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हैदराबाद का ये क़ब्रिस्तान कोरोनावायरस के शिकार उन शवों को दफ़नाता है, जिन्हें कहीं और जगह नहीं मिलती

हैदराबाद के उप-नगर बालापुर में स्थित फ़क़ीर मुल्ला क़ब्रिस्तान, अभी तक कोविड-19 का शिकार हुए, कम से कम 33 शवों की अंतिम आरामगाह बन चुका है.

प्रतीकात्मक तस्वीर/फोटो: एएनआई

बालापुर (हैदराबाद) : हैदराबाद से 16 किलोमीटर दूर, हाईवे की चहल-पहल आगे चलकर एक शांत लेकिन रास्ते पर ले जाती है, जो बालापुर के फ़क़ीर मुल्ला क़ब्रिस्तान पर ख़त्म होता है.

कलंक और डर की वजह से ये सुनसान क़ब्रिस्तान, जिसकी बाउण्डरी की दीवार भी नहीं है, हैदराबाद और तेलंगाना के दूसरे हिस्सों में, कोविड-19 का शिकार हुए मरीज़ों की, अंतिम आरामगाह बन गया है.

50 एकड़ में फैला ये क़ब्रिस्तान, जो बालापुर में तेलंगाना वक़्फ़ बोर्ड की दरगाह फ़क़ीर मुल्ला की ज़मीन का हिस्सा है, अक्तूबर 2018 से ही क़ब्रिस्तान का काम कर रहा है, लेकिन पिछले दो साल में इस जगह सिर्फ तीन क़ब्रें बनीं थीं.

ऐसी ख़बरों के बाद, कि दूसरे स्थानीय क़ब्रिस्तान कोविड पीड़ितों को अपने यहां दफ्न नहीं होने दे रहे हैं, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन (एआईएमआईएम) के अध्यक्ष और हैदराबाद के सांसद, असदुद्दीन ओवैसी सामने आए, और उन्होंने इस क़ब्रिस्तान को कोविड मरीज़ों के लिए आरक्षित करा दिया.

ओवैसी ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं बहुत दुखी था. लॉकडाउन शुरू होने के बाद मुझे बहुत फोन आते थे, कि शवों को शांति के साथ दफ्न भी नहीं होने दिया रहा, क्योंकि उनकी मौत कोविड से हुई थी, इसलिए शुरूआत में ही मैंने अपने कुछ कार्यकर्ताओं को, उस ज़मीन को इस्तेमाल करने के लिए कहा, जो इस मक़सद के लिए रखी हुई थी.’

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क़ब्रिस्तान का दस एकड़ का हिस्सा, अब कोविड-19 के मरीज़ों के लिए अलग कर दिया गया है. इसे अपना पहला शव 25 मार्च को मिला, जब सूबे में लॉकडाउन के ऐलान को तीन दिन हुए थे.

तब से बुद्धवार तक, कोरोनावायरस पीड़ितों के 33 शव यहां दफ़नाए जा चुके हैं. सूबे में अभी तक 105 मौतें दर्ज हो चुकी हैं.

दफ़नाने की प्रक्रिया कई बार रात में भी की जाती है. /फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

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‘मौत में इज़्ज़त’

फ़क़ीर मुल्ला क़ब्रिस्तान के काम की निगरानी करने वाले अहमद सज्जी के लिए, मौत में इज़्ज़त सबसे ऊपर है. उन्होंने दि प्रिंट से कहा,’हमें महसूस हुआ कि हर किसी को इज़्ज़त के साथ दफ्न होने का हक़ है. आख़िरकार, हम सभी को मरना है, वायरस हो या न हो.’

हालांकि यहां ज़्यादातर मुसलमान ही दफ्न होते हैं, लेकिन सज्जी कहते हैं कि क़ब्रिस्तान सभी मज़हबों के कोविड-19 पीड़ितों के लिए खुला है.

असदुद्दीन के भरोसेमंद मातहत सज्जी कहते हैं, कि उन्होंने इस क़ब्रिस्तान को इसलिए चुना, क्योंकि दूसरे क़ब्रिस्तानों ने कोविड-19 के पीड़ितों को, अपने यहां दफनाने से इनकार कर दिया था. उन्होंने कहा,’इन क़ब्रिस्तानों के क़रीब के घरों में रहने वाले लोग भी एतराज़ करते थे, और कभी कभी तो गेट बंद कर देते थे.’

