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चुनाव के समय कैसे थम जाती है ईंधन की कीमतों की रफ्तार, आंकड़ों के मुताबिक सरकार कर रही नियंत्रण

हाल के वर्षों में, विधानसभा चुनावों से पहले ईंधन की कीमतों को कईं हफ्तों तक स्थिर रखा गया था, लेकिन इसके बाद इनमें जल्द ही बदलाव कर दिया गया. हालांकि, अभी यह तय नहीं है कि इनकी कीमतें तय कौन कर रहा है.

नई दिल्ली में एक पेट्रोल पंप कर्मचारी की प्रतीकात्मक तस्वीर | एएनआई

नई दिल्ली: कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों का एक असर यह भी हुआ है कि मोदी सरकार साल 2017 में अपनाए गए गतिशील मूल्य निर्धारण (डायनामिक प्राइसिंग) वाले सुधार से तेज़ी से कदम पीछे खींच रही है और ईंधन की कीमतों पर अधिक नियंत्रण लागू कर रही है.

यहां परेशान करने वाली बात यह है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विधानसभा चुनाव से पहले ईंधन की कीमतों को कईं हफ्तों और कभी-कभी महीनों तक, अपरिवर्तित (बिना किसी बदलाव के) रखा जाता है, लेकिन बाद में इसमें जल्द ही बदलाव किए जाते थे.

तेल मंत्रालय के पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल (पीपीएसी) के आंकड़ों से पता चला है कि हाल ही में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में तेज़ी से (सरकारी) नियंत्रण लागू किया गया है. हालांकि, इनमें से कुछ प्रकरण आर्थिक संकट के हालात वाली अवधि, जैसे कि 2020 में फैली कोविड-19 महामारी और इसके वजह से लगाए गए लॉकडाउन के कारण हुए थे. मगर उपलब्ध आंकड़े साफ तौर पर इस बात की ओर इशारा करते हैं कि अधिकांश नियंत्रण विधानसभा चुनाव से पहले के महीनों में लागू होते हैं और एक बार चुनाव खत्म हो जाने के बाद इसमें ढील दे दी जाती है.

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि ईंधन की कीमतों को निर्धारित करने के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है. एक ओर जहां सरकार के तमाम मंत्रियों का कहना है कि (ईंधन के) मूल्य निर्धारण के फैसले ऑयल मार्केटिंग कंपनी (ओएमसी) के पास हैं, भारत के सबसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के ओएमसी – इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने दिप्रिंट को बताया है कि मूल्य निर्धारण से संबंधित किसी भी प्रश्न को पेट्रोलियम मंत्रालय को भेजना पड़ता है.

हालांकि, मूल्य निर्धारण संबंधी निर्णयों के लिए चाहे जो कोई भी जिम्मेदार है, यह बात तो साफ है कि इसका असल खामियाजा ओएमसी ही भुगत रही हैं और उन्हें महंगा कच्चा तेल खरीद कर सस्ते दामों पर ईंधन बेचना पड़ रहा है. यह या तो सरकार द्वारा इन कंपनियों को स्थानांतरित किए जाने वाले बेल-आउट (आर्थिक संकट से उबरने वाली राशि) के संदर्भ में करदाताओं के लिए एक अतिरिक्त लागत पैदा कर रहा है, या फिर यह स्वयं ऑयल मार्केटिंग कंपनियों के लिए घाटे का कारण बनता है.

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इसका एक और बुरा नतीजा यह भी हो सकता है कि अब कच्चे तेल की कीमतें कम होने के बावजूद, भारत में ईंधन की कीमतें ऊंची रह सकती हैं, ताकि ये कंपनियां अपने नुकसान की भरपाई कर सकें.

चित्रणः रमनदीप कौर | दिप्रिंट

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कच्चे तेल की अधिक कीमतों से पेट्रोल के मूल्य नियंत्रण को बढ़ावा 

जून 2017 में, सरकार ने पेट्रोल और डीजल के लिए एक गतिशील मूल्य निर्धारण तंत्र (डायनामिक प्राइसिंग मैकेनिज्म) को अपनाया, जिसमें हर 15 दिन में कीमतों में बदलाव किए जाने की पिछली प्रणाली के बजाये कीमतों में दैनिक आधार पर बदलाव होते देखा गया था.

उस समय, तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित कई मंत्रियों ने इस कदम की सराहना की थी. प्रधान ने अपने एक ट्वीट में कहा था, ‘यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि भारत एक ही बार में इतने बड़े पैमाने पर गतिशील ईंधन मूल्य निर्धारण पर स्विच करने वाला पहला देश है.’

