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औरंगाबाद या संभाजीनगर? काशी से दूर औरंगजेब की राजधानी में छिड़ी सांप्रदायिक राजनीति

नगर निगम चुनावों से पहले, शिवसेना की औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर रखने की दशकों पुरानी मांग ने महाराष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति में वापसी की है.

औरंगाबाद, महाराष्ट्र में औरंगजेब के मकबरे का प्रवेश द्वार | मानसी फड़के, दिप्रिंट

औरंगाबाद: मई 2018 के औरंगाबाद सांप्रदायिक दंगों को चार साल हो चुके हैं, लेकिन आज भी जब पुष्पा संचेती शहर के व्यस्त राजा बाजार इलाके की भीड़भाड़ वाली गली से गुज़रती हैं, तो उनके जहन में दर्दनाक यादें ताजा हो आती हैं. ये वही गली है जिससे उपद्रवी उनके घरों तक पहुंचे और बहुत कुछ तबाह कर गए. पुष्पा की पड़ोसी और दोस्त सुनीता भंडारी भी इसी गली से उनके साथ गुजर रहीं हैं. वह भी दंगों की उस भयाहवता को याद कर सिहर उठती है, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी और 50 से ज्यादा घायल हुए थे.

संचेती ने बताया, ‘उनके लोग (मुसलमान) मिट्टी के तेल, ईंटों और पत्थरों के ड्रमों के साथ से पहले से तैयार थे. उन्होंने हमारे पड़ोस के घरों और दुकानों के कुछ हिस्सों में आग लगा दी. हमारे लोगों (हिंदुओं) ने भी एक होकर उन्हें जवाब दिया. हमारे लोग आमतौर पर इस तरह पहले कभी एकजुट नहीं हुए थे.’

दंगे खत्म हो चुके हैं लेकिन सांप्रदायिक तनाव कम नहीं हुआ है. शहर के इस राजनीतिक इतिहास को ज्यादातर शिवसेना ने ही आकार दिया है. वह 1980 के दशक से यहां हिंदुत्व के एजेंडे का प्रचार करती आई है. 2015 में हुए पिछले नगर निगम के चुनावों में शिवसेना ने अपनी 25 साल पुरानी पकड़ बरकरार रखी थी. इसी साल ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भी मुख्य विपक्ष के रूप में उभरकर सामने आया था.

महाराष्ट्र के अन्य प्रमुख नगर निगमों के साथ शहर के निकाय के, इस साल के अंत में चुनाव होने की संभावनाओं ने राजनेताओं को सक्रिय कर दिया है. जैसा कि वह अतीत में करते आए हैं, राज्य भर में अपना एजेंडा सेट करने के लिए औरंगाबाद के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का फायदा उठाने के लिए आगे आने लगे हैं.

चुनावों की सुगबुगाहट के चलते शिवसेना के दिवंगत संस्थापक बाल ठाकरे की औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर रखने की दशकों पुरानी मांग ने महाराष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति में वापसी की है. मौजूदा समय में शहर, 17 वीं शताब्दी के मुगल सम्राट औरंगजेब से लिए गए नाम से जाना जाता है. यह औरंगजेब का आखिरी विश्राम स्थल भी है. इस शहर के नाम ने शिवसेना को लंबे समय तक परेशान किया हुआ है. सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि इसका औरंगजेब से जुड़ा है, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि कहा जाता है कि उसने 1689 में छत्रपति शिवाजी के पुत्र संभाजी की हत्या कर दी थी.

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राजनीतिक चर्चा में यह शायद ही कभी सामने आता है कि शहर के पुराने नाम भी रहे हैं. इसकी स्थापना 1610 में अफ्रीकी गुलाम से सैन्य नेता बने मलिक अंबर ने अहमदनगर सल्तनत की नई राजधानी के रूप में की थी. उस समय इसे खिरकी के नाम से जाना जाता था. 1626 में अंबर की मृत्यु के बाद उनके बेटे फतेह खान ने शहर का नाम बदलकर फतेहनगर कर दिया. यह शहर 1633 में मुगलों के अधीन हो गया, 20 साल बाद औरंगजेब ने इसे अपनी राजधानी बनाया और इसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया.

