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पंजाब के गांवों में ईसाई धर्म क्यों अपना रहे हैं वाल्मीकि हिंदू और मजहबी सिख

पंजाब में ईसाई धर्म को मानने वाले बढ़ रहे हैं, कुछ उसी तरह जो स्थिति तमिलनाडु जैसे राज्यों ने 1980 और 1990 के दशक में हुआ करती थी. गुरदासपुर के कई गांवों की छतों पर छोटे-छोटे चर्च बन रहे हैं.

गुरदासपुर के फतेहगढ़ चुरियन में एक कैथोलिक चर्च | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

अमृतसर/गुरदासपुर: फतेहगढ़ चुरियन की एक सुनसान गली में एक छत पर बने पेंटेकोस्टल चर्च में काफी रौनक है. एक लड़का माइक पर रैप गा रहा है, ‘रब्बा रब्बा रब्बा रब्बा, पिता परमेश्वर तेरी आत्मा रहे… रब्बा रब्बा रब्बा रब्बा रब्बा...’ और इसकी आवाज अधिकतम स्तर तक बढ़ गई है जो आस्था और उत्साह की भावना को एकदम चरम पर पहुंचा देती है. पादरी बार-बार अपने शिष्यों के सिर पर हाथ रख रहे हैं क्योंकि वे जबर्दस्त तरीके से कांप रहे हैं. कुछ बेहोश हो जाते हैं, कुछ रोते हैं. लेकिन हर किसी को बस किसी चमत्कार का इंतजार है.

पंजाब में ईसाई धर्म को मानने वाले बढ़ रहे हैं, कुछ उसी तरह जो स्थिति तमिलनाडु जैसे राज्यों ने 1980 और 1990 के दशक में हुआ करती थी. गुरदासपुर के कई गांवों की छतों पर छोटे-छोटे चर्च बन रहे हैं. सदियों से जारी जातिवादी व्यवस्था और उत्पीड़न से तंग आकर पंजाब के सीमावर्ती इलाके में रहने वाले मजहबी सिखों और वाल्मीकि हिंदू समुदायों से जुड़े तमाम दलितों ने एक सम्मानजनक जीवन और बेहतर शिक्षा की उम्मीद में ईसाई धर्म को अपनाना शुरू कर दिया है.

कमल बख्शी यूनाइटेड क्रिश्चियन फ्रंट के प्रदेश अध्यक्ष हैं जिस समूह की पंजाब के 12,000 गांवों में से 8,000 गांवों में समितियां हैं. उनके मुताबिक, अमृतसर और गुरदासपुर जिलों में चार ईसाई समुदायों के 600-700 चर्च हैं. इनमें से 60-70 फीसदी पिछले पांच सालों में अस्तित्व में आए हैं.

पंजाब में ईसाई धर्म के साथ पगड़ी से लेकर टप्पे तक कई सांस्कृतिक प्रतीकों को अपनाया गया है. यूट्यूब पर आपको ईसाई गिद्दा (एक लोक नृत्य), टप्पे (संगीत का एक रूप) और बोलियां (दोहे गाना), और पंजाबी में यीशु की प्रार्थना वाले गीत आसानी से मिल जाएंगे. विजुअल में ग्रामीण पंजाबी सेटअप में तमाम पुरुष और महिलाएं इन्हें गाते मिल जाएंगे.

इस पर आपको 14 मिलियन व्यूज के साथ एक गाना मिल जाएगा, ‘हर मुश्किल दे विच, मेरा येशु मेरे नाल नाल है. बाप वांगु करदा फिकर, ते मां वांगु रखदा ख्याल है.’

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सिख धर्म बदल लेने के बाद भी कुछ लोग अपनी पगड़ी नहीं छोड़ते हैं. ऐसे ही एक श्रद्धालु ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘कपड़े किसी का धर्म निर्धारित नहीं करते हैं. मैं बचपन से पगड़ी पहन रहा हूं. अब ईसाई बन जाने के बाद मैं इसे क्यों उतार दूं? यह तो मेरी पहचान का एक हिस्सा है.’

श्रद्धालु चर्च में प्रवेश करने से पहले अपन सिर ढक लेते हैं, जैसा गुरुद्वारों में होता है. हालांकि यह नियम केवल महिलाओं पर लागू होता है.

फतेहगढ़ चुरियन में एक चर्च में प्रार्थना करती महिला | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

नाम के मामले में भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. राज्य में अधिकांश ईसाइयों की तरफ से चर्च के प्रति अपनी निष्ठा जताने के लिए उपनाम ‘मसीह’ का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन कई लोगों ने अपने पिछले नाम नहीं बदले हैं.

