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बाघों, भैंसों की गिनती हो सकती है तो जातियों की क्यों नहीं? BJP के भीतर मुखर हो रही जाति जनगणना की मांग

मोदी सरकार के भीतर जाति जनगणना कराने को लेकर कई तरह की आशंकाएं हैं, खासकर कुछ नई वास्तविकताएं सामने आने या फिर नहीं आ पाने की वजह से नए तरह के जातीय टकराव को लेकर.

प्रतीकात्मक तस्वीर | ANI

नई दिल्ली: संसद की तरफ से 127वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दिए जाने के बाद देशव्यापी स्तर पर जाति जनगणना की मांग के जोर पकड़ने के साथ भाजपा के लिए दो पाटों के बीच फंसने जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है.

यूपी और बिहार में अपने ही ओबीसी सांसदों की तरफ से इस मांग के समर्थन में सुर मिलाए जाने के कारण ऐसी जनगणना से संभावित जातीय हितों के टकराव की छाया भाजपा नेतृत्व पर भारी पड़ रही है. उसका डर दरअसल यह है कि चूंकि ओबीसी में दलितों की तरह एकरूपता नहीं है, ऐसे में अगर जनगणना ने मौजूदा जाति समीकरणों को बदल दिया तो मंडल की राजनीति फिर शुरू हो जाएगी. जो जातियां अधिसंख्यक होंगी, वे आरक्षण में एक बड़ा हिस्सा मांगेंगी और जिनकी संख्या घटेगी, वे असंतुष्ट और मोहभंग की शिकार हो जाएंगी.

इस मामले में पार्टी के ओबीसी सांसदों की भावनाओं को हाल ही में उत्तर प्रदेश के बदायूं से पहली बार सांसद बनीं संघमित्रा मौर्य ने तब व्यक्त कर दिया, जब उन्होंने संसद में संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान जाति जनगणना की मांग उठाई. हालांकि, पार्टी नेताओं ने उनके भाषण को उनकी अनुभवहीनता और राजनीतिक अपरिपक्वता का नतीजा बताया, लेकिन यह बात भी सामने आई कि ऐसी राय पर मौर्य अकेली नहीं हैं.

भाजपा के कई अन्य ओबीसी सांसदों का भी मानना है कि जाति के आधार पर जनगणना होनी चाहिए. क्योंकि, वे कहते हैं कि इससे ओबीसी की संख्या बढ़ेगी और इसके साथ ही कोटा भी बढ़ेगा.

दिप्रिंट ने यूपी और बिहार, जहां जाति आधारित जनगणना की मांग जोर पकड़ रही है और मंडल समर्थक राजद, जदयू और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियों ने भाजपा पर दबाव बढ़ा रखा है, से संबंधित भाजपा के कई ओबीसी सांसदों से बात की.

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यूपी, बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक

उत्तर प्रदेश सरकार के मोटे तौर पर लगाए गए अनुमानों के मुताबिक, अकेले यूपी में ही ओबीसी की आबादी लगभग 54 प्रतिशत है. भाजपा के 312 विधायकों में से 101 ओबीसी से हैं.

यूपी और बिहार में भाजपा गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक में एक बड़ी सेंध लगाने में कामयाब रही है. यही वजह है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह इस माह के शुरू में बीमार कल्याण सिंह से देखने लखनऊ गए थे, जिन्हें लोध जाति के सबसे मजबूत नेताओं में से एक माना जाता है. कल्याण सिंह के काफी करीबी माने जाने वाले बी.एल. वर्मा को केंद्रीय मंत्रिपरिषद में जगह भी दी गई थी. लोध समुदाय यूपी में आबादी का लगभग 5 प्रतिशत है.