इस ट्वीट पर एक अन्य ट्विटर यूजर द्वारा यह पूछे जाने पर कि इससे क्या लाभ होगा, प्रधान ने जवाब दिया था कि इससे होने वाले लाभों में पारदर्शिता, कीमतें बढ़ने पर अचानक लगने वाले झटकों से सुरक्षा और (कच्चे तेल की) कीमतों में गिरावट की स्थिति में उपभोक्ताओं को तत्काल राहत मिलना शामिल होगी.

साल 2017 के इस कदम का मतलब यह था कि वैश्विक स्तर पर तेल की कीमत में बदलाव की प्रतिक्रिया के रूप में पेट्रोल और डीजल की कीमतें, कम से कम सिद्धांत रूप में, हर दिन बदलीं जाएंगी. हालांकि, साल 2017 के बाकी महीनों में और 2018 और 2019 के दौरान भी बड़े पैमाने पर इसका पालन किया गया था, कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों का एक असर यह हुआ है कि साल 2020 के बाद से ईंधन की कीमतों पर नियंत्रण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विचार का मुद्दा बन गया है.

अर्थशास्त्रियों के अनुसार, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान ईंधन की कीमतों पर किसी भी प्रकार के नियंत्रण – यहां तक कि पंद्रह दिन के आधार पर भी करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि तेल की कीमतें काफी हद तक कम रहीं थीं.

पीपीएसी डेटा से पता चलता है कि अप्रैल 2014 से अप्रैल 2019 के बीच के पांच वर्षों के दौरान कच्चे तेल की कीमत औसतन लगभग 60 डॉलर प्रति बैरल रही थी.

मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए उनका नाम न छापे जाने की शर्त पर दिल्ली के एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ने इस बारे में समझाते हुए दिप्रिंट से कहा, ‘मोदी 1.0 के दौरान कच्चे तेल की कीमतें कम थीं और इसलिए पेट्रोल की कीमत कोई राजनीतिक उपकरण नहीं थी, सिवाय इस बात के कि जब मंत्रियों ने सरकार द्वारा इसकी प्रबंधन क्षमता की प्रशंसा करने के लिए उनका इस्तेमाल किया हो. यह सिर्फ हाल ही में हुआ है कि पेट्रोल की कीमतें एक ऐसा माध्यम बन गईं हैं जिनका इस्तेमाल वे मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए कर रहे हैं.’

दरअसल, सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल 2019 से अप्रैल 2020 की अवधि में तेल की औसत कीमत और भी अधिक गिरकर 53 डॉलर प्रति बैरल हो गई थीं. इसके बाद, उस साल फरवरी में शुरू हुई महामारी की वजह से आपूर्ति में आई रोकटोक और रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण, अप्रैल 2020 से दिसंबर 2022 तक तेल की औसत कीमत 88 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई.

चित्रणः रमनदीप कौर | दिप्रिंट

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ईंधन की कीमतों के साथ हाल ही में की गई जोड़तोड़

आंकड़ों से पता चलता है कि हाल ही में ईंधन की कीमतों को अत्यधिक रूप नियंत्रित किया गया है और वह भी शुद्ध रूप से राजनीतिक उद्देश्यों के लिए. मिसाल के तौर पर, अप्रैल 2019 में अरुणाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश और सिक्किम में हुए विधानसभा चुनाव से ठीक पांच दिन पहले से कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया था.

हालांकि, जब नवंबर 2020 में बिहार में चुनाव हुए, तो मतदान की अंतिम तिथि से 51 दिनों पहले तक कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया और दो सप्ताह से भी कम समय के बाद इसे फिर से बदलना शुरू कर दिया गया था.

साल 2021 में हुए पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले भी मतदान की अंतिम तिथि से 31 दिन पहले से ईंधन की कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया था और उसके ठीक पांच दिन बाद इन्हें बदल दिया गया था.

इस वर्ष, तेल की बढ़ती कीमतों को ध्यान में रखते हुए, ईंधन की कीमतों के अपरिवर्तित रहने की अवधि में तेजी से वृद्धि हुई. फरवरी-मार्च 2022 में संपन्न पांच विधानसभा चुनावों (उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड, जिनमें सबसे आखिरी चुनाव यूपी में था) के दौरान मतदान के आखिरी दिन से चार महीने पहले से ही कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया था. ध्यान देने की बात है कि कीमतों में संशोधन चुनाव समाप्त होने के दो सप्ताह बाद ही फिर से शुरू हो गया था.

