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फ्री अनाज, फ्यूल टैक्स टालना- गुजरात, HP चुनावों को देख राजनीति को अर्थव्यवस्था से आगे रख रही मोदी सरकार

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आरबीआई का रेपो रेट बढ़ाना भी पिछले हफ्ते घोषित उन फैसलों में शामिल है, जो राज्य विधानसभा चुनावों में राजनीतिक लाभ दिला सकते हैं लेकिन इसकी आर्थिक लागत चुकानी पड़ सकती है.

प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के लाभार्थी | प्रतीकात्मक तस्वीर | एएनआई

नई दिल्ली: क्या मोदी सरकार इस साल गुजरात और हिमाचल और अगले साल कुछ और राज्यों में होने वाले महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर बेहद आवश्यक माने जा रहे आर्थिक कदमों के बजाये राजनीतिक लाभ को प्राथमिकता दे रही है.

अगर पिछले एक हफ्ले में लिए गए महत्वपूर्ण फैसलों को देखें तो उत्तर हां ही नजर आता है. इन फैसलों में भारतीय रिजर्व बैंक का रेपो रेट में 50 आधार अंकों (बीपीएस) की वृद्धि करना, केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएम-जीकेएवाई) के तहत मुफ्त भोजन कार्यक्रम तीन महीने और आगे बढ़ाना और वित्त मंत्रालय का गैर-मिश्रित ईंधन पर टैक्स लगाने का फैसला टालना आदि शामिल हैं.

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इन सभी फैसलों से महत्वपूर्ण राजनीतिक लाभ मिलना संभव है लेकिन उनकी आर्थिक लागत चुकानी पड़ सकती है.


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रेपो दर में कटौती अप्रभावी

रेपो रेट (जिस दर पर केंद्रीय बैंक वाणिज्यिक बैंकों को पैसा उधार देता है) पर कोई निर्णय आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की तरफ से लिया जाता है और यह आमतौर पर वित्त मंत्रालय के साथ व्यापक परामर्श के बाद तय होता है. इसके अलावा, एमपीसी के तीन सदस्य सरकार ही नियुक्त करती है.

पिछले एक दशक में रेपो रेट और खुदरा मुद्रास्फीति के विश्लेषण से पता चला है कि दोनों के बीच बमुश्किल ही कोई संबंध है. इसका मतलब है कि ऐसा कोई जरूरी नहीं है कि रेपो रेट में बढ़ोतरी के बाद मुद्रास्फीति में गिरावट आएगी या रेपो रेट में कटौती से उच्च मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी.

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ग्राफिक : रमनदीप कौर/दिप्रिंट

विशेषज्ञों के मुताबिक, इसका कारण काफी हद तक संरचनात्मक है.

बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने दिप्रिंट को बताया, ‘रेपो दर और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के बीच एक तरह से कोई संबंध नहीं है.’

उन्होंने समझाया, ‘इसके पीछे विभिन्न फैक्टर हो सकते हैं. एक तो रेपो रेट प्रभावी हो इसके लिए जरूरी है कि इसे ठीक से ट्रांसमिट किया जाए. यानी बैंकों को अपनी उधार दरों में उतना ही और तेजी से बदलाव करना चाहिए.’

सबनवीस ने जिस अन्य फैक्टर पर ध्यान आकृष्ट किया, वह यह है कि भारत में अधिकांश खपत और सीपीआई में मापी गई अधिकांश वस्तुओं का उपभोग बिना किसी उधार के किया जाता है.

उन्होंने आगे कहा, ‘लोग भोजन, इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पाद खरीदने, स्वास्थ्य सेवाओं के भुगतान या फिर अपने घर का किराया चुकाने के लिए उधार नहीं लेते हैं. इसलिए, लेंडिंग रेट का इन चीजों की खरीद और उनकी कीमतों पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है.’

यहां ध्यान देने वाली एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की उच्च मुद्रास्फीति बड़े पैमाने पर आयातित होती है, जैसा कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा भी है.

पिछले साल भारत ने अपनी कच्चे तेल की आवश्यकता का करीब 86 प्रतिशत आयात किया, जिसका मतलब है वैश्विक तेल की कीमतें चुकाना मजबूरी है जो यूक्रेन युद्ध के बाद से बढ़ गई हैं.

आरबीआई और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल (पीपीएसी) का डेटा बताता है कि पिछले एक दशक में भारत में कच्चे तेल की कीमतों और खुदरा मुद्रास्फीति के बीच एक मजबूत संबंध नजर आया है.

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हालांकि, यह जोखिम हमेशा बना रहता है कि उच्च ब्याज दरें भारत के आर्थिक सुधारों को धीमा कर देंगी, जिसे यूक्रेन युद्ध और वैश्विक वृद्धि लड़खड़ाने जैसी बाधाओं को देखते हुए काफी जरूरी माना जा रहा है.

योजना आयोग के पूर्व प्रधान आर्थिक सलाहकार और भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन ने दिप्रिंट को बताया, ‘जहां तक ग्रोथ की बात है, निवेश की डिमांड समग्र मांग से जुड़ी हुई है.’

उन्होंने समझाया, ‘इसलिए, अगर इन्वेस्टमेंट डिमांड के कुछ हिस्से को दबाया जाता है (उच्च दरों के कारण) तो मांग कम हो जाएगी और इसका अर्थ है कि ग्रोथ पर नीचे की ओर दबाव बढ़ेगा. और मुद्रास्फीति कम करने के लिए आपको यही करने की जरूरत है.’