उत्तर प्रदेश में ओबीसी का सबसे बड़ा हिस्सा यादव हैं, जो पूरी ओबीसी आबादी का 19.4 प्रतिशत हैं. इसके बाद कुर्मी (7.5 फीसदी), लोध (4.9 फीसदी), गड़रिया (4.4 फीसदी), निषाद (4.3 फीसदी), अंसार (4 फीसदी), तेली (4 फीसदी), जाट (3.6 फीसदी), प्रजापति (3.4 फीसदी), कश्यप (3.3 फीसदी), नाई (3 प्रतिशत) और शाक्य (3 प्रतिशत) का नंबर आता है. इनके अलावा, बाकी 32 प्रतिशत (कुल 54 प्रतिशत ओबीसी आबादी में से) में लोनिया, बदाई, गुज्जर, लोहार, धुनिया, सैनी और दर्जी जैसी जातियां शामिल हैं.

यादवों को छोड़कर, कुर्मी, कोइरी, लोध, निषाद और कुशवाहा जैसी अन्य ओबीसी जातियों ने यूपी में 2017 के विधानसभा चुनावों के साथ-साथ 2019 के आम चुनावों में भी भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था.

राज्य के भाजपा सांसद यह बात अच्छी तरह जानते हैं. भदोही (यूपी) से भाजपा सांसद रमेश चंद बिंद कहते हैं, ‘जब बाघों की जनगणना कराई जा सकती है, तो ओबीसी की क्यों नहीं? आखिर यह तो सबको पता ही होना चाहिए कि किस जाति के कितने सदस्य हैं. इसमें गलत क्या है? अभी हमारी जाति का अनुपात 15 से 18 प्रतिशत माना जाता है. अगर जनगणना होती है तो इसमें और वृद्धि हो सकती है.

बिंद मल्लाह जाति से ताल्लुक रखते हैं. उत्तर प्रदेश के जटिल चुनावी समीकरण को साधने के लिए भाजपा निषाद पार्टी के साथ गठबंधन के जरिये मल्लाह वोट अपने पक्ष में करने की कवायद में जुटी है.

पश्चिमी यूपी के कैराना लोकसभा क्षेत्र के भाजपा सांसद पंकज कुमार चौधरी कहते हैं, ‘जब केंद्र सरकार ने संसद में इतना अहम विधेयक पारित किया कि पिछड़ी जातियों की पहचान का काम राज्यों पर छोड़ दिया जाए, पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया है, मेडिकल कॉलेजों और केंद्रीय विद्यालयों में ओबीसी आरक्षण के प्रावधान किए गए हैं, तो जाति आधारित जनगणना का इतना महत्वपूर्ण कार्य भी किया जाना चाहिए.

हालांकि, आधिकारिक तौर पर भाजपा ने जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. केंद्र सरकार ने जाति-आधारित जनगणना का विचार भले ही खारिज कर दिया हो, लेकिन निजी बातचीत में पार्टी का किसी भी तरह की प्रतिबद्धता जताने में नाकाम रहना काफी मायने रखता है.

जाति आधारित जनगणना के पक्ष में पार्टी के भीतर ही काफी आवाजें उठने लगी हैं. सांसद भले ही पार्टी प्रोटोकॉल से बंधे हों लेकिन सरकार और पार्टी के लिए उनकी भावनाओं को बहुत समय तक नजरअंदाज कर पाना मुमकिन नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि विपक्षी दलों की तरफ से जाति आधारित जनगणना की मांग तेज किए जाने और ओबीसी समुदाय में भाजपा की बढ़ी पैठ के बीच इन ओबीसी सांसदों के लिए अपना जनाधार बचाए रखना बहुत जरूरी है.

उत्तर प्रदेश सरकार पहले ही भूटिया, पनवाड़िया, उमेरिया, मुस्लिम कायस्थ जैसी 39 जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है, जिससे राज्य में ओबीसी जातियों की कुल संख्या 79 हो जाएगी. इसे योगी आदित्यनाथ सरकार की तरफ से उठाया गया एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम माना जा रहा है.