सदियों बाद मुगल सम्राट अभी भी कई विवादों के केंद्र में है. हाल ही में वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के उनके द्वारा किए गए कथित विनाश पर बहस चल रही है. यहां तक कि उनका नाम ही कुछ लोगों को आहत कर जाता है. दिल्ली भाजपा युवा मोर्चा के सदस्यों द्वारा पिछले महीने दिल्ली में औरंगजेब लेन के साइन बोर्ड को कथित तौर पर खराब करने का मामला सामने आया था.

भाजपा और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) भी नाम बदलने के मुद्दे पर शिवसेना को बैकफुट पर धकेलने की कोशिश कर रही है, जिसकी हिंदुत्व के प्रति प्रतिबद्धता ज्यादा मजबूत है.

1 मई को औरंगाबाद में एक रैली में मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को लाउडस्पीकर मानदंडों का उल्लंघन करने वाली किसी भी मस्जिद के बाहर जोर से हनुमान चालीसा बजाने का निर्देश दिया था.

उस महीने के आखिरी में जब एआईएमआईएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी ने खुल्दाबाद में औरंगजेब की कब्र का दौरा किया तो सांप्रदायिक हलचल मच गई. ओवैसी के इस कदम को भाजपा और शिवसेना की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया मिली, तो वहीं मनसे ने राज्य में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार को मकबरे को पूरी तरह से तोड़ने की चुनौती दे डाली.


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सांप्रदायिक एजेंडा

2011 की जनगणना के अनुसार, औरंगाबाद की आबादी में हिंदुओं की संख्या लगभग 68 प्रतिशत है और 21 फीसदी मुसलमान हैं.

संचेती जैसे कुछ लोगों का कहना है कि औरंगाबाद के कई हिस्सों में मामूली साम्प्रदायिक हाथापाई होना असामान्य नहीं है. जबकि कुछ का कहना है कि शहर में काफी हद तक शांति है. ये तो राजनेता हैं जो लोगों को भड़काने की कोशिश करते हैं.

मनसे के लाउडस्पीकर के एजेंडे और ओवैसी का औरंगजेब के मकबरे पर जाना राज्य के राजनीतिक चर्चाओं पर हावी था. लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक, शहर काफी हद तक इन सबसे अछूता रहा.

औरंगाबाद के मोती करंजा क्षेत्र का एक दृश्य/फोटो: मानसी फडके, दिप्रिंट

औरंगाबाद के मोती करंजा इलाके में स्टील की दुकान चलाने वाले युसूफ खान इस्माइल खान ने दिप्रिंट को बताया, ‘राजनेता अपने फायदे के लिए समय-समय पर सांप्रदायिक मुद्दों को उठाते रहते हैं, लेकिन लोग ऐसा नहीं चाहते.’

खान भाजपा के एक पदाधिकारी भी हैं. उन्होंने कहा कि ओवैसी और अन्य राजनेताओं ने ‘कई बार औरंगजेब की कब्र का दौरा किया है’ लेकिन अब इसे एक मुद्दा बनाया जा रहा है ‘क्योंकि चुनाव नजदीक हैं.’

मोती करंजा में एक छोटी सी चाय की दुकान चलाने वाले शोएब खान ने दिप्रिंट को बताया कि कैसे औरंगाबाद में ठाकरे के भाषण के एक दिन बाद पड़ोस में तनाव हो गया था. वह कहते हैं, ‘लेकिन वो दिन भी शांति से बीत गए. हम यहां हिंदुओं के साथ मेल-मिलाप से रहते हैं. यह बाहरी लोग हैं जो आते हैं और विवादों को भड़काने की कोशिश करते हैं.’

औरंगाबाद की सांप्रदायिक राजनीति में उछाल शहर में शिवसेना के विकास से जुड़ा हुआ है. 1985 में पार्टी ने चुनाव लड़ने के लिए औपचारिक रूप से ‘हिंदुत्व’ को राजनीतिक एजेंडे के रूप में अपनाने और औरंगाबाद में अपनी पहली शाखा (इकाई) स्थापित करने का निर्णय लिया था.