उनके नाम न बदलने का एक बड़ा कारण है: दलितों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ उठाना, जो कि धर्मांतरण करने की स्थिति में उन्हें नहीं मिल सकता है. यही वजह है कि जनगणना में पंजाब की ईसाई आबादी का अधिकांश हिस्सा आंकड़ों से बाहर ही रहता है, जिसकी वजह से राज्य की राजनीति में इस जनसांख्यिकीय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है.

इसने राज्य में आरक्षण पर एक बहस को भी जन्म दिया है- क्या धर्मांतरित दलित अब हाशिए पर नहीं हैं? पंजाब में ईसाई संगठनों की मौजूदा मांग है कि सरकारी नौकरियों में 2 प्रतिशत आरक्षण मिले और राज्य अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की जाए.


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सीमावर्ती गांवों में धर्मांतरण से सिख संगठन नाराज

साठ साल की सुखवंत कौर के लिए जीसस के अलावा कोई सहारा नहीं है. अमृतसर जिले के दुजोवाल गांव की रहने वाली सुखवंत ईंटों से बने एक कमरे के घर में रहती है, जिसमें न तो कोई चूल्हा है और न ही खाना पकाने के लिए कोई परिवार. उसके घर की शोभा तो केवल यीशु का पोस्टर ही बढ़ा रहा है.

वह कहती हैं, ‘ईसाई धर्म ने मुझे समुदाय की भावना दी है, यीशु ने मेरे जीवन को नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा दिलाया.’ पहले मजहबी सिख रही सुखवंत ने ईसाई धर्म अपनाया क्योंकि उसे चर्च जाना पसंद था.

सुखवंत की तरह ही पंजाब के सीमावर्ती इलाके अमृतसर, गुरदासपुर और फिरोजपुर जिलों में रहने वाले कई वाल्मीकि और मजहबी लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है.

अमृतसर के दुजोवाल गांव में अपने घर में सुखवंत कौर | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

दिप्रिंट ने पाकिस्तान की सीमा से करीब दो किलोमीटर दूर एक गांव दुजोवाल का दौरा किया, जहां सरपंच सैमुअल मसीह के मुताबिक, लगभग 30 प्रतिशत मतदाता ईसाई हैं. गांव में दो गुरुद्वारे हैं और साथ ही दो चर्च और एक मंदिर भी है.

एक अन्य सीमावर्ती गांव अवान- जो अमृतसर जिले के अजनाला विधानसभा क्षेत्र में सबसे बड़ा है- की आबादी 10,000 के करीब है. यहां विभिन्न संप्रदायों वाले चार चर्च हैं, रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट संप्रदाय, जिनमें पेंटेकोस्टल और साल्वेशन आर्मी शामिल हैं.

लोगों के ईसाई धर्म अपनाने से पंजाब और कई अन्य राज्यों में गुरुद्वारों के प्रबंधन संभालने वाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति में खासी नाराजगी है. समिति ने ईसाई धर्मांतरण को ‘रोकने’ की पहल शुरू की है. ‘घर घर अंदर धर्मसाल ’ अभियान एक ऐसा ही प्रयास है, जहां स्वयंसेवक घर-घर जाकर सिख धर्म का प्रचार-प्रसार करते हैं.

हाल ही में सिखों की सर्वोच्च धार्मिक इकाई अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने आरोप लगाया था कि ईसाई सीमावर्ती गांवों में सिखों को जबरन और प्रलोभन देकर धर्मांतरित करा रहे हैं.


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आरक्षण नहीं, जनगणना से ‘गायब’

भले ही राज्य में ईसाई मतदाताओं की संख्या बढ़ रही हो लेकिन राज्य की राजनीति में समुदाय का प्रतिनिधित्व नगण्य है. आजादी के बाद से पंजाब विधानसभा के लिए एक भी ईसाई विधायक निर्वाचित नहीं हुआ है.

प्रतिनिधित्व की यह कमी पंचायत स्तर पर भी ईसाइयों को प्रभावित करती है. अवान गांव के रहने वाले 25 वर्षीय सुखविंदर मसीह ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारे गांव में जाट (सिख) वोट से ज्यादा ईसाई वोट है. और फिर भी वे ईसाई या मजहबी को पंचायत का सदस्य नहीं बनने देते.’