निषाद समुदाय के सबसे प्रभावशाली नेताओं में शुमार रहे मुजफ्फरपुर (बिहार) के स्वर्गीय जयनारायण प्रसाद निषाद के पुत्र और भाजपा सांसद अजय निषाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘ऐसे देश में जहां शेरों, बाघों, हाथियों के लिए अलग-अलग गणना कराई जा सकती है—और यहां तक कि भैंसों के लिए भी—तो फिर ओबीसी की गिनती क्यों नहीं हो सकती? सरकार को इस पर एक पैसा भी अतिरिक्त खर्च करने की जरूरत नहीं है.’

बिहार में भाजपा के एक बड़े किसान और ओबीसी नेता हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र और मधुबनी से भाजपा सांसद अशोक यादव कहते हैं कि अगर जाति आधारित जनगणना होती है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. वैसे भी इससे समाज के विभिन्न वर्गों की वास्तविक स्थिति और उनकी हिस्सेदारी के बारे में पता चल सकेगा.


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‘जातीय टकराव की पूरी आशंका’

लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 120 की हिस्सेदारी वाले राज्यों बिहार और यूपी से भाजपा के ओबीसी सांसद स्पष्ट तौर पर जाति आधारित जनगणना के समर्थन में सबसे मुखर हैं. लेकिन इसका असर महाराष्ट्र के साथ-साथ उन सभी राज्यों में भी महसूस किया जा रहा है जहां राजनीतिक समीकरणों में ओबीसी एक महत्वपूर्ण फैक्टर हैं. भाजपा की असली चिंता यह है कि जाति आधारित जनगणना प्रचलित सामाजिक समीकरणों को पूरी तरह तोड़ देगी.

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘इससे जातिगत टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. जिन जातियों की संख्या कम हो जाएगी, वे निश्चित तौर पर इस तरह की कवायद की प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाएंगी. उनका कोटा भी घट सकता है. दूसरी ओर, अधिसंख्यक के तौर पर सामने आने वाली जातियां आरक्षण में एक बड़ा हिस्सा चाहेंगी. आरक्षण कोटे की मौजूदा सीमा बढ़ाने की मांग नए सिरे से तेज होगी और बढ़े कोटे में सभी जातियों को समायोजित करना भी आसान काम नहीं होगा. कोई भी सरकार ऐसी स्थिति नहीं चाहेगी.’

इस जाति आधारित जनगणना के प्रत्यक्ष नतीजे के तौर पर ओबीसी के बीच जातिगत टकराव उत्पन्न होने का खतरा, भाजपा के लिए एक बड़ी चिंता है. ऐसा इसलिए क्योंकि ओबीसी समुदाय के भीतर यादव, कुर्मी और जाट आदि को प्रमुख जाति माना जाता हैं. बाकी जातियां उनके खिलाफ विद्रोह कर सकती हैं.

भाजपा को ओबीसी समुदाय के भीतर मौजूद इन वर्गों का चुनावी फायदा मिलता रहा है. लेकिन जाति आधारित जनगणना ओबीसी जातियों के बीच विभाजन और विघटन का कारण बन सकती है और इससे हिंदुत्व के नाम में ध्रुवीकरण के जरिये सत्ता कायम रखने की भाजपा की कोशिशों के लिए भी खतरा उत्पन्न हो सकता है.

यूपी में कुशवाहा समुदाय से आने वाले एक सांसद का कहना है, ‘यादवों ने ओबीसी के लिए आरक्षण का पूरी तरह लाभ उठाया है. वे अब गरीब नहीं हैं. उनके लिए अब भी आरक्षण की जरूरत क्यों है? बाकी दमित और वंचित ओबीसी जातियों को अधिक लाभ मिलना चाहिए.’

यह तो एक बानगी भर है कि जो यह दर्शाती है कि अगर सरकार जाति-आधारित जनगणना की मांग पर नरम पड़ती है तो जल्द ही विभिन्न जातियों के बीच एक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी.

