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मथुरा, हापुड़, झज्जर जैसे छोटे शहरों में बढ़ रहे हैं तलाक, अदालत, वकील, परिवारों का भी है ऐसा रवैया

छोटे शहरों में यह मान्यता बढ़ गई है कि तलाक के 80 प्रतिशत मामले महिलाओं की तरफ से दायर किए जाते हैं.

रिंकी मथुरा जिला कोर्ट से बाहर निकलते हुए| ज्योति यादव, दिप्रिंट

हापुड़/मथुरा: जब रिंकी जज की ओर से अपनी केस फाइल बुलाए जाने का इंतजार कर रही थी, तो उसने बड़े ही अविश्वास और तिरस्कार भाव से मथुरा कोर्ट रूम में दो वकीलों को देखा. ये दोनों एक अन्य महिला की शादी-शुदा जिंदगी को लेकर बड़े ही अजीब लहजे में बहस कर रहे थे. यह पहली बार नहीं था जब वह तलाक की कार्यवाही के लिए अदालत में आई थी. पिछले दो सालों में उसने यहां अनगिनत शादियां टूटते हुए देखी हैं.

एक वकील चिल्लाया, ‘तुमने बच्चों को छोड़ दिया और एक औरत के साथ रहना शुरू कर दिया.’ दूसरे ने उसे टोकते हुए जोर से आवाज उठाई, ‘नहीं, यह तुम हो जो प्रेमी के साथ भाग गए.’

25 साल की रिंकी थोड़ा सिहर गई, लेकिन अब उसे इसकी आदत हो गई थी. जब से उसने मथुरा के पारिवारिक न्यायालय में तलाक के लिए अर्जी दी, तब से उसने ऐसे कई सारे तलाक के मामले देखे हैं. इनमें से कई तो उसके जैसे ग्रामीण इलाकों से आते हैं. बार के एक सदस्य ने बताया कि इनमें से ज्यादातर मामले महिलाओं ने दायर किए हैं.

हापुड़ से मथुरा और भोपाल से अलवर और झज्जर तक भारत के छोटे शहरों में तलाक चाहने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है. ये मामले न सिर्फ परिवार के कई बुजुर्गों को बल्कि वकीलों और जजों को भी परेशान कर रहे है. तो वहीं दूसरी तरफ गैर-महानगरीय भारत में महिलाओं की पसंद और भारतीय विवाह के बारे में मिथकों को भी तोड़ते नजर आ रहे हैं.

गोवर्धन में बतौर अकाउंटेंट काम करने वाली रिंकी बताती हैं, ‘ मुझे अपनी शादी खत्म करने का फैसला लेने में दो साल लग गए. इस कलंक से निपटने के लिए काफी हिम्मत चाहिए होती है. लेकिन जब मैंने यहां जिला अदालत में कदम रखा, तो देखा कि ज्यादातर महिलाएं तलाकशुदा टैग को लेकर ज्यादा नहीं सोच रही थी. वो इस तरह से व्यवहार कर रही थीं मानो ये कोई बड़ी बात नहीं है.’

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इतनी संख्या में मामलों को देखकर रिंकी को थोड़ी तसल्ली मिली.

भारत में तलाक एक कलंक

भारतीय समाज के पारंपरिक ताने-बाने को ‘छितरा’ देने वाले बढ़ते तलाक के मामलों पर हाई कोर्ट की बेंच हर बार टिप्पणी करती हैं. केरल उच्च न्यायालय ने सितंबर 2022 में टिप्पणी करते हुए कहा था,‘यूज एंड थ्रो’ की उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे वैवाहिक संबंधों को भी प्रभावित किया है.’ हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय की एक पीठ ने एक महिला द्वारा अपने बच्चों की कस्टडी की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की कि विवाह सिर्फ शारीरिक सुख के लिए नहीं है. इसका मुख्य उद्देश्य संतान पैदा करना है.

भारत में दुनिया में तलाक की सबसे कम दर 1.1 प्रतिशत है. 2019 की संयुक्त राष्ट्र महिला की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 20 सालों में तलाकशुदा लोगों की संख्या दोगुनी हो गई है.

दो दशक पहले बड़े पैमाने पर शहरी मध्यवर्गीय ट्रेंड के रूप में जो शुरू हुआ, वह अब भारत में बढ़ती हुई छोटे-छोटे शहरों – मथुरा, हापुड़, भोपाल, अलवर, झज्जर- की घटना है. यह इन शहरों में बढ़ते आर्थिक दबाव, रोजगार के अधिक अवसरों और सोशल मीडिया व लोकप्रिय मनोरंजन चैनलों के जरिए दूसरी दुनिया को जानने की वजह से है. वो दुनिया जहां तलाक के बाद की खुशी की संभावना की कल्पना की जा सकती है.

