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मैक्रो इकोनॉमिक्स, घरेलू प्रतिस्पर्धा को कैसे प्रभावित करता है रुपया, और क्यों इसकी गिरावट केवल बुरी ख़बर नहीं

तेल के आयात पर भारत की अत्यधिक निर्भरता, रुपए को बेहद संवेदनशील बना देती है. फिलहाल ये सबसे ख़राब प्रदर्शन कर रही एशियाई मुद्रा है.

प्रतिनिधि छवि | फोटो: पिक्साबे

नई दिल्ली: यूक्रेन पर रूस के हमले से दुनिया भर में दूरगामी प्रभाव शुरू हो गए हैं और अर्थव्यवस्थाएं तेज़ी से तबाही हो रही हैं. भारत की अर्थव्यवस्था भी अपवाद नहीं है. जब से लड़ाई शुरू हुई है भारतीय रुपया (आईएनआर) 3.2 प्रतिशत कमज़ोर हो गया है और कच्चे तेल के दाम क़रीब 30 डॉलर प्रति बैरल बढ़ गए हैं.

इसी अवधि में, भारत के शेयर बाज़ार में भी काफी गिरावट आई है. बीएसई सेंसेक्स 4.5 फीसदी नीचे है, जबकि निफ्टी 50 4.2 फीसदी नीचे है.

लेकिन, जिस सुर्ख़ी ने सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा है, वो है रुपए का कमज़ोर होना, जो एशिया की सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा बनकर उभरा है, जिसके बाद कोरियाई वॉन और फीलिपीन का पेसो है, जिन दोनों में क़रीब 1.6 प्रतिशत की गिरावट आई है.

सोमवार को, भारतीय करेंसी डॉलर के मुकाबले गिरकर, अभी तक के अपने सबसे निचले स्तर 77.01 पर आ गई है. संयोगवश इसके साथ ही भारत की कच्चे तेल की बास्केट के दाम भी बढ़कर 126.36 डॉलर पहुंच गए हैं, जो पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल के आंकड़ों के अनुसार, जुलाई 2008 के बाद अब तक का सबसे ऊंचा स्तर था.

बुधवार को रुपया डॉलर के मुकाबले 76.56 पर बंद हुआ.

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आम धारणा ये है कि गिरती हुई मुद्रा अर्थव्यवस्था के लिए सिर्फ बुरी ख़बर होती है. भारतीय संदर्भ में ऐसा नहीं है. इसके कई गुण और दोष हैं.

दिप्रिंट समझाता है कि रुपए में गिरावट, अर्थव्यवस्था को किस तरह प्रभावित करती है, और क्यों ये सिर्फ बुरी ख़बर नहीं है.


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अच्छी ख़बर- निर्यातकों की सहायता, बेहतर घरेलू प्रतिस्पर्धा

कमज़ोर होता रुपया देश के निर्यात को फायदा पहुंचाता है, क्योंकि निर्यातकों को वस्तुओं की उसी मात्रा के लिए ज़्यादा मूल्य मिलता है, जो वो डॉलर में निर्यात करते हैं.

सॉफ्टवेयर और टेक्सटाइल्स जैसे भारतीय उद्योगों को, जहां आयातित कच्चे माल पर निर्भरता सीमित होती है, वास्तव में रुपए के अवमूल्यन से ज़्यादा फायदा पहुंच सकता है.

2021-22 के लिए, भारत के 400 बिलियन डॉलर के अपने निर्यात लक्ष्य से आगे निकल जाने की संभावना है.

अप्रैल-फरवरी के दौरान देश से माल का निर्यात 374.05 बिलियन डॉलर था, जो एक साल पहले की इसी अवधि के 256.55 बिलियन डॉलर के निर्यात में, 45.80 प्रतिशत का उछाल था.

सिर्फ निर्यात ही नहीं, कमज़ोर रुपया घरेलू उद्योग में प्रतिस्पर्धा को भी बढ़ा देता है. आयात का मूल्य बढ़ने से वस्तुओं और सेवाओं के खुदरा दाम बढ़ जाते हैं, और उपभोक्ता का रुझान देश में बनी किफायती वस्तुओं की ओर हो जाता है.

एक मध्यम आकार की ब्रोकरेज फर्म के एक अर्थशास्त्री ने, नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘भारत कीमत के प्रति संवेदनशील बाज़ार है. इसकी एक स्पष्ट मिसाल है मोबाइल फोन्स का बाज़ार. अगर विदेशी चीज़ों की क़ीमतें बढ़ती हैं, तो लोग देश में निर्मित वस्तुओं की ओर चले जाएंगे, जिससे भारतीय वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा में इज़ाफा होगा’.

कमज़ोर रुपया भारतीय उपभोक्ताओं के लिए, आयात को भी और महंगा कर देगा, जिससे देश में बनी चीज़ें अपेक्षाकृत सस्ती हो जाएंगी. ये आगे चलकर ऐसी स्वदेशी कंपनियों के पक्ष में जाएगा, जिन्हें सस्ते आयात से कड़ा मुक़ाबला झेलना होता है.

बिगड़ता राजकोषीय गणित

मोदी सरकार के ख़र्च का एक बड़ा हिस्सा ग़रीबों और किसानों को सब्सिडी मुहैया कराने में जाता है. फर्टिलाइज़र पर छूट सब्सिडीज़ का एक बड़ा हिस्सा होती है, जिसके मौजूदा वित्त वर्ष के लिए 1.4 लाख करोड़, और 2022-23 के लिए 1.05 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है.

