबई में कुछ न कुछ काम मिल जाता था. 300-400 रुपए रोज़ की अपनी कमाई के साथ अपना खुद का खर्च उठाने के बाद, वो हर महीने 4000-5000 रुपए घर भेज देता था. इंद्रावती बिल्कुल भी पढ़ी-लिखी नहीं थी और उसने कभी अपने आपको परिवार के लिए कमाने वाले की भूमिका में नहीं देखा था.

लेकिन एक स्वयं-सहायता समूह (एसएचजी), जिसमें इंद्रावती 2015 में इस उम्मीद के साथ शामिल हुई थी कि वो परिवार की आमदनी में थोड़ा बहुत इजाफा कर पाएगी, उनकी जीवन रक्षक बन गई जिससे परिवार किसी तरह पिछले डेढ़ साल में अपनी गुज़र बसर कर पाया, जब दो लॉकडाउन ने बहुत से प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवारों को तबाह कर दिया था.

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इंद्रावती ने कहा, ‘जब मैं समूह में शामिल हुई तो मैंने सोचा था कि अगर मैं हर महीने 500-1,000 रुपए भी बना लेती हूं, तो वो साहूकार से उधार लेने से बेहतर रहेगा’. वो हर दिन अपने घर का काम पूरा करने के बाद सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे तक करीब चांर-पांच घंटे काम करती थी और कपड़े के बैग बनाती थी.

हालांकि उसकी कमाई उसकी उम्मीद से अधिक थी- 2019 के दौरान वो 4,000-5,000 रुपए महीना कमा लेती थी लेकिन उसने कहा कि समूह की असली क्षमता लॉकडाउन के दौरान सामने आई. किसी-किसी दिन करीब आठ घंटे तक काम करके, वो लोग फेस मास्क, पीपीई किट्स और सैनिटाइजर्स बनाती थीं, जिन्हें सरकार खरीद लेती थी और इंद्रावती ने बताया कि उसे 9,000-10,000 रुपए महीना की कमाई होने लगी.

हाल के महीनों में अपने गांव- गोरखपुर के जिगिना भीयन में इंद्रावती अकेली महिला नहीं है, जिसने इस स्कीम से फायदा उठाया है, जो केंद्र की राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) के तहत काम करती है और जिसका लक्ष्य गांवों में गरीबों को सशक्त बनाना है, जिससे कि वो ‘स्थायी आजीविका संवर्द्धन और बेहतर वित्तीय सेवाओं के जरिए अपने परिवार की आय में इजाफा कर सकें’. ये स्कीम प्रमुख रूप से महिलाओं के लिए है.

महामारी के दौरान जिगिना भीयन में स्कीम की ओर आकर्षित होने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है क्योंकि पारंपरिक आजीविकाएं लॉकडाउन से प्रभावित हुई हैं, खासकर उन लोगों की जो असंगठित कार्यबल का हिस्सा हैं.


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कैसे काम करता है स्वयं सहायता समूह

ये नब्बे का दशक था जब राज्यों में स्वयं-सहायता बनने शुरू हुए थे, जिन्हें राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नबार्ड) का समर्थन हासिल था. 1999 में केंद्र ने स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोज़गार योजना के तहत ऐसे समूह गठित करने का औपचारिक कार्यक्रम शुरू किया. ग्रामीण विकास मंत्रालय के अंतर्गत समूह की मौजूदा स्कीम, 2011 में ‘आजीविका एनआरएलएम’ के नाम से शुरू की गई. 2015 में इसका नाम बदलकर दीनदयाल अंत्योदय योजना (डे-एनआरएलएम) कर दिया गया और इसे विश्व बैंक से भी सहायता मिलती है.

स्कीम के अंतर्गत एक सामुदायिक संसाधन व्यक्ति (सीआरपी), गांव में गरीब महिलाओं की पहचान करता है और उन्हें एकजुट करके एक समूह बनवाता है. समूह बन जाने के बाद हर समूह में 10-12 सदस्य होती हैं- उन्हें कोई कारोबार शुरू करने के लिए शुरू में 2,500 रुपए दिए जाते हैं, जैसे बैग या अगरबत्ती बनाना जिन्हें बाद में बेचा जाता है. समूहों को एनआरएलएम आवंटन के तहत भी 15,000 रुपए दिए जाते हैं. ये एक अनुदान होता है जिसे समूह को लौटाना नहीं होता.

