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‘निर्भया केस के विशेषज्ञ ने की थी जांच’- छावला मामले में SC से क्लीनचिट के खिलाफ सरकार ने दी याचिका

सरकार ने अपनी समीक्षा याचिका में 2012 के इस केस में डीएनए साक्ष्यों को ‘निर्णायक और अभेद्य’ बताया है और शीर्ष अदालत के इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया है कि इसके साथ छेड़छाड़ की किसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली: केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 2012 के छावला रेप एंड मर्डर केस में डीएनए रिपोर्ट के लिए अपनाई गई प्रक्रिया की साख पर सवाल उठाने वाली सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को खारिज कर दिया है. जांच प्रक्रिया में कोई खामी न होने पर जोर देते हुए मंत्रालय ने कहा है कि इस मामले में फोरेंसिंक जांच करने वाले डॉक्टर वही थे जिन्होंने उसी साल निर्भया गैंगरेप और हत्या के मामले में पड़ताल की थी.

केंद्र सरकार चाहती है कि शीर्ष अदालत अपने 7 नवंबर के उस फैसले पर पुनर्विचार करे जिसमें उसने फरवरी 2012 में दिल्ली के छावला इलाके में एक 19 वर्षीय युवती का कथित तौर पर अपहरण करने और फिर रेप के बाद बर्बर तरीके से उसे मार देने वाले तीन लोगों को बरी कर दिया था. उन तीनों को मौत की सजा सुनाने संबंधी निचली अदालत और दिल्ली हाई कोर्ट के आदेशों को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था.

गृह मंत्रालय ने पिछले सप्ताह दायर अपनी समीक्षा याचिका की खुली अदालत में सुनवाई की मांग की है.

मंत्रालय की तरफ से दायर 160 से अधिक पेज की इस याचिका—जिसे दिप्रिंट ने एक्सेस किया है—में कहा गया है, ‘इस बात को फिर से संज्ञान में लाया जाता है कि डॉ. बी.के. महापात्र वही डॉक्टर थे जिन्होंने निर्भया रेप और मर्डर केस में जांच की थी और डीएनए रिपोर्ट तैयार की थी. निर्भया मामले में तो माननीय शीर्ष अदालत ने सीएफएसएल (सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी) की रिपोर्ट की विश्वसनीयता और वैधता पर संदेह नहीं किया, जो कि उसी डॉक्टर ने तैयार, सत्यापित और प्रदर्शित की थी, और जबकि फैक्ट यह है कि कानून के तहत वैज्ञानिक और चिकित्सा साक्ष्यों को निर्णायक माना गया है.’

गौरतलब है कि पिछले माह देश के तत्कालीन चीफ जस्टिस यू.यू. ललित (रिटायर्ड) और जस्टिस रवींद्र भट की पीठ द्वारा सुनाए गए फैसले में तीनों दोषियों को क्लीन चिट दे दी गई थी और मामले में फोरेंसिक जांच के लिए नमूने लैब भेजने में देरी को रेखांकित किया गया था. पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक, आरोपियों के डीएनए सैंपल 14 फरवरी 2012 को और पीड़िता के 16 फरवरी को लिए गए थे. उन्हें 27 फरवरी को जांच के लिए भेजा गया था.

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शीर्ष कोर्ट ने नवंबर के अपने फैसले में कहा था, ‘इस अवधि के दौरान इन्हें पुलिस स्टेशन के मालखाने (जहां जब्त सामानों को रखा जाता है) में रखा गया. इन परिस्थितियों में, एकत्र नमूनों के साथ छेड़छाड़ की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है.’

पीठ के मुताबिक, इसके अलावा यह साबित करने वाला भी कोई सबूत नहीं है कि विशेषज्ञ की तरफ से डीएनए जांच में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक विश्वसनीय थी. शीर्ष अदालत ने कहा, इस तरह के साक्ष्यों के अभाव में डीएनए प्रोफाइलिंग अत्यधिक संवेदनशील हो गई, खासकर तब जब एकत्र करने और सीलिंग के लिहाज से ‘जांच के लिए भेजे गए नमूने भी संदेह से परे नहीं थे.’


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‘मिथ्या धारणा बनाई’

शीर्ष अदालत की इस राय कि सैंपल में छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है, को खारिज करते हुए गृह मंत्रालय की याचिका में डीएनए तकनीक और भारत में अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है.

गौरतलब है कि केस में प्रत्यक्ष तौर पर कोई गवाह न होने की स्थिति में जांचकर्ताओं ने अपराध स्थल में अभियुक्तों को मौजूदगी साबित करने के लिए वैज्ञानिक और चिकित्सा साक्ष्यों पर बहुत अधिक भरोसा किया था.

जांचकर्ताओं ने न केवल यौन हमला होने के साक्ष्य के तौर पर, बल्कि आरोपियों और पीड़िता की उस कार में मौजूदगी को साबित करने के लिए भी कई डीएनए प्रोफाइलिंग की, जहां महिला के साथ बलात्कार किया गया था.

पीड़िता के वजाइनल स्वैब की डीएनए प्रोफाइलिंग के अलावा पुलिस ने चार और टेस्ट कराए थे—पीड़िता के शरीर पर मिले आरोपियों के बाल, बाल का एक हिस्सा जो बाद में पीड़िता का पाया गया, और आरोपी की कार और इसके जैक में लगा पीड़िता का खून. डीएनए जांच के दौरान कार के सीट कवर पर वीर्य भी पाया गया था.