औरंगाबाद के एक कांग्रेसी नेता ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘मुंबई में शिवसेना के ‘धरती के सपूत’ , प्रवासी-विरोधी और दक्षिण भारत विरोधी एजेंडे का असर कम होने लगा था. पार्टी आगे नहीं बढ़ पा रही थी. औरंगाबाद का इतिहास और इसकी बड़ी मुस्लिम आबादी शिवसेना को अपने नए हिंदुत्व एजेंडे के लिए आदर्श नजर आई.’

शिवसेना ने पहुंच बढ़ाई

1988 में शिवसेना ने औरंगाबाद में पहली बार नगर निगम का चुनाव लड़ा. उसने सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ शहर के हिंदुओं के बीच सत्ता विरोधी भावना को खूब उछाला और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई.

हालांकि, कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन करके और अपना मेयर बनाकर शिवसेना को मात दी थी. शहर में पहली बार नगर निगम चुनाव के बाद सांप्रदायिक दंगे हुए थे.

1988 के चुनाव के बाद भी औरंगाबाद का नाम बदलकर ‘संभाजीनगर’ करने का मुद्दा सबसे पहले शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने उठाया था.

औरंगाबाद के मराठवाड़ा सांस्कृतिक मंडल मैदान का एक दृश्य, जहां से शिवसेना के बाल ठाकरे ने सबसे पहले शहर का नाम बदलने का मुद्दा उठाया था/ मानसी फडके/दिप्रिंट

शहर में बाद की चुनावी रैलियों में वह अक्सर मतदाताओं पर मराठी शब्दों में ‘खान या बाण’ (खान या तीर, जो सेना का चुनाव चिन्ह है) जुमला उछालते रहे. वह मतदाताओं के बीच एक तरफ ‘मुस्लिम-का साथ देने वाली कांग्रेस’ और दूसरी तरफ शिवसेना वाली विभाजनकारी रेखा खींच देते थे.

यह शहर शिवसेना का गढ़ बना हुआ है, हालांकि पिछले एक दशक में यहां एआईएमआईएम का प्रभाव काफी बढ़ा है.


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नाम का खेल

औरंगाबाद के शाहगंज में रहने वाली सादिया खान ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने 2019 तक शिवसेना को वोट दिया था. वह कहती हैं, ‘उन्होंने नाम बदलने की नहीं बल्कि सड़कों और जल निकासी के बारे में बात की, इसलिए हमने उन्हें वोट दिया’

हालांकि 2018 के दंगों के बाद शिवसेना के किसी भी व्यक्ति ने खान और उनके परिवार से संपर्क नहीं किया. यह मुस्लिम नेता थे जिन्होंने इस मुश्किल समय में उनकी मदद की. उसके बाद से सादिया खान ने एआईएमआईएम की तरफ रुख कर लिया.

खान और उसके पड़ोस के लगभग सभी लोग इस शहर को औरंगाबाद कहते हैं. साइन बोर्ड और शहर के अधिकांश व्यवसाय में अपने पते में ‘औरंगाबाद’ का उल्लेख करते हैं.

लेकिन शहर में शिवसेना शाखाएं और भाजपा कार्यालय अपने पते के तौर पर संभाजीनगर का प्रचार करते हैं. जहां से ठाकरे ने बार-बार शहर का नाम बदलने का वादा किया है, उस मराठवाड़ा संस्कृति मंडल मैदान की दुकानों और घरों में लोग शहर को संभाजीनगर कहते हैं. किराने की दुकान के मालिक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘केवल वे (मुसलमान) शहर को औरंगाबाद कहते हैं. हमारे लिए यह हमेशा संभाजीनगर रहा है.’

औरंगाबाद के शिवसेना भवन के आसपास के इलाके में भी लोग शहर को ‘संभाजीनगर’ कहते हैं. विडंबना यह है कि भवन के पास खड़ी ‘औरंगपुरा’ नामक इमारत शोर के बीच कहीं खो गई है.