हाल ही में संपन्न हुए गुजरात चुनावों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. मतदान के अंतिम दिन (5 दिसंबर) से पहले के आठ महीने से अधिक समय तक ईंधन की कीमतों में कोई बदलाव नहीं किया गया था. हालांकि, अभी यह देखा जाना बाकी है कि चुनाव खत्म होने के बाद कीमतें कब तक अपरिवर्तित रहेगी.

ऊपर वर्णित दिल्ली स्थित अर्थशास्त्री ने कहा, ‘अगर यह मामला उपभोक्ताओं को राहत देने का था तो चुनाव खत्म होने के बाद इतनी जल्दी कीमतों में बदलाव का क्या कारण है? कीमतों में बदलाव के पैटर्न से यह स्पष्ट है कि इसमें सारा ध्यान चुनाव और मतदाताओं को प्रभावित करने पर है.’

चित्रणः रमनदीप कौर | दिप्रिंट

कांग्रेस के डेटा एनालिटिक्स विंग के अध्यक्ष प्रवीण चक्रवर्ती ने दिप्रिंट को बताया, ‘भारत में अभी पूर्ण बाज़ार मूल्य निर्धारण तंत्र नहीं है, अभी भी कुछ हद तक प्रशासनिक मूल्य निर्धारण है. अगर कुछ हद तक इसे प्रशासित किया जाता है, तो कब प्रशासित किया जा रहा है?’

उन्होंने सवाल किया, ‘क्या इसे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए प्रशासित किया जा रहा है?  मुझे यकीन नहीं है कि एक लोकतंत्र में यह कोई आश्चर्य की बात है. अगर किसी चीज को प्रशासित किया जाता है, तो सत्तारूढ़ दल जरूर इसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करेंगे.‘


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कीमतों पर कौन लगाम लगा रहा है?

हालांकि, इस बात को लेकर अभी भ्रम जैसी स्थिति है कि भारत में ईंधन की कीमतों में बदलाव का ‘प्रभारी’ कौन है – केंद्र सरकार या तेल विपणन कंपनियां.

केंद्रीय मंत्रालयों ने अपनी तरफ से बार-बार यही कहा है कि खुद सरकार का ईंधन की कीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं है. उन्होंने कहा है कि यह इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड और कई अन्य तेल विपणन कंपनियों का यह अधिकार क्षेत्र है.

जब धर्मेंद्र प्रधान पेट्रोलियम मंत्री थे, तो उन्होंने साल 2018 में कहा था, ‘सरकार के पास पेट्रोलियम उत्पादों के मूल्य निर्धारण तंत्र, जिसे तेल विपणन कंपनियों द्वारा दैनिक आधार पर तय करने के लिए छोड़ दिया गया है और उसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है.’

अभी हाल ही में, फरवरी 2021 में, केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी कहा था कि ‘तकनीकी रूप से, तेल की कीमतों को (नियंत्रण से) मुक्त कर दिया गया है’ और ‘सरकार के पास करने के लिए कुछ नहीं है, इस पर कोई नियंत्रण नहीं है.’

उन्होंने आगे कहा था कि ‘यह विपणन कंपनियां हैं जो कच्चे तेल का आयात करती हैं, इसे परिष्कृत करती हैं और फिर इसे वितरित करती हैं. इसके लॉजिस्टिक्स और बाकी सब कुछ के लिए लागत लगाती हैं.’

सरकार ने इस साल भी अपने इसी रुख की पुष्टि की है. इस साल मार्च में पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने जोर देकर कहा था कि ‘तेल कंपनियां खुद कीमतें तय करेंगी’.

हालांकि, दिप्रिंट द्वारा संपर्क किये जाने पर इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन के प्रवक्ता ने कहा, ‘मूल्य निर्धारण पर हमारी कोई टिप्पणी नहीं है. यदि आप मूल्य निर्धारण और अन्य संवेदनशील मुद्दों के बारे में कुछ पूछना चाहते हैं, तो कृपया अपने प्रश्न पेट्रोलियम मंत्रालय को भेजें.’

दिप्रिंट ने इस बारे में टिप्पणी के लिए हरदीप पुरी के कार्यालय को पत्र लिखा था, लेकिन इस खबर के प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. प्रतिक्रिया प्राप्त होने पर इस खबर को अपडेट कर दिया जाएगा.


