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ऐबक, अकबर, औरंगजेब- ज्ञानवापी विवाद और क्यों एक मस्जिद का नाम संस्कृत में है

मंदिर और मस्जिद एक-दूसरे से सटे मगर प्रवेश द्वार और बाहर निकलने के रास्ते अलग. उनका इतिहास भी उतना ही पेचीदा, जितना ‘पवित्र नगरी’ वाराणसी का.

चित्रणः मनीषा यादव

नई दिल्ली: शताब्दियों पुराने लिंग पुराण के मुताबिक काशी नगर के ऊपर आकाश में शिवलिंग को राक्षस खींच रहे थे, तभी धरती से मुर्गे की बांग सुनाई दी, यानी भोर होने वाली थी. निशाचर राक्षसों ने डर के मारे लिंग वहीं गिरा दिया. विद्वान डायना ईक के मुताबिक, ‘इस तरह लिंग अविमुक्त में स्थापित हुआ. यह वस्तुत एक दिन तडक़े आसमान से गिरा.’
जहां लिंग प्रकट हुआ, या जैसी कि पवित्र मान्यता है, आज वह वाराणसी के दशाश्वमेध वार्ड में प्लॉट नंबर 9130 है, जो गंगा से ज्यादा दूर नहीं है. वहां ज्ञानवापी मस्जिद है, जिससे सटा काशी विश्वनाथ मंदिर है जिसका स्वर्णिम शिखर चमकता है. मंदिर और मस्जिद आपस में सटे हैं, लेकिन उनके प्रवेश द्वार और बाहर निकलने के रास्ते विपरीत दिशा में हैं. दोनों ढांचों की वास्तुकला में फर्क वाराणसी की ‘पवित्र भूमि’ की पेचीदगी को और बढ़ा देते हैं. समन्वय के प्रतीक के रूप में शहर की अपनी छवि का उसके ऐतिहासिक तथ्यों से असहज रिश्ता है.

सैकड़ों वर्ष से मंदिर बुरे धार्मिक टकराव का केंद्र रहा है. 1192 में उसे मुहम्मद गोरी के सिपहसालार कुतुबद्दीन ऐबक ने तोड़ दिया था. उसके तुरंत बाद उसके पुनर्निर्माण के प्रयास शुरू हुए, जिसमें एक मस्जिद निर्माण के काम से खलल पड़ी जो आज भी खड़ी है और जिसे शाहजादी रजियात-उद्-दीन के आदेश से बनाया गया. फिर 1585 में बादशाह जलालुद्दीन अकबर के संरक्षण में नारायण भट्ट ने भव्य नए मंदिर का निर्माण किया जिसे औरंगजेब के आदेश से ढहा दिया गया.

टकराव का इतिहास

वाराणसी आस्थाओं से बना शहर है, लेकिन उसकी अपनी छवि ऐसी है जहां कई परंपराओं का सह-अस्तित्व है, उनके सैकड़ों रंग गली-कूचों में दिख जाते हैं. हालांकि एक दूसरी कहानी भी है, जो कुछ हद तक असहज करती है. इतिहास में दर्ज पहला सांप्रदायिक दंगा 1809 का है, जिसे अब ‘लाट भैरव’ दंगा कहा जाता है. एशियाई इतिहास के विद्वान मार्जिया कैसोलारी ने लिखा है कि ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के बीच लाट भैरव के आसपास के मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदुओं ने हनुमान मंदिर बनाने की कोशिश की तो कई लोग मारे गए. उसके बाद ऐसा माना जाता है कि मुहर्रम और होली की तारीखें एक दिन पड़ीं और जुलूस में टकराव के बाद हिंसा भड़क उठीं.

इतिहासकार ईक ने ‘बनारस: सिटी ऑफ लाइट’ में दंगों के बारे में लिखा है, ‘मुसलमानों ने एक घाट पर गाय का वध कर दिया और उसका खून पवित्र गंगा में बहा. हिंदुओं ने एक मस्जिद को तोड़ दिया और शहर में सभी मस्जिदों को तोड़ डालने की धमकी दी.’ दंगे में एक पवित्र लाट तोड़कर ढहा दिया गया, जिसे शिव के रूद्र रूप भैरव को मानकर पूजा की जाती थी. लाट तीन फुट चौड़ा सात-आठ फुट ऊंचे ढेर में बदल गया. आज भी मुसलमानों के एक ईदगाह में एक मंच पर खड़ा है, जिस पर ताम्रपत्र में सिंदूर से भैरव की छवि बनाई गई है.

हिंदू और मुसलमान दोनों वहां उपासना करते हैं और अक्सर जुलूस के टकराव और हिंसा का इतिहास दोहराया जाता है. 2016 में शिव की बारात के दौरान सांप्रदायिक टकराव हुआ था.

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हालांकि ईक ने लिखा है कि इतिहासकार मैथ्यू अटमोर शेरिंग ने 1860 के दशक में उसका निरीक्षण किया तो उन्हें पूरा यकीन हो गया कि लाट अशोक स्तंभ ही है.