सज्जी कहते हैं कि इतना डर है कि फ़क़ीर मुल्ला क़ब्रिस्तान में भी ज़्यादातर शव रात में लाए जाते हैं, ताकि आसपास रहने वाले लोकल लोग विरोध न करें.

जहां तक स्टाफ का ताल्लुक़ है, सज्जी कहते हैं कि उन्हें ऐसा कोई डर नहीं है. उन्होंने कहा, ‘हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है (एक दिन सब को मरना है).’

उनके मातहत हबीब के लिए, जो नमाज़ पढ़ना पसंद करते हैं, लावारिस जनाज़ों के लिए नमाज़ अदा करना, उनका एक तरीक़ा है मरने वालों को, इज़्ज़त के साथ विदाई देने का. हबीब ने दि प्रिंट को बताया,’वैसे भी, लॉकडाउन के नियम ज़्यादा लोगों को, जनाज़े में शिरकत की इजाज़त नहीं देते, लेकिन हमने ख़ासतौर से नोटिस किया है, कि परिवार और पड़ोस के लोग भी, कोविड पीड़ितों के जनाज़े के साथ जाने से डरते हैं, इसलिए मुझे लगता है कि मैं ही अपने तरीक़े से, उनके लिए कुछ कर रहा हूं.’

बुद्धवार को जब दिप्रिंट ने क़ब्रिस्तान का दौरा किया, तो ये हबीब ही थे जिन्होंने दो महिलाओं के शव उतारने में मदद की, और एंब्युलेंस स्टाफ से ज़्यादा बहादुरी और रहम दिखाया.

हमेशा मौजूद डर

लेकिन ये क़ब्रिस्तान भी परेशानियों से अछूता नहीं है.

सज्जी कहते हैं कि शुरुआती दिनों में, क़ब्रें खोदने के लिए उन्होंने एक जेसीबी अर्थमूवर लगाया था, लेकिन फिर उसका ड्राइवर भाग गया, जब उसे पता चला कि मरने वाले लोग कोविड-19 के शिकार थे.

सज्जी ने बताया, ‘ड्राइवर ने देखा कि एक शव काली किट में पैक था, जिसका मतलब होता है कि वो एक कोविड शव है. उसने अपनी मशीन को वापस घुमाया और भाग गया.’ इसका नतीजा ये हुआ कि कार्यकर्ताओं को ख़ुद से 8 फीट गहरी क़ब्रें खोदनी पड़ीं. लेकिन अब पिछले तीन-चार दिन से उन्हें एक दूसरी जेसीबी मशीन मिल गई है.

एक दूसरा स्टाफ वर्कर, 37 वर्षीय सिराजुद्दीन, जो क़ब्रिस्तान के पास ही एक कामचलाऊ घर में रहता है, का कहना है कि यहां स्टाफ को हर समय तैयार रहना पड़ता है. उसने बताया, ‘हमें चौकस रहना पड़ता है, क्योंकि रात में 12.30 बजे हमें फोन आता है, कि एक शव आ रहा है, और फिर 2 बजे तक वो पहुंच जाता है…इसलिए पूरी रात ऐसे ही निकल जाती है, और फिर हम सुबह में सोते हैं.’

उसने आगे कहा,’हमें लोगों को समझाना भी पड़ता है, कि इतना डरने की ज़रूरत नहीं है.’

सज्जी ने दिप्रिंट को बताया कि हर दफ्न पर, क़रीब 6,000 ख़र्च होते हैं, और ये पैसा सालारे-मिल्लत एजुकेशन ट्रस्ट से आ रहा है, जिसे असदुद्दीन अवैसी के भाई, एआईएमआईएम विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी ने स्थापित किया है.

उसने आगे कहा, ‘हमारे यहां एक कमीटी है और कुछ फंड्स हैं, जो एमपी ने इसके लिए मुहैया कराए हैं, इसलिए हम उसे ऐसे हालात में इस्तेमाल करते हैं, जहां कोई परिवार का सदस्य नहीं होता.’

ओवैसी बंधुयों की यहां पर बिल्कुल अंध-भक्ति है, क्योंकि यहां के तमाम कार्यकर्ता और क़ब्रिस्तान की निगरानी करने वाले, एआईएमआईएम के सदस्य हैं. सज्जी ने कहा,’अगर हमारे एमपी हमसे कुछ करने के लिए कहते हैं, तो हम वही करते हैं. वो हमेशा अपने लोगों के लिए अच्छा ही चाहते हैं.’