मथुरा कोर्ट में वकील का टिन शेड कक्ष| ज्योति यादव, दिप्रिंट

2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश की पारिवारिक अदालतों में तलाक के सबसे ज्यादा मामले- 61,00 से ज्यादा-लंबित थे.

अगर दर्द के लिए कोई दवा नहीं मिलती तो लोग या तो खुद से उसका समाधान ढूंढ़ने लगते हैं या फिर हिम्मत हार जाते हैं. तलाक के मामलों में आंकड़े तो यही बताते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड्स इन इंडिया 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, वैवाहिक समस्याओं के चलते 2016 और 2020 के बीच लगभग 37,591 लोगों को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया था. इनमें से सात प्रतिशत मामले तलाक से जुड़े थे.

हालांकि महिलाओं के ऊपर तलाकशुदा होने का कलंक पूरी तरह से दूर नहीं हुआ है, लेकिन उनमें एक नया जीवन शुरू करने का आत्मविश्वास बढ़ रहा है.

न्यायपालिका से लेकर पुलिस तक, पड़ोसियों से लेकर सांस्कृतिक टिप्पणीकारों तक, तलाक के बढ़ते मामलों के लिए हमेशा महिलाओं की नई आवाज को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है.

सिर्फ शहर के लिए ये कोई बड़ी घटना नहीं

अधिवक्ता रवि उपाध्याय मथुरा कोर्ट में अपने कक्ष में | ज्योति यादव, दिप्रिंट

छोटे शहरों में बड़े पैमाने पर एक अलग ही रुख निकलता नजर आ रहा है. तलाक के 80 फीसदी मामलों के लिए याचिका महिलाओं की तरफ से आ रही है.

पिछले 25 सालों से मथुरा जिला अदालत में प्रैक्टिस कर रहे वकील रवि शंकर उपाध्याय ने बताया, ‘यह अब सिर्फ शहर की बीमारी नहीं रही. ग्रामीण इलाकों से भी काफी मामले सामने आ रहे हैं.’ अपने साथियों की तरह वह भी ‘प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कम से कम 10 तलाक के मामलों’ को निपटाने में लगे हैं.

मथुरा की जिला अदालत के दो फैमिली कोर्ट रूम हमेशा गुलजार रहते है. वकील हर सुनवाई के लिए औसतन 500-1000 रुपये के बीच चार्ज करते हैं. याचिकाओं के लिए फीस 3,000-10,000 रुपये तक हो सकती है.

हापुड़ जिला न्यायालय के बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एडवोकेट अजीत चौधरी भी तलाक के मामलों में वृद्धि की बात कह रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘अभी तक 600 तलाक के मामले हैं. पांच साल पहले फैमिली कोर्ट की स्थापना के बाद से इन मामलों में 25 से 30 फीसदी की वृद्धि हुई है. एक दशक पहले हापुड़ में लगभग 350 वकील थे, लेकिन यह संख्या बढ़कर 12,00 हो गई है.’

तलाक के मामलों की बढ़ती संख्या का यह मतलब कतई नहीं है कि दोनों पक्ष इसके लिए तैयार हैं. अक्सर एक साथी तलाक का विरोध करता ही है. चौधरी के मुताबिक, जिला अदालतों में यह मानक प्रथा है.

उन्होंने हाल ही में फैमिली कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की थीं. दोनों ही मामलों में जोड़े आस-पास के गांवों में रहते थे. संबंधों में दरार पड़ने से बमुश्किल एक साल पहले उनकी शादी हुई थी. एक मामले में चौधरी तलाक का विरोध कर रहे पति की ओर से केस लड़ रहे हैं, तो वहीं दूसरे मामले में वह पत्नी की तरफ है. उनका अनुभव बताता है कि ऐसे मामलों में यह महसूस करने में कि उन्होंने कितना समय ‘बर्बाद’ कर दिया है, सात से आठ साल लग जाते हैं, उसके बाद ही जोड़े किसी समझौते पर पहुंचते हैं. तब तक केस चलता रहता है.

‘सिर्फ प्रोफेशनल जोड़े ही म्युचुअल डिवोर्स के लिए तैयार होते हैं. वरना तलाक चाहने वाले ज्यादातर कस्टडी और रखरखाव जैसे कई दावे करने में लगे रहते हैं. कुछ मामलों में सालों तक एक-दूसरे से तकरार करने के बाद जोड़े तलाक न लेने का विकल्प चुनते हैं.’