यूपी से ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का इस बारे में कहना है, ‘लोग राजीव गोस्वामी मामले (1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध में आत्मदाह का प्रयास करने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र के संदर्भ में) को पूरी तरह से भूल गए हैं. लेकिन क्षेत्रीय दल इसे अभी तक नहीं भूल पाए हैं. रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू करके अन्य ओबीसी की उपयुक्त मांगों को पूरा किया जा सकता है. व्यापक स्तर पर जाति जनगणना कराने की कोई आवश्यकता नहीं है.’

2017 में रोहिणी आयोग का गठन ही मुख्यत: उन ओबीसी जातियों को आरक्षण का लाभ देना सुनिश्चित करने के लिए किया गया था, जो 2,633 जातियों की केंद्रीय सूची से बाहर रह गई थीं. इसका कारण यह भी था कि सरकार की राय में जाति जनगणना की मांग को 100 प्रभावशाली जातियों का समर्थन हासिल है, जो 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण के सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं.

हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री रह चुके एक अन्य भाजपा सांसद का कहना है, ‘बेशक, यह आग का दरिया है लेकिन कभी न कभी इसे पार करना ही पड़ेगा. जब अन्य राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना के समर्थन में लामबंद हो रहे हैं, तो सरकार कब तक इस मांग की अनदेखी कर पाएगी? यह भारी पड़ सकता है. हमें वैकल्पिक रास्ते तलाशने होंगे.’

यह पूछे जाने पर कि क्या जाति-आधारित जनगणना के मुद्दे पर भाजपा के भीतर ही जातीय आधार पर किसी टकराव की स्थिति आ सकती है, पार्टी के एक प्रमुख नेता ने कहा कि इसकी संभावना नहीं दिखती क्योंकि प्रधानमंत्री खुद एक ओबीसी समुदाय से हैं और अंतत: उनकी बात ही मायने रखेगी.

उन्होंने आगे कहा, ‘निश्चित तौर पर हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि सवर्ण जातियां इससे नाराज न हों और यह भी तय करना होगा कि क्या ऐसा किए जाने के फायदे इससे जुड़े नुकसानों से ज्यादा हैं.’


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हर राज्य में अलग-अलग जातियां?

भाजपा नेताओं का यह भी कहना है कि मोदी सरकार ने अपने एजेंडे में ओबीसी कल्याण से संबद्ध योजनाओं को प्राथमिकता दी है. मेडिकल कॉलेजों (अखिल भारतीय कोटा) और केंद्रीय विद्यालयों में ओबीसी के लिए आरक्षण उसी दिशा में उठाया गया एक कदम है. पार्टी ओबीसी यात्राएं निकालेगी. इसके अतिरिक्त, राज्यों को बताया जाएगा कि वे ओबीसी जनगणना के लिए स्वतंत्र हैं, और ओबीसी सूची में कई जातियों को शामिल करने की उत्तर प्रदेश सरकार की पहल की तर्ज पर वह भी ओबीसी सूची और बढ़ा सकते हैं.

पिछले संसदीय सत्र के समापन पर दिल्ली में सभी ओबीसी मंत्रियों को सम्मानित करने वाले भाजपा ओबीसी विंग के प्रमुख के. लक्ष्मण की तरफ से दिप्रिंट को विस्तार से बताई गई रणनीति को ही बिहार की उपमुख्यमंत्री रेणु देवी द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है. उन्होंने बिहार में राज्यस्तरीय जाति आधारित जनगणना की बात कही है.

के. लक्ष्मण कहते हैं कि 2011 में हुई सामाजिक-आर्थिक पिछड़ी जाति की जनगणना ‘वैज्ञानिक तौर पर मजबूत नहीं थी और ओबीसी जातियों को कोई लाभ पहुंचाने वाली भी नहीं थी.’