घरेलू ऊर्वरक उद्योग, यूरिया तथा तैयार ऊर्वरकों के लिए कच्चे माल की ज़रूरत पूरा करने में, काफी हद तक आयात पर निर्भर करता है. सरकार यूरिया पर सब्सिडी मुहैया कराती है. इसलिए, अगर यूरिया आयात का मूल्य बढ़ता है, तो सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी बढ़ेगा.

पिछले महीने चेन्नई में बोलते हुए, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वीकार किया, कि भू-राजनीतिक संकट खाद्य तेलों तथा ऊर्वरकों जैसी आवश्यक वस्तुओं के भारत के आयातों पर असर डाल सकता है.

2021-22 के लिए भारत के राजकोषीय घाटे के- आय से अधिक ख़र्च- जीडीपी के 6.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है. अगले वित्त वर्ष में इसके घटकर 6.4 प्रतिशत पर आ जाने का अनुमान है.

बुरी ख़बर- CAD और बढ़ा, RBI की योजनाएं प्रभावित

घरेलू अर्थव्यवस्था में रुपए का मूल्य, चालू खाता घाटा (सीएडी), राजकोषीय घाटा, मुद्रा स्फीति, और सबसे अधिक सकल घरेलू उत्पाद जैसे प्रमुख संकेतकों को स्थिर रखने में, एक अहम भूमिका अदा करता है, इसलिए इसमें आई गिरावट मैक्रोइकोनॉमिक्स को प्रभावित करती है.

चूंकि भारत तेल की अपनी लगभग 80 प्रतिशत ज़रूरत आयात से पूरी करता है, इसलिए गिरता रुपया सीएडी को बढ़ा सकता है- एक व्यापार माप जिसमें किसी देश में वस्तुओं और सेवाओं का आयात, उसके निर्यात से अधिक हो जाता है.

सीएडी के बढ़ने का मतलब हो सकता है कि विदेशी निवेशकों द्वारा देश के अंदर डॉलर भेजने में आई कमी की वजह से, भारत को अपने घाटे को वित्त-पोषित करने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार में हाथ डालना पड़ सकता है. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर वैश्विक क्रूड ऑयल 100 डॉलर के आसपास स्थिर हो जाता है, तो भी भारत का चालू खाते का घाटा, जीडीपी के 3 प्रतिशत से आगे जा सकता है.

2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण में, बजट गणित के लिए मान लिया गया था कि कच्चे तेल के औसत दाम 70-75 डॉलर प्रति बैरल रह सकते हैं. उसमें कहा गया कि अगर भारत पर कोई बाहरी संकट नहीं आया, तो वो 2.5-3.0 प्रतिशत तक का सीएडी झेल सकता है.

आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, भारत का चालू खाता 2021-22 की जुलाई-सितंबर अवधि में पहले ही 9.6 बिलियन डॉलर या जीडीपी के 1.3 प्रतिशत के घाटे में जा चुका था.

मोदी सरकार के ख़र्च का एक बड़ा हिस्सा, ग़रीबों और किसानों को सब्सिडी मुहैया कराने में जाता है. फर्टिलाइज़र पर छूट सब्सिडीज़ का एक बड़ा हिस्सा होती है, जिसके मौजूदा वित्त वर्ष के लिए 1.4 लाख करोड़, और 2022-23 के लिए 1.05 लाख करोड़ रुपए रहने का अनुमान है.   

घरेलू ऊर्वरक उद्योग, यूरिया तथा तैयार ऊर्वरकों के लिए कच्चे माल की ज़रूरत पूरा करने में काफी हद तक आयात पर निर्भर करता है. सरकार यूरिया पर सब्सिडी मुहैया कराती है. इसलिए, अगर यूरिया आयात का मूल्य बढ़ता है, तो सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी बढ़ेगा.

पिछले महीने चेन्नई में बोलते हुए, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वीकार किया कि भू-राजनीतिक संकट, खाद्य तेलों तथा ऊर्वरकों जैसी आवश्यक वस्तुओं के भारत के आयातों पर असर डाल सकता है.

2021-22 के लिए भारत के राजकोषीय घाटे के- आय से अधिक ख़र्च- जीडीपी के 6.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है. अगले वित्त वर्ष में इसके घटकर 6.4 प्रतिशत पर आ जाने का अनुमान है.

अक्टूबर में अपनी मौद्रिक नीति रिपोर्ट में आरबीआई ने अनुमान लगाया था कि कच्चे तेल की क़ीमतों में 10 प्रतिशत वृद्धि, घरेलू हेडलाइन मुद्रास्फीति में 30 आधार अंकों का इज़ाफा कर सकती है, और जीडीपी विकास से 20 आधार अंक उड़ा सकती है.

कमज़ोर होते रुपए के साथ मिलकर, चूंकि वैश्विक क्रूड रिकॉर्ड स्तर को छू रहा है, इसलिए पेट्रोल और डीज़ल की बढ़ी क़ीमतों और वस्तुओं और सेवाओं के परिवहन से इसके जुड़ाव के ज़रिए, घरेलू खुदरा मुद्रास्फीति पर इसका असर पड़ेगा, और उससे चीज़ों के दाम बढ़ेंगे.

खुदरा महंगाई, जिसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) से नापा जाता है, काफी हद तक आरबीआई के 2-6 प्रतिशत के आराम बैण्ड की ऊपरी सीमा के आसपास बनी रही है, और केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति के ख़तरों को स्वीकार करने से बचता रहा है. 10 फरवरी को आख़िरी नीति समीक्षा में भी, आरबीआई ने विकास को बढ़ावा देने पर ही ज़ोर दिया.

आरबीआई के अनुमानों के अनुसार, 2022-23 में सीपीआई मुद्रास्फीति गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आ जाएगी. जनवरी में इसने 6.01 प्रतिशत पर पहुंचकर आरबीआई की सहनशीलता सीमा को तोड़ दिया था.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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