गृह मंत्रालय ने डीएनए परीक्षणों को ‘निर्णायक और अभेद्य’ करार दिया है और बताया है कि महापात्र ने ट्रायल कोर्ट में इनके बारे में गवाही भी दी थी.

याचिका में बताया गया है कि फोरेंसिक बायोलॉजी और डीएनए प्रोफाइलिंग में 15 साल का अनुभव रखने वाले डॉक्टर ने गवाही के दौरान बताया था कि पार्सल पर सील बरकरार थी और नमूना मुहरों के साथ मेल खाती थी. इसमें बताया गया है कि उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की थी कि कोर्ट के समक्ष पेश रिपोर्ट के प्रत्येक पृष्ठ पर उनके हस्ताक्षर हैं.

साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना जताते हुए कोर्ट ने कहा था कि हालांकि महापात्रा ने गवाही दी थी और उनकी रिपोर्ट पेश की गई थी, पर केवल एक दस्तावेज का प्रदर्शन ‘इसके कंटेट को साबित नहीं कर सकता.’ वहीं, समीक्षा याचिका में तर्क दिया गया है कि निर्भया मामले में उसी डॉक्टर की परीक्षण रिपोर्ट को दस्तावेजी और मौखिक दोनों ही आधार पर स्वीकार किया गया था, इसलिए इस केस में शीर्ष कोर्ट का ऑब्जर्वेशन ‘मिथ्या धारणा पर आधारित और गलत’ है.

निर्भया केस में कोर्ट टिप्पणियों का हवाला देते हुए मंत्रालय ने बताया कि डीएनए रिपोर्ट को निर्णायक सबूत माना जा सकता है यदि अभियोजन अपने पक्ष गवाहों और दस्तावेजों के जरिये हिरासत की चेन—जो सबूतों के दस्तावेजीकरण का क्रम से जुड़ी हो—और सबूतों से छेड़छाड़ न होने की बात साबित कर पाता है.

समीक्षा याचिका में यह दर्शाने की कोशिश में घटनाओं की एक विस्तृत क्रोनोलॉजी भी पेश की गई है कि क्यों नमूनों को फोरेंसिक लैब भेजने में देरी से कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता.

याचिका में दावा किया गया है कि यही नहीं, डीएनए टेस्ट के लिए जीनोटाइपिंग की प्रक्रिया—आनुवंशिक संरचना में अंतर निर्धारित करने वाली प्रक्रिया—अपनाया जाना एक निर्धारित व्यवस्था है और इसमें हेरफेर नहीं की जा सकती. याचिका में तर्क दिया गया है, इसलिए, मामले में डीएनए रिपोर्ट रेप का निर्णायक सबूत है और जांच में ‘कथित मामूली विसंगतियों’ के कारण इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.

इसके अलावा, डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए वजाइनल स्वैब एकत्र करने में इस्तेमाल वैज्ञानिक तकनीक छेड़छाड़ को ‘पूरी तरह असंभव’ बनाती है. समीक्षा याचिका में आगे कहा गया, कोर्ट का यह तर्क कि ‘सर्टिफाइड डॉक्टर संभवतः किसी अन्य व्यक्ति के डीएनए को वजाइनल स्वैब पर लगा सकता है पूरी तरह गलत और निराधार’ है.

गृह मंत्रालय ने कहा कि सर्दियों में बहुत जल्दी नहीं सड़ता शव

समीक्षा याचिका में उन संदेहों को भी दूर करने का प्रयास किया गया है जो पीठ ने मामले में मेडिकल साक्ष्यों पर उठाए थे. पुलिस के बयान के मुताबिक, अपहरण की कथित घटना 9 फरवरी 2012 को हुई थी और पीड़िता का शव चार दिन बाद मिला था.

हालांकि, पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, शव के सड़ने जैसे कोई संकेत नहीं थे.

नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहानी के पुलिस वर्जन पर सवाल उठाया—कि पीड़िता की हत्या 10 और 11 फरवरी 2012 के बीच की गई थी.

समीक्षा याचिका में कहा गया है, ‘पीड़िता की मृत्यु के समय और शव के सड़ने की स्थिति को लेकर माननीय कोर्ट के निष्कर्ष मिथ्या धारणा पर आधारित और गलत हैं.’

गृह मंत्रालय के मुताबिक, उक्त मामले में पीड़ित का स्टर्नोक्लेविकुलर ज्वाइंट, जो शरीर के ढांचे को संतुलित करता है, ही पूरी तरह हिला पाया गया था, दो एक दुर्लभ तरह की चोट है जो शरीर के उस हिस्से पर बहुत ज्यादा बल डाले जाने का संकेत है.

गृह मंत्रालय ने अपनी याचिका में कहा है कि यह चोट पीड़िता को कार के जैक से लगी लगी थी, जिस पर उसका खून पाया गया था.

याचिका में पीड़िता के शरीर पर सड़ांध के संकेत न होने के संकेतों के बारे में भी स्पष्ट किया गया है. इसमें बताया गया है कि अटॉप्सी रिपोर्ट में शव का अपघटन शुरू होने के बारे में विशेष तौर पर उल्लेख किया गया है. चूंकि घटना सर्दियों के दौरान हुई थी, तब रिगर मोर्टिस धीरे-धीरे सेट होता है और शुष्क, ठंडी हवा के कारण अपघटन की प्रक्रिया देरी से शुरू होती है.

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(अनुवाद: रावी द्विवेदी )


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