उन्होंने कहा कि उस डाटा में 30 लाख से अधिक अनियमितताएं थीं. उन्होंने कहा, ‘हालांकि, हम जनजागरूकता अभियान चलाएंगे और लोगों को बताएंगे कि मोदी सरकार ने ओबीसी कल्याण के लिए कितना काम किया है. कई राज्यों में इसकी शुरुआत हो चुकी है. यही नहीं, राज्य सरकारें अपने स्तर पर ओबीसी समुदायों की सूची तैयार कर सकती हैं और वे चाहें तो ओबीसी जनगणना भी करा सकती हैं.’

कर्नाटक पहले ही राज्य स्तर पर जाति आधारित जनगणना करा चुका है. अखिलेश यादव ने भी घोषणा कर रखी है कि अगर वे यूपी में सरकार बनाते हैं, तो जाति के आधार पर जनगणना कराएंगे. रेणु देवी ने भी कुछ इसी तरह की बात कही है.

लेकिन विशेषज्ञ यह आशंका जताते हैं कि यदि यह जिम्मेदारी राज्यों के कंधे पर डाली गई तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है.

नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर सुधा पई, जिन्होंने दलितों से जुड़े मुद्दों पर काफी काम किया है, ने कहा, ‘सत्तारूढ़ पार्टियां पिछड़ी जातियों की सूची में उन जातियों को शामिल करेंगी जो उनका प्रमुख वोट बैंक हैं. कर्नाटक के मामले में पहले ही ऐसा देखा जा चुका है, जहां एक पार्टी ने वोक्कालिगाओं को पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किया, जबकि दूसरे ने लिंगायत समुदाय को इसमें जगह दी. राज्यों की तरफ से की जाने वाली किसी भी जनगणना के जरिये सभी जरूरतमंद वर्गों को सही मापदंडों के आधार पर आरक्षण नहीं मिल पाएगा.

उन्होंने कहा कि असली समस्या ओबीसी समुदाय के भीतर वर्ग विभाजन की है. उन्होंने कहा कि उच्च स्तर पर कुछ जातियों को छोड़कर मध्य और निचले स्तर पर शैक्षिक पिछड़ापन काफी है. पई ने कहा कि उन्हें उनका हक मिलना चाहिए, लेकिन जाति आधारित जनगणना के बाद यह विभाजन और गहरा सकता है

दलितों में एक तरह की एकरूपता है, लेकिन ओबीसी श्रेणी के भीतर बहुत अधिक विभाजन है. पई ने कहा कि कोई नहीं जानता कि किस जाति की कितनी आबादी है. उन्होंने कहा कि बहुत संभव है कि कम आबादी वाली जाति की संख्या और भी कम हो जाए है और अधिसंख्यक लोगों की संख्या और ज्यादा बढ़ जाए.

पई ने कहा, ‘इस तरह कुल मिलाकर इससे नए प्रकार का संघर्ष बढ़ सकता है. निष्कर्ष और डाटा की सटीकता इस पर भी निर्भर करेगी कि किस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं. यह सब आसान नहीं रहने वाला है. यही कारण है कि सरकार इतना ज्यादा हिचकिचाती रही है.’

हालांकि, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के अभय दुबे कहते हैं, ‘इस कवायद से कारीगर उपजातियों (जो किसी खास व्यापार से पहचाने जाते हैं) को फायदा होगा जो बड़ी ओबीसी जातियों के प्रभुत्व के कारण असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. और अक्सर उनके साथ मिलकर चलने के अनिच्छुक होते हैं. उन्हें भाजपा के साथ गठबंधन में कोई झिझक नहीं है. इसलिए भाजपा के हितों को तो कोई नुकसान नहीं होने वाला है. यही नहीं, अगर नई जातियों से नए नेता निकलते हैं तो यह एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत होगी. बेशक, इस पूरी प्रक्रिया में बड़ी जटिलताएं शामिल हैं जिन्हें संभालना आसान नहीं है.’

और इसमें राजनीतिक रूप से प्रासंगिक तमाम मुद्दों पर नीतिगत गतिरोध निहित है, जिसे सुलझाया जाना किसी दुःस्वप्न से कम नहीं है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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