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कीमतों के नियंत्रण के आर्थिक नतीजे

जब कच्चे तेल की कीमतें अधिक होती हैं लेकिन ईंधन की कीमतें (जानबूझकर) कम रखी जाती हैं, तो उनके बीच के अंतर को तेल विपणन कंपनियों द्वारा वहन किया जाता है. यानी उन्हें महंगा तेल खरीदने और कम कीमतों पर ईंधन बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है और इसलिए उन्हें उस नुकसान का खामियाजा भुगतना पड़ता है. इनपुट (आगत) लागत और बिक्री मूल्य में इस अंतर को ‘अंडर-रिकवरी’ कहा जाता है.

अगर सरकार तेल विपणन कंपनियों को फंड ट्रांसफर (अपने खाते से पैसे भेजना) जो टैक्सपेयर्स के पैसे का उपयोग करके किया जाता है उससे नहीं करती है, तो ओएमसी को खुद इस अंडर-रिकवरी का खामियाजा भुगतना पड़ता है, जो उन्हें घाटे में धकेल देता है.

कंसल्टिंग फर्म, एर्न्स्ट एंड यंग के मुख्य नीति सलाहकार डीके श्रीवास्तव ने इसे कुछ इस तरह से समझाया, ‘जब हम खुदरा कीमतों को स्थिर रखते हैं, तो यह उपभोक्ताओं के लिए यह अच्छी बात होती है, लेकिन करदाताओं या तेल विपणन कंपनियों के लिए नहीं, क्योंकि जब तक खरीद की लागत का खुदरा कीमतों द्वारा पूरी तरह से भुगतान नहीं किया जाता है, तब तक सब्सीडी का बोझ बढ़ता रहता है, जिसका अंततः भुगतान करना होगा या फिर तेल कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ेगा.’

श्रीवास्तव ने कहा, ‘सरकार, कभी-कभी उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा के लिए या कुछ चुनाव होने से ठीक पहले कीमतों को स्थिर रखने का प्रयास करती है. यह गतिशील मूल्य निर्धारण तंत्र की प्रभावकारिता से समझौता करता है.’

बता दें कि तेल विपणन कंपनियों ने इस वित्त वर्ष की जुलाई- सितंबर वाली तिमाही में 3,805.73 करोड़ रुपये का समेकित घाटा दर्ज किया है .

अक्टूबर में केंद्रीय कैबिनेट ने पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा तीन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम वाली तेल विपणन कंपनियों- आईओसी, बीपीसीएल और एचपीसीएल को 22,000 करोड़ रुपये का एकमुश्त अनुदान देने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी .

हालांकि, वह अनुदान तेल विपणन कंपनियों को लिक्विड पेट्रोलियम गैस-एलपीजी (रसोई गैस) की बिक्री पर हुई अंडर-रिकवरी की वसूली में मदद करने के लिए दिया गया था था, मगर पेट्रोलियम मंत्रालय पेट्रोल और डीजल की बिक्री पर हुई अंडर रिकवरी के संबंध में भी तेल विपणन कंपनियों के लिए अतिरिक्त धनराशि की मांग कर रहा है.

इन अंडर-रिकवरी का एक और नतीजा यह है कि कच्चे तेल की कीमत गिरने के बावजूद ईंधन की कीमतें कम होने की संभावना नहीं है, क्योंकि ओएमसी अब इस अवधि का उपयोग अपने पिछले नुकसान की भरपाई के लिए करेगी.

एक और कंसल्टिंग फर्म प्राइस वाटर हाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) इंडिया के पार्टनर दीपक माहुरकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘कुछ समय के लिए ईंधन की कीमतों को अपरिवर्तित रखने का मतलब है कि तेल विपणन कंपनियों को अंडर-रिकवरी का सामना करना पड़ रहा है.’

उन्होंने कहा, ‘कंपनियां भी घाटे में जा सकती हैं. हालांकि, तेल की कीमतों का रुझान अभी नरम दिख रहा है. कीमतों में कमी के इस रुझान को आगे की ओर बढ़ाने की अनुमति देने से पहले कंपनियों द्वारा पहले खुद के लागतों की वसूली करने की उम्मीद है. वैसे भी, कच्चे तेल की कीमतों में चढाव या उतार के तहत रिफाइनरों द्वारा खरीदी गई इन्वेंट्री (पहले से जमा माल) का उपयोग करने में महीनों लग जाते हैं. यह कीमतों में सुधारों के बीच के फेज लैग का कारण बनता है.’

(अनुवादः रामलाल खन्ना | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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