औरंगपुरा, औरंगाबाद में शिवसेना भवन के पास एक दुकान, जिसके पते में ‘संभाजीनगर’ लिखा है/मानसी फड़के/दिप्रिंट

औरंगाबाद के भाजपा नेता संजय केनेकर ने दिप्रिंट को बताया कि शहर का नाम बदलना ‘बालासाहेब का सपना’ था और इसलिए पार्टी के हिंदुत्व एजेंडे के लिए ये बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा, ‘लोगों को जितनी जरूरत विकास, भोजन और पानी की है उतनी ही जरूरत भावनात्मक रूप से ऊपर उठाने की भी है.’

केनेकर ने एमवीए के हिस्से के रूप में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ शिवसेना के गठबंधन का जिक्र करते हुए कहा, ‘शिवसेना अब इसके बारे में कुछ नहीं करेगी क्योंकि वे उन लोगों की गोद में बैठे हैं जो इसके विरोध में रहे हैं.’

औरंगाबाद का नाम बदलने का पहला औपचारिक प्रयास शिवसेना ने 1995 में किया था. उस समय मनोहर जोशी के नेतृत्व वाली शिवसेना-भाजपा सरकार सत्ता में थी. हालांकि एक कांग्रेस पार्षद ने इसे बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया. अदालत ने 1996 में यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था.

शिवसेना के नंदकुमार घोडेले ने दिप्रिंट को बताया कि औरंगाबाद नगर निगम ने तब से दो मौकों पर नाम बदलने का प्रस्ताव पारित कर चुकी है – एक बार तो तब था, जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के साथ भाजपा के देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री थे. वह कहते हैं, ‘अगर बीजेपी को शहर का नाम बदलने की इतनी परवाह थी, तो उन्होंने इसे केंद्र को मंजूरी के लिए क्यों नहीं भेजा?’ नगर निगम के लिए प्रशासक नियुक्त किए जाने से पहले, घोडेले इस नगर निकाय के अंतिम महापौर थें.

उन्होंने कहा, ‘यह बालासाहेब का शहर का नाम बदलने का आह्वान था और हम अपने नेता के निर्देशों का पालन करेंगे. हालांकि खान या बाण अब शिवसेना का एजेंडा नहीं है. मुसलमान भी उद्धव साहब को पसंद करते हैं और हम सिर्फ विकास की बात करते हैं.

शिवसेना द्वारा सत्ता में रहने के बावजूद शहर का नाम बदलने के अपने वादे पर काम नहीं करने के बारे में भाजपा के मजाक पर, पार्टी ने केंद्र पर यह कहते हुए आरोप लगाया कि शहरों का नाम बदलना राज्य के अधिकार क्षेत्र में नहीं है.

वैसे शिवसेना नाम बदलने के मसले पर अपनी जिम्मेदारी दिखाते हुए छोटे कदम उठा रही है. मसलन पार्टी मंत्री सुभाष देसाई ने केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को औरंगाबाद हवाई अड्डे का नाम बदलकर ‘संभाजीनगर हवाई अड्डा’ करने के लिए पत्र लिखा.

उधर कांग्रेस ने नाम बदलने के मुद्दे पर अपना विरोध जताया है. दिप्रिंट से बात करते हुए कांग्रेस औरंगाबाद के जिला अध्यक्ष कल्याण काले ने कहा, ‘हम केवल एमवीए के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में विश्वास करते हैं. हम विकास चाहते हैं. हम चाहते हैं कि अच्छी सड़कें और पर्याप्त पानी हो. मुझे नहीं लगता कि शिवसेना इनमें से किसी से भी असहमत होगी… शहर का नाम बदलना राजनीतिक एजेंडा नहीं होना चाहिए. अगर आप लोगों से पूछें कि क्या उन्हें संभाजीनगर शहर बुलाने में कोई आपत्ति है, तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन क्या यह समय की मांग है? नहीं.’

वापस लौटकर राजा बाजार में संचेती और भंडारी के पास आते हैं. जब उनसे औरंगाबाद का नाम बदलने के मसले पर सवाल किया तो दोनों कुछ समय के लिए चुप हो गईं. संचेती इससे सहमत हैं लेकिन भंडारी सिर्फ शांति चाहती हैं-‘जो होने वाला नहीं है, उसका राग अलापने से क्या फायदा?’ उन्होंने कहा, ‘इसे औरंगाबाद ही रहने दो. चलो, हम सब शांति से रहते हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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