हालांकि तलाक के लिए अर्जी दाखिल करने वालों की संख्या बढ़ी है, लेकिन निपटान की दर धीमी है. एक न्यायाधीश ने स्वीकार किया कि इस तरह के मामले 10 साल तक खिंच सकते हैं. उस दौरान पति और पत्नी या तो अलग-अलग रहना जारी रखते हैं या लंबी अदालती कार्यवाही से थक जाते हैं और अपनी शादीशुदा जिंदगी को अपना लेते हैं.


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तलाक के लिए आगे आती महिलाएं

मथुरा और हापुड़ में बार एसोसिएशन के सदस्यों का कहना है कि आमतौर पर पति ही तलाक की पहल करते थे, लेकिन अब यह बदल रहा है. तलाक के लिए ज्यादा महिलाएं आगे आ रही हैं.

वैसे तलाक को लेकर लोगों की सोच अभी बदली नहीं है. शादी के असफल होने का दोष अभी भी स्त्री को ही उठाना पड़ता है. रिंकी के साथ भी ऐसा ही हुआ.

पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी रिंकी मथुरा के गोवर्धन में एक ग्रामीण बस्ती में पली-बढ़ी. उनकी मां अनपढ़ हैं, लेकिन रिंकी ने कॉलेज की डिग्री हासिल करने की ठान ली थी. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध मथुरा के एक कॉलेज से अपनी बीए की पढ़ाई पूरी की.

जब किसी जानने वाले ने रिंकी के परिवार को शादी के लिए लड़का बताया तो वह उन्हें जंच गया. लड़का गुरुग्राम में काम करता था और उसके माता-पिता बुलंदशहर के किर्रा गांव में रहते थे. जून 2017 में दोनों की शादी कर दी गई.

रिंकी कहती है, ‘दूल्हे की मांगों को पूरा करने के लिए मेरे पिता ने अपनी पुश्तैनी जमीन बेच दी और परिवार को 10 लाख रुपये दिए’. उसकी आवाज़ में कड़वाहट साफ नजर आ रही थी. कुछ समय पहले तक उनके पिता एक ड्राइवर के रूप में काम करते थे. फिलहाल वह मथुरा में एक टूर और ट्रैवल एजेंसी के साथ जुड़े हैं.

शुरुआती मुलाकातों के दौरान रिंकी ने अपने होने वाले पति से कई बार बात करने की कोशिश की. लेकिन ससुराल वालों ने इस पर रोक लगा दी. शादी के बाद ही उसे एहसास हुआ कि यह झूठ पर खड़ा किया गया रिश्ता था.

रिंकी ने बताया, ‘उसके माता-पिता ने अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में हमसे झूठ बोला था. उन्होंने कहा कि उनके पास गुरुग्राम में एक फ्लैट है.’ लेकिन जब रिंकी अपने पति के साथ गुरुग्राम गई, तो उसे पता चला कि वह 5,000 रुपये महीना किराये पर लेकर एक छोटे से कमरे में रह रहा था. जिसमें बस काम चलाऊ रसोई और बाथरूम था. उनके पास न तो नौकरी थी और न ही पैसा. हताशा में रिंकी ने किराए और खाने खर्चे के लिए एक अकाउंटेंट के साथ नौकरी करनी शुरू कर दी.

उसने कहा, ‘मैं हमेशा तनाव में रहती थी.’ लेकिन तीन महीने बाद ही उसके ससुराल वालों ने उसे नौकरी छोड़ने और गांव में अपने घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया. इससे उनकी शादी और भी तनावपूर्ण हो गई. रिंकी के मुताबिक उसके ससुराल वाले उसके पति को उसकी शिकायत करने के लिए बुलाते थे. वह कहती है, ‘उन्होंने उसे मेरे खिलाफ भड़का दिया था. यह पैसे के लिए नहीं था. मुझे बस अपने पति के सहारे की जरूरत थी. लेकिन वह हमेशा अपने माता-पिता का पक्ष लेता था.’

रिंकी ने शुरू में अपनी शादी को बचाने की कोशिश की. लेकिन उसके ससुराल वाले तब तक उसके पीछे पड़े रहे जब तक वह पूरी तरह टूट नहीं गई.