वह आगे कहते हैं, ‘अगर हमारे उम्मीदवार आरक्षित सीट पर जीत भी जाते हैं तो भी वे उनके कार्यकाल को कोई वैधता नहीं देते. अगर अकाली जीते, तो एक जाट सरपंच है. कांग्रेस जीतती है तो भी जाट सरपंच. कोई हमारी नहीं सुनता, वे सभी हमें दबाने की कोशिश करते हैं.’

2011 की जनगणना के मुताबिक, अमृतसर जिले की आबादी में ईसाई 2 प्रतिशत से कुछ ज्यादा और गुरदासपुर में 7.68 प्रतिशत हैं, जबकि इन जिलों में उनकी संख्या सबसे ज्यादा है.

न्यूज रिपोर्टों में गुरदासपुर जिले में ईसाई वोट शेयर 17 से 20 प्रतिशत तक आंका गया है. 2019 के लोकसभा चुनावों में गुरदासपुर निर्वाचन क्षेत्र में आम आदमी पार्टी (आप) के ईसाई उम्मीदवार पीटर मसीह को हार का सामना करना पड़ा था, जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सनी देओल और कांग्रेस के सुनील जाखड़ के बाद तीसरे स्थान पर रहे थे.

आप नेता और क्रिश्चियन समाज फ्रंट- जिसके पंजाब में एक लाख सदस्य है- के अध्यक्ष सोनू जाफर कहते हैं, ‘अगर किसी ईसाई को कभी टिकट मिलता भी है, तो वह केवल गुरदासपुर में ही मिलता है. इस बार मैं अमृतसर जिले के अजनाला निर्वाचन क्षेत्र से टिकट की मांग कर रहा हूं. वहां लगभग 43,000 ईसाई मतदाता हैं.’

कमल बख्शी का कहना है कि जनगणना में ईसाइयों की गिनती बहुत कम है. उनका दावा है, ‘यहां तक कि अगर कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना भी लेता है, तो भी आधिकारिक दस्तावेजों में अपना नाम नहीं बदलता है ताकि उसे आरक्षण का लाभ मिल सके. इस वजह से भी ईसाई आबादी बहुत कम है. गुरदासपुर में कम से कम 23 प्रतिशत ईसाई होंगे, अमृतसर में भी आंकड़े इसी तरह के होने चाहिए.’

कई ईसाई खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं क्योंकि आरक्षण के लाभों के हकदार नहीं होते हैं, भले ही उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति मजहबी और वाल्मीकि के समान ही है.

गुरदासपुर जिला कांग्रेस अध्यक्ष रोशन जोसेफ | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

फतेहगढ़ चुरियन निवासी 38 वर्षीय मोनिका कहती हैं कि उन्हें समझ नहीं आता कि उनके समुदाय के साथ ऐसा क्यों हो रहा है. मोनिका ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘ईसाइयों को हर चीज के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है. हमारा समुदाय गरीबतम लोगों में शुमार है, लेकिन फिर भी हमें कोई आरक्षण नहीं मिलता है. कोई हमारी बातों पर ध्यान क्यों नहीं देना चाहता? पहली बार आपने ही यहां आकर हमसे पूछा है कि हमें क्या चाहिए.’

बख्शी के अनुसार, पंजाब में 95 प्रतिशत ईसाई धर्मांतरित हैं और इसमें से अधिकांश दलित पृष्ठभूमि से आते हैं. इसीलिए आरक्षण की कमी को भेदभावपूर्ण माना जाता है.

जमीनी स्तर के अन्य नेता भी इस बात से सहमति जताते हैं. कांग्रेस के गुरदासपुर जिले के अध्यक्ष रोशन मसीह कहते हैं, ‘एक बार जब कोई दलित ईसाई बनना चुन लेता है, तो उसे आरक्षण का लाभ मिलना बंद हो जाता है और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. इसलिए, लोग अपनी पहचान छिपाने की कोशिश करते हैं, यही वजह है कि सरकारी आंकड़े राज्य में ईसाइयों की सही संख्या को नहीं दर्शाते. दलित सिख और हिंदू समुदाय के लिए तय आरक्षण के लाभों का ईसाइयों तक नहीं पहुंचाना भेदभावपूर्ण है, जिन्हें इसकी उतनी ही आवश्यकता है.’


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धर्मांतरण की क्या हैं वजहें

पंजाब के गांवों में जीर्ण-शीर्ण अवस्था वाले ‘दलित’ गुरुद्वारे और भव्य ‘जट्ट’ गुरुद्वारे नजर आना आम बात है. अक्सर विभिन्न जातियों के दो या तीन गुरुद्वारे होते हैं, जो इस क्षेत्र में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी होने को भी दर्शाते हैं.