लेकिन महंगाई जैसे मुद्दों पर कुछ करते रहते दिखने के राजनीतिक फायदे हैं. यह किसी महत्वपूर्ण चुनाव से पहले और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जैसे अभी गुजरात में चुनाव होने वाला है.


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हतोत्साहन वाले कदम?

एक अन्य फैसला जो दर्शाता है कि सरकार वित्तीय स्थिति से ज्यादा चुनावी लाभ के बारे में सोच रही है, वह है पीएम-जीकेएवाई मुफ्त भोजन कार्यक्रम का तीन महीने के लिए विस्तार.

मार्च 2020 में शुरू की गई यह योजना अप्रैल से जून 2020 तक चलने वाली थी. तबसे कई बार विस्तारित, यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत आने वाले सभी लाभार्थियों के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न मुहैया कराती है.

इसके तहत अप्रैल 2020 से लगभग 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न मुहैया कराया जा रहा है.

योजना पर पहले ही 3.45 लाख करोड़ रुपये की अच्छी-खासी रकम खर्च होने की उम्मीद थी और अब इस महीने विस्तार की घोषणा के बाद यह संशोधित व्यय 3.91 लाख करोड़ रुपये पहुंच जाने के आसार हैं.

एनएफएसए पात्रता और उनसे ऊपर लाभार्थियों को महामारी के पहले डेढ़ साल के दौरान मुफ्त भोजन मुहैया कराया जाना एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम था लेकिन इसे बार-बार विस्तारित करना एक मजबूत आर्थिक सुधार, रोजगार वृद्धि और ग्रामीण भारत में आर्थिक गतिविधियां बढ़ाने को लेकर सरकार के दावों के साथ मेल नहीं खाता है.

यूरोप और अमेरिका इस बात के गवाह हैं कि महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाएं लोगों को सामान्य से अधिक समय तक कार्यबल से बाहर रहने को बढ़ावा दे रही थीं. चिंता की बात यह है कि कुछ ऐसे ही वास्तविक प्रमाण ग्रामीण भारत से भी सामने आने लगे हैं.

सबनवीस ने कहा, ‘सब्सिडी या मुफ्त सामान देने की बात आती है तो हमेशा एक नैतिक दुविधा होती है.’

उन्होंने बताया, ‘खतरा हमेशा यही होता है कि यह उस व्यवहार को हतोत्साहित कर सकता है जो बेहतर होता है. उदाहरण के तौर पर ऋण माफी कर्ज लेने वालों के समय पर भुगतान के अच्छे व्यवहार को हतोत्साहित कर सकती है. इसी तरह मुफ्त भोजन मुहैया कराना कम वेतन वाले श्रमिकों को काम न करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.’

हालांकि, सबनवीस का मानना है कि यदि सरकार उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजनाओं के माध्यम से उद्योग को प्रोत्साहन दे सकती है, तो उन लोगों को सब्सिडी भी दे सकती है जिन्हें उनकी जरूरत है.


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अर्थशास्त्र पर ऑप्टिक्स?

वित्त मंत्रालय ने 30 सितंबर को घोषणा की थी कि वह गैर-मिश्रित ईंधन (जो इथेनॉल मिश्रित नहीं होता है और ‘अशुद्ध’ माना जाता है) पर एक टैक्स पर अमल को स्थगित रहा है, जिसकी घोषणा 1 फरवरी 2022 को आम बजट 2022-23 में की गई थी.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा था, ‘मिश्रित ईंधन इस सरकार की प्राथमिकता है. ईंधन सम्मिश्रण को प्रोत्साहित करने के लिए गैर-मिश्रित ईंधन पर अक्टूबर 2022 के पहले दिन से 2 रुपये/लीटर का अतिरिक्त अंतर उत्पाद शुल्क लगेगा.’

हालांकि, 30 सितंबर की अधिसूचना में कहा गया है कि गैर-मिश्रित पेट्रोल के लिए टैक्स की समयसीमा 1 नवंबर 2022 तक और गैर-मिश्रित डीजल के लिए 1 अप्रैल 2023 तक बढ़ा दी गई है.

राजस्व सचिव तरुण बजाज ने आम बजट के बाद प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कहा था, ‘हमारी इच्छा इस टैक्स को वसूलने की नहीं है क्योंकि टैक्स बहुत कम होगा बल्कि इच्छा यही है कि इसकी इस हद तक ब्लेंडिंग हो कि इससे देश को फायदा हो.’

यदि राजस्व कम होगा, तो इसका मतलब यही होगा कि जनता पर प्रभाव भी कम होगा. हालांकि, टैक्स वृद्धि टालने का विकल्प काफी सोच-समझकर अपनाया गया है.

अगर भारत तेल आयात पर अपनी निर्भरता घटाना चाहता है, तो ईंधन में इथेनॉल का मिश्रण जरूरी है. इसे प्रोत्साहित करने के लिए गैर-मिश्रित ईंधन पर टैक्स एक प्रभावी तरीका है. कुछ निहितार्थों को ध्यान रख टैक्स को टालना भारत के आर्थिक उद्देश्यों को हासिल करने में देरी करा सकते हैं.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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