जब उसने अलग होने का फैसला किया तो हर कोई उसे समझाने के लिए आगे आया. उनके परिवार के बुजुर्ग – ‘फूफा, बड़े पापा, नाना’ सब ने कोशिश की कि वह मान जाए और अपना फैसला बदल ले. लेकिन जब रिंकी ने उन सबका सामना किया तो उन्होंने उसके चरित्र पर अंगुली उठाई. उन्होंने कथित तौर पर उस पर अपने पति को दूसरे आदमी के लिए छोड़ने का आरोप लगाया. रिंकी बताती है, ‘वे मेरा भविष्य तय करने के लिए आधी रात तक छत पर बैठे रहे.’ उसका पति बैठक का हिस्सा था, लेकिन उसने रिंकी के फैसले में उसका साथ नहीं दिया.

रिंकी ने कहा, ‘उसे मुझसे ज्यादा गोदरेज की अलमारी की चाबियों में ज्यादा दिलचस्पी थी, जिसमें मेरे दहेज का बचा हुआ सामान था.’

उसके माता-पिता शुरू में उसके ससुराल वालों का समर्थन कर रहे थे, लेकिन जब उन्होंने अपनी बेटी पर लगाए गए आरोपों को सुना तो अचानक से यू-टर्न ले लिया. वह कहती हैं, ‘अगले दिन मैं मामला दर्ज करने के लिए पुलिस स्टेशन गई. मेरे पिता पूरे समय मेरे साथ थे.’

उसका पति रिंकी को तलाक नहीं देना चाहता. उसने स्वीकार किया कि शादी तक वे एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते थे. जब जाना तो तब तक काफी देर हो चुकी थी. ‘मैं ज्यादा नहीं कमाता था. उसे हमारी आर्थिक हालत के साथ समस्या थी. हम शादी से पहले एक-दूसरे से बात नहीं करते थे, इसलिए हम एक-दूसरे को अच्छी तरह से नहीं जानते थे. शादी के बाद ही हमें एक-दूसरे की पसंद-नापसंद का पता चला.’

अदालत में मुकदमा लड़ते हुए रिंकी ने मथुरा के एक स्थानीय कॉलेज में एलएलबी पाठ्यक्रम में दाखिला लिया और एक पेइंग गेस्ट आवास में रहने लगी. फैमिली कोर्ट में जज ने उनके पति से गुजारा भत्ता के तौर पर 2,500 रुपये मासिक देने को कहा. लेकिन रिंकी का कहना है कि उसे अब तक 1,000 रुपये का एक तिहाई भुगतान मिला है. इसका आधा हिस्सा अदालत में पेश होने के लिए वकील के पास चला जाता है.

वह कहती हैं, ‘मेरे पति कहते हैं कि वह मुझे तलाक नहीं देना चाहते. लेकिन मैं तो चाहती हूं. मैं आगे बढ़ना चाहती हूं और अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करना चाहती हूं.’

रिंकी को अभी भी शादी जैसी संस्था में विश्वास है. वह कहती है, ‘मेरी छोटी बहनों की शादियां सफल हुई हैं. मेरा मानना है कि पति-पत्नी को एक-दूसरे का साथ देना चाहिए.’

मथुरा जिला न्यायालय के प्रवेश द्वारों में से एक| ज्योति यादव, दिप्रिंट

अधिकार बनाम जिम्मेदारी

महीनों के आत्ममंथन और आरोप के बाद रिंकी ने तलाक के लिए 2019 में अर्जी दे दी. लेकिन पारिवारिक अदालत में उसका अनुभव काफी अलग था. उसने कहा, ‘दो साल तक अपने आप से लड़ने के बाद, मैं खुद को यहां ला पाई थी. शादी को खत्म करने का मतलब अपने ऊपर एक कलंक लगाने जैसा था. लेकिन जब मैंने जिला अदालत में कदम रखा तो उन महिलाओं को देखा जो तलाक के टैग की परवाह नहीं करती थीं. वो ऐसा जता रहीं थी जैसे कि यह कोई बड़ी बात नहीं है.’ रिंकी को उनसे ताकत मिली.

लेकिन रवि उपाध्याय के लिए वह उन महिलाओं में से एक हैं, जिन पर वह जिम्मेदारी से अधिक अधिकारों को प्राथमिकता देने का आरोप लगाते हैं. एक मध्यमवर्गीय परिवार की तलाक याचिका की फाइलों को पलटते हुए उन्होंने महिलाओं पर शादी को बचाने का भार डाल दिया.

उन्होंने कहा, ‘बीएससी ग्रेजुएट लड़की एक साधारण बनिया लड़के के साथ एडजस्ट नहीं कर सकती.’ परिवार में सिर्फ चार सदस्य थे. आजकल महिलाएं संयुक्त परिवारों में नहीं रहना चाहती. वे घर का काम नहीं करना चाहतीं.’