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मस्जिद और मंदिर का मूल

जैसे येरुसलम में यहूदी, ईसाई और मुस्लिम जुटते हैं, उसी तरह मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन शहरों में एक माना जाने वाला वाराणसी भी अपने उथल-पुथल भरे इतिहास से पीछा नहीं छुड़ा सकता. इस प्राचीन भारतीय नगर में काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर आज भी केंद्र बना हुआ है.

धूसर सफेद रंग के तीन गुंबदों वाली मस्जिद 20 फुट ऊंची बैरिकेडिंग के भीतर खड़ी है, जिसकी पश्चिम की दीवार का एक हिस्सा पुराने विश्वेश्वर मंदिर का है.

इतिहास भी ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर की उत्पत्ति पर बंटा हुआ है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि शताब्दियों से मंदिर कई घटनाक्रमों का गवाह रहा है और कि मुगल बादशाह औरंगजेब ने 17वीं सदी में ज्ञानवापी मस्जिद बनाने के लिए उसे तुड़वा दिया था. इतिहासकार ऑड्रयू ट्रुश्के ने औरंगजेब: द मैन ऐंड द मिथ में लिखा है, ‘औरंगजेब के फरमान पर ढहाए गए पुराने विश्वनाथ मंदिर का ढांचा मस्जिद में किब्ला दीवार की तरह शामिल है (मक्का की तरफ देखती अहम दीवार). मस्जिद औरंगजेब के दौर की है, मगर हम नहीं जानते कि उसे किसने बनवाया.’

इतिहासकार शेरिंग लिखते हैं, मौजूदा विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण का निर्माण 1780 में अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया था, जिसमें ज्ञानवापी कुआं या ‘कूप’ प्रसिद्ध ‘नंदी’ की पत्थर की प्रतिमा के पास है, जिसे नेपाल के राणा ने उपहार में दिया था. शेरिंग अपनी किताब में बताते हैं कि ग्वालियर के मराठा शासक दौलत राव सिंधिया की विधवा बैजा बाई ने उस पर 40 स्तंभों पर खड़ी छतरी बनवाई. आज, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण के दौरान उसका जिर्णोद्धार लाल पत्थरों से किया गया है.

ज्ञानवापी का संस्कृत नाम कहां से पड़ा

विवाद का एक दूसरा बिंदु मस्जिद का गैर-परंपरागत नाम है. वाराणसी स्थित विद्धान इससे सहमत हैं कि ज्ञानवापी दो शब्दों से जुडक़र बना है: ज्ञान और वापी (पानी का हौदा या कुआं). दोनों शब्द संस्कृत मूल के हैं और अर्थ है ‘ज्ञान का कुआं’, जिसका जिक्र स्कंद पुराण (8वीं सदी के आसपास) और काशी के कई ऐतिहासिक संदर्भों में आता है.

अंग्रेज विद्वान तथा इतिहासकार जेम्स प्रिंसेप ने 1830 में पहली दफा प्रकाशित हुई अपनी किताब बनारस इलस्ट्रेटेड में ज्ञानवापी नाम का जिक्र नहीं करते और उसे आलमगीर मस्जिद बताते हैं.

संयोग से, ज्ञानवापी मस्जिद से करीब दो किलोमीटर दूर हरतीरथ मोहल्ले में एक और मस्जिद भी आलमगीर मस्जिद के नाम से जानी जाती है. इसके अलावा पंचगंगा घाट पर धरहरेवाली मस्जिद को भी इसी नाम से जाना जाता है.

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मध्ययुगीन इतिहास के प्रोफेसर अली नदीम रिजवी ने दिप्रिंट को बताया कि जैसे बाबरी मस्जिद का नाम मुगल शासक बाबर के नाम पर पड़ा, उसी तरह आलमगीर मस्जिद का नाम उसे बनाने का आदेश देने वाले औरंगजेब के नाम पर पड़ा, जिन्हें आलमगीर (विश्व विजेता के लिए फारसी शब्द) कहा जाता था. वे दिप्रिंट से कहते हैं, ‘बाबरी मस्जिद को मीर बकी ने बनवाया, मगर उसका नाम बाबर के नाम पर रखा गया क्योंकि उसे उसके राज में बनवाया गया था. इसी तरह, आज के ज्ञानवापी मस्जिद का नाम औरंगजेब के नाम पर पड़ा था, जिसने आलमगीर की उपाधि ले ली थी.’

इतिहासकार कुबेरनाथ सुकुल भी इसकी तस्दीक करते हैं. वे अपने वाराणसी वैभव (2008) में लिखते हैं, ‘कृत्तिवासेश्वर मंदिर काल भैरव मंदिर के उत्तर में स्थित था और वृद्धकाल (देवता) का कृत्तिवासेश्वर मंदिर खड़ा था. औरंगजेब ने उसे तुड़वाया और उसकी जगह