दफनाने के लिए कुछ ही परिवार के लोगों को है अनुमति/ फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

3 माह से 75 साल तक के शव होते हैं दफ्न

स्टाफ का कहना है कि यहां पर हर मौत, अपने साथ गहरा दर्द लेकर आती है, ख़ासकर इसलिए कि ज़्यादातर शवों को, उनके परिवारों की मौजूदगी के बिना दफ्न किया जाता है.

क़ब्रिस्तान में टीम के एक और सदस्य, हबीब आसिफ़ ने दिप्रिंट को बताया, कि सबसे कम उम्र का पीड़ित सिर्फ तीन महीने का था, जिसे मंगलवार को दफनाया गया था.

आसिफ ने बताया,’हमें भी बहुत अफसोस हुआ, जब हमने इतने छोटे से शव को दफ्न होते हुए देखा, और परिवार को कोई भी सदस्य पास नहीं था, क्योंकि उसके मां-बाप क्वारंटीन में थे, और कोई दूसरा रिश्तेदार आना नहीं चाहता था, क्योंकि इस बीमारी को एक कलंक समझा जाता है.’ उसने आगे कहा,’एंब्युलेंस ड्राइवर और स्टाफ का दिल भी टूटा हुआ था. हमने एक साथ नमाज़ पढ़ी, हम बस वही कर सकते थे.’

एंब्युलेंस ड्राइवर रहीम ने, जो उस नन्हें से शव को लाया था, दिप्रिंट को बताया:’मां-बाप को इत्तिला दी गई थी, लेकिन वो इतने दुखी थे कि हम उन्हें दफन के लिए नहीं ला सकते थे.’ उन्होंने ये भी कहा कि दादा बहुत आना चाहते थे, लेकिन इनफेक्शन के डर से, उनकी सोसाइटी के दूसरे लोगों ने उन्हें आने नहीं दिया.

अभी तक सबसे बुज़ुर्ग पीड़ित एक 75 साल का व्यक्ति था, जो क़ब्रिस्तान लाया जाने वाला कोविड का पहला मरीज़ था.

परिवारों के लिए, मरने वालों के दुख के बीच, इज़्ज़त के साथ दफ्नाया जाना, एक छोटी सी तसल्ली है.

करीमनगर के एक निवासी, जिन्हें ओवैसी के स्टाफ ने आख़िर में बालापुर के क़ब्रिस्तान तक पहुंचाया, ने कहा, ‘मेरे चाचा की मौत के बाद, हम चार क़ब्रिस्तानों में गए, और उम्मीद छोड़कर, एक श्मशान में भी गए, लेकिन किसी ने हमें अंदर नहीं आने दिया.’

एक 33 वर्षीय महिला ने, जिसका एक रिश्तेदार क़ब्रिस्तान में दफ्न किया गया था, दिप्रिंट को बताया: ‘हमें तीन जगह जाने से रोका. मेरे पति बता रहे थे सिर्फ यही एक क़ब्रिस्तान था, जहां इनकार नहीं किया.’

सरकार के फासला तय कर देने पर भी कलंक बरक़रार सरकारी आदेशों के बाद भी कोविड-19 के मरीज़ों को, एक कलंक की तरह देखा जा रहा है.

अप्रैल के पहले सप्ताह में, नगर निगम व शहरी विकास (एमए&यूडी) के अधिकारियों ने पूरे तेलंगाना के ज़िला कलेक्टरों, और निगम आयुक्तों से आग्रह किया था, कि कोविड-19 का शिकार हुए शवों के दफ्न और अंतिम संस्कार के लिए, उपयुक्त तैयारियां सुनिश्चित कराई जाएं.


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सरकार ने भी क़ब्रिस्तानों के प्रबंधकों को निर्देश दिया था, कि कोविड-19 पीड़ितों के लिए अलग जगह चिन्हित की जाए, अलग से एंट्रेंस बनाई जाए, और शव के पहुंचने से पहले क़ब्र के गढ़े में, सोडियम हाईड्रोक्लोराइड छिड़का जाए. 6 जून (शनिवार) को तेलंगाना वक़्फ़ बोर्ड की बैठक होनी है, जिसमें क़ब्रिस्तानों के मामले पर चर्चा की जाएगी, और फैसला किया जाएगा कि कोविड शवों के दफ्न से इनकार करने वाले केयर टेकर्स के खिलाफ, क्या कार्रवाई की जा सकती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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