एक अन्य वकील की नजर में धैर्य एक अच्छी शादी की कुंजी है. वह कहते हैं, ‘लेकिन महिलाओं ने हाल ही में आर्थिक हालात ठीक न होने पर धैर्य को कहीं पीछे छोड़ दिया है.’

अधिकांश मामलों में जज और वकीलों (पुरुष और महिला दोनों) के पास किसी भी नए तलाक के मामले में एक यह एक पहली मानक प्रतिक्रिया होती है, जो उनकी तरफ से आती है.

वह कहते हैं ‘इस तरह सभी शादियां काम करती हैं. अपनी शादी बचाओ. आप तलाकशुदा होने के लिए बहुत छोटे हैं.’

इस ‘सलाह’ को काउंसलिंग सेशन में भी लापरवाही से थोपा जाता है और घर पर परिवार वाले भी यही सलाह देते नजर आते हैं कि ‘इसे समय दो.’

लेकिन माता-पिता धीरे-धीरे अपना रुख बदल रहे हैं. जब मथुरा के पास के एक कस्बे का एक डॉक्टर तलाक के दौर से गुजर रहा था – उसकी पत्नी एक सर्जन थी – उसे अपने माता-पिता का पूरा साथ मिला हुआ था. वह कहते हैं, ‘अब परिवार समझते हैं कि दो कामकाजी पेशेवरों के बीच, एक घर या कार का मालिक होने जैसे सामान्य लक्ष्य एक जोड़े को विवाहित रखने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. मध्यम वर्ग की नैतिकता में थोड़ा बदलाव आया है, कम से कम मेरे मामले में तो ऐसा ही हुआ है.’

लेकिन इस तरह की स्वीकृति हमेशा न्यायाधीशों के गले नहीं उतरती. मथुरा फैमिली कोर्ट के एक जज ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि वह अपने कोर्ट रूम में जो कुछ भी देख रहे हैं, उससे वह बहुत परेशान हैं.

उन्होंने कहा, ‘पहले माता-पिता अपनी बेटी के वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करते थे, लेकिन अब वे अलग होने के उसके फैसले का समर्थन कर रहे हैं.’ उनके लिए यह एक ऐसी गोली है जिसे निगलना मुश्किल है.

रवि उपाध्याय यह भी कहते हैं कि ‘इंटरनेट एक्सपोजर, अहंकार, अधीरता और व्यक्तित्व’ के अलावा तलाक के मामलों के बढ़ने की वजह माता-पिता की स्वीकृति भी है.

एक नई सामाजिक व्यवस्था

रिंकी ने भारत के छोटे शहरों में महिलाओं पर लगाए गए आरोपों, आलोचना और निर्णय को अनदेखा करना चुना. रिसेप्शनिस्ट की नौकरी, एलएलबी की क्लासेस, अदालती मामले और एक नया साथी, इस सबके बीच उनके पास अब समय नहीं है. वह कहती हैं, ‘मेरा साथी मेरे मामले में मेरा समर्थन कर रहा है. वह मुझे आर्थिक रूप से सशक्त बनने में मदद कर रहा है. मैं खुद को परेशानी के बीच फंसी लड़की के रूप में नहीं देखना चाहती हूं.’

12 सितंबर को जब उसने अपनी तलाक की कार्यवाही में सुनवाई के लिए अदालत में रिपोर्ट की, तो वह एक पूर्व सहयोगी से टकरा गई, जिसके साथ उसने मथुरा में काम किया था. छह साल पहले अपने पति से अलग हुई इस महिला ने भी आखिरकार तलाक की अर्जी दाखिल करने का फैसला किया.

अपने-अपने वकीलों के कक्षों की ओर जाने वाले मंद रोशनी वाले संकीर्ण गलियारों में, दोनों महिलाओं ने एक-दूसरे को औपचारिक रूप हाय-हैलो किया. और कुछ ही समय बाद वे दोनों अपने मामलों पर आपस में चर्चा करती नजर आईं. दोनों अपने ‘अस्तित्व’  टिप्स और रणनीतियों को साझा कर रहीं थीं. यह दोनों महिलाओं के लिए एक सुकून देने वाला पल था. जैसे ही अपने-अपने रास्ते जाने लगीं उन्होंने एक बार फिर से मिलने की योजना बना ली.

रिंकी ने अपने वकील के कमरे में जाते हुए कहा, ‘जल्द ही मिलते हैं.’

(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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