इससे अलगाव की भावना महसूस होती है और चर्च समुदाय की भावना देते हैं. चर्च ऑफ नॉर्थ इंडिया में सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के निदेशक डेनियल बी. दास ने दिप्रिंट को बताया कि ‘पंजाब में 95 प्रतिशत ईसाई एक ही वर्ग और एक ही जाति से आए हुए हैं, इसलिए यहां भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, जैसा कभी-कभी दक्षिण भारत में होता है. दलित ईसाई धर्म में मिलने वाली सुरक्षा और समानता के लिए ही धर्मांतरण का रास्ता अपनाते हैं.’

बख्शी आगे कहते हैं, ‘वे कहते हैं कि हम लोगों को पैसे का प्रलोभन देते हैं जबकि सच्चाई यह है कि लोग चर्च में समानता की तलाश करते हैं. अन्य धर्मों में छुआछूत जैसी कुछ कुप्रथाएं हैं जिन्हें वे दूर नहीं करना चाहते.’

अच्छी शिक्षा मिल पाना भी एक कारण है जिसकी वजह से लोग ईसाई धर्म अपनाते हैं. सेंट फ्रांसिस कॉन्वेंट स्कूल, फतेहगढ़ चुरियन के स्टाफ ने दिप्रिंट को बताया कि संगठन बच्चों को मुफ्त या रियायती शिक्षा प्रदान करने पर हर साल 90 लाख रुपये खर्च करता है. स्कूल के 3,500 छात्रों में से करीब 400 किसी भी तरह का कोई भुगतान नहीं करते. कर्मचारियों का कहना है कि फतेहगढ़ चुरियन के 20 किलोमीटर के दायरे में पांच-छह गांवों के छात्रों को बसें मुफ्त में स्कूल पहुंचाती हैं.

फतेहगढ़ चुरियन में एक घर के छत पर बनी पेंटेकोस्टल चर्च में महिला को आशीर्वाद देते पादरी | शुभांगी मिश्रा | दिप्रिंट

नवा पिंड की सोनिया मसीह बताती हैं, ‘मेरे बच्चे यहां 200-300 रुपये में पढ़ते हैं और उनका जीवन अच्छा चल रहा है. मैं चर्च की बहुत आभारी हूं, वे सच में लोगों की मदद करते हैं. फादर और सिस्टर हमेशा एक सच्चे कैथोलिक की मदद के लिए आगे खड़े रहते हैं.’

डेनियल बी. दास बताते हैं कि अमृतसर में बिशप प्रदीप कुमार सुमंतराय के नेतृत्व में शिक्षा पर काफी जोर दिया गया है. वह कहते हैं कि रोमन कैथोलिकों ने अमृतसर और तरनतारन जिलों में पांच-छह स्कूल खोले हैं. इसके अलावा स्कूल के बाद लगने वाली 40 कक्षाओं में 880 के करीब बच्चे शामिल होते हैं.

दास ने बताया, ‘उन्होंने (बिशप ने) संस्थानों के प्रमुखों को सख्त निर्देश दिया है कि किसी भी बच्चे को स्कूलों में प्रवेश से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उनके माता-पिता पढ़ाने का खर्च वहन नहीं कर सकते, भले ही बच्चा किसी भी धर्म का हो.’

लेकिन शिक्षा पर ध्यान देने के बावजूद ईसाई नेता कहते हैं कि उनके समुदाय में इसकी काफी कमी हैं. आप नेता और क्रिश्चियन फ्रंट के अध्यक्ष जाफर कहते हैं, ‘ईसाइयों के सामने सबसे बड़ी समस्या शिक्षा की कमी है. शिक्षा की गुणवत्ता बहुत खराब है और पंजाब में अधिकांश ईसाई मजदूर पृष्ठभूमि और गरीब परिवारों से आते हैं, वे राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं हैं और इस समुदाय को प्रतिनिधित्व के अभाव का भी सामना करना पड़ रहा है.’

हालांकि, सुखवंत कौर का कहना है कि जब वोटिंग की बात आती है तो उनके लिए धर्म कोई फैक्टर नहीं होता है. वह कहती हैं, ‘तुम मेरे लिए घर बनाओ, मुझे राशन दो और मैं तुम्हें वोट दूंगी.’

और जब उनसे धर्मांतरण के बदले पैसे लेने के बाबत पूछा गया तो वह हंस पड़ीं. उन्होंने कहा, ‘पादरी भी मेरी तरह ही गरीब हैं. उनके पास शांति के अलावा और कुछ नहीं है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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