गठन के छह महीने पूरे होने के बाद समूह बैंक ऋण के भी पात्र हो जाते हैं. किसी बैंक से जुड़ने और खाता नंबर मिलने के बाद समूह को स्कीम के तहत 1.50 लाख रुपए की पहली कर्ज राशि मिलती है. इसके बाद की क्रमश: 3 लाख और 5 लाख रुपए की कर्ज राशियां पिछली रकम की समय से अदाएगी और समूह के प्रदर्शन पर निर्भर करती है.

समूह की आय को इसकी महिला सदस्यों के बीच बांट लिया जाता है.

समूह सखी सरिता तिवारी अन्य सदस्यों के साथ | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

गोरखपुर के मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ) इंद्रजीत सिंह ने कहा, ‘समूहों में महिलाओं के लिए आपसी सहयोग का सिस्टम बना दिया जाता है. बचत बढ़ने और गरीबी घटने से न केवल उनके सशक्तिकरण में सहायता मिलती है, बल्कि ये गांव के लोकतंत्रीकरण और गांव के स्तर पर भागीदारी प्रजातंत्र में भी एक अहम रोल अदा करता है’.

‘2021 में गोरखपुर में समूहों से सशक्त हुईं बहुत सी महिलाओं ने ग्राम प्रधान के पद के लिए चुनाव भी लड़े’.

एक पंचायत के अंदर तमाम समूह मिलकर एक ग्रामीण संगठन (वीओ) बना लेते हैं. चार ग्रामीण संगठनों का समूह मिलकर एक क्लस्टर-लेवल फेडरेशन (सीएलएफ) बना लेता है. स्कीम के लिए अमले में जिला मजिस्ट्रेट, जिला मिशन प्रबंधक, खंड मिशन प्रबंधक, क्लस्टर को-ऑर्डिनेटर्स, समूह सखियां (जो जिला प्रशासन और समूहों के बीच संपर्क का काम करती हैं) और बैंक सखियां (बैंकों और समूहों के बीच संपर्क) शामिल होती हैं.

एनआरएलएम वेबसाइट पर उपलब्ध डेटा के अनुसार, अभी तक देश भर में 7,74,57,440 महिलाएं स्कीम के दायरे में आ गई हैं. यूपी में ये संख्या 53,07,567 है. एनआरएलएम डेटा के अनुसार गोरखपुर में, 1,50,730 महिलाएं स्कीम में कवर की जा चुकी हैं.

अगरबत्तियां बनाती स्वयं सहायता समूह की महिलाएं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

जिगिना भीयन में समूहों के नाम देवी-देवताओं पर रखे गए हैं- शिवशक्ति, भोलेनाथ, पार्वती, राधा वृद्धा, शिवगुरू- और यहां पर 18 समूह काम कर रहे हैं. जिले के आंकड़ों के अनुसार, करीब 2,000 महिलाओं की आबादी के इस गांव में अभी तक 133 महिलाएं समूहों के तहत कवर की जा चुकी हैं.

जिला प्रशासन ने विभिन्न स्कीमों के तहत सरकार से मंजूर बहुत से काम गांवों की महिलाओं को सौंप दिए हैं जो समूहों का हिस्सा हैं.

सीडीओ सिंह ने कहा, ‘हमने समूहों से महिलाओं को मनरेगा साथी (सुपरवाइज़र), सामुदायिक शौचालय रखवालों, पीडीएस राशन डीलर्स, पोषाहार वितरक, सीआईबी सप्लायर्स (नागरिक सूचना बोर्ड) के तौर पर साथ लिया है’.

मसलन, जिगिना भीयन गांव में जय मां वैष्णो समूह की सदस्य 45 वर्षीय फुलवासी को रोटेशन आधार पर सामुदायिक शौचालय की रखवाली का काम दिया गया है, जिसके लिए उसे 6,000 रुपए प्रति माह मिलता है. एक अन्य महिला प्रतिमा तिवारी को, जो महाकाल समूह की सदस्य है, पीडीएस राशन डीलर का काम दिया गया है. पोषाहार और सीआईबी सप्लायर का काम क्रमश: शिवशक्ति समूह और अंबे समूह को दिया गया है.

इनकी निश्चित आय को देखकर और अधिक महिलाएं समूह स्कीम की ओर आकर्षित हुई हैं.


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महामारी के दौरान स्वयं-सहायता

इंद्रावती ने कहा कि पासवान हमेशा अपनी पत्नी को पारिवारिक आय बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करता था और उसने पत्नी को समूह में शामिल होने से कभी नहीं रोका. स्कीम का असली फायदा उन्हें महामारी के दौरान महसूस हुआ- ये परिवार एक बड़े विस्तृत खानदान के घर में एक कमरे में रहता है.

इंद्रावती शिव शक्ति समूह की सदस्य है, जो गांव में किराए के एक कमरे में काम करती है, जिसके लिए वो 1,000 रुपए महीना किराया देती हैं. जहां पहले ये महिलाएं अपनी बनाई हुई चीज़ों को निजी खरीदारों को बेचती थीं- हालांकि सरकार भी जरूरत के हिसाब से समूहों को स्कूल यूनिफॉर्म जैसी चीज़ों का टेंडर देती है लेकिन महामारी के दौरान सरकार समूहों से लगातार मास्क, पीपीई किट्स और सैनिटाइजर्स खरीद रही है, जिससे उन्हें होने वाली आय का स्रोत और सुनिश्चित हो गया है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, महामारी के दौरान देश भर के समूहों ने मिलकर 16,89,27,854 मास्क, 5,29,741 पीपीई किट्स, 5,13,059 सैनिटाइजर्स का उत्पादन किया और 1,22,682 सामुदायिक रसोईयां चलाईं.

फुलवासी को रोटेशन आधार पर सामुदायिक शौचालय की रखवाली का काम दिया गया है, जिसके लिए उसे 6,000 रुपए प्रति माह मिलता | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

इंद्रावती, फुलवासी, प्रतिमा और उन जैसी दूसरी महिलाओं की आमदनी को देखते हुए गांव की अन्य महिलाएं भी समूहों का हिस्सा बनने की ओर प्रोत्साहित हुई हैं. जिगिना भीयन समूह सखी सरिता तिवारी ने बताया कि एक महीना पहले गांव के हज्जाम की पत्नी 30 वर्षीय सीमा शर्मा ने समूह में शामिल होने के लिए उससे संपर्क किया था.

सरिता ने कहा, ‘महामारी के दौरान लोगों ने अपने बाल कटाने बंद कर दिए थे और परिवार की आय बंद हो गई थी’. सरिता ने दीपक नाम से एक नया ग्रुप बनाने में सीमा की मदद की, जिसमें गांव की कुछ और महिलाएं भी आ गईं.

लेकिन जहां महामारी के दौरान समूह में शामिल किए जाने की मांग बढ़ गई है लेकिन लॉकडाउन और उसके नतीजे में सीआरपी के गांवों तक पहुंचने में आई दिक्कतों के चलते स्कीम की पहुंच में मुश्किलें पेश आई हैं.

जिला प्रशासन के अनुसार 2019-20 में गोरखपुर ने 4,200 नए समूह गठित करने का अपना लक्ष्य पूरा कर लिया था. लेकिन 2020-21 में दिए गए 5,000 के लक्ष्य में से वो केवल 3,000 नए समूह गठित कर सका. 2021-22 में ये अभी तक केवल 1,600 समूह गठित कर पाया है, जबकि लक्ष्य 4,142 का है.

जिला प्रशासन के अनुसार एक समस्या श्रमशक्ति की कमी की भी है. गोरखपुर में स्कीम के लिए सात खंड मिशन प्रबंधकों की जरूरत है लेकिन फिलहाल उसके पास सिर्फ तीन-चार प्रबंधक हैं.

जुलाई में ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह ने संसद को बताया कि जून 2021 तक देश भर के स्वयं-सहायता समूहों के पास 1.12 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है, जबकि कर्ज अदाएगी की दर 97.17 प्रतिशत है. लेकिन बैंकों ने ध्यान आकृष्ट कराया है कि महामारी के दौरान बहुत से जिलों में समूह ऋण वापसी नहीं कर पाए हैं.

जिला प्रशासन की ओर से साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2019-20 में बैंकों ने जिले में 75 मामलों को नॉन परफॉर्मिंग एसेट यानी डूबा हुआ कर्ज करार दिया था. 2020-21 के दौरान ये संख्या बढ़कर 152 हो गई और इस साल जुलाई तक ऐसे 142 मामले सामने आ चुके हैं.

लेकिन, इंद्रावती और स्कीम से लाभान्वित हो रहीं उसके जैसी अन्य महिलाएं स्कीम की कामयाबी का दम भरती हैं.

इंद्रावती ने कहा, ‘अगर ये समूह नहीं होता, तो हम भूखे मर जाते ’. उसके पीछे खड़ी शिवशक्ति समूह की अन्य सदस्यों ने भी सहमति में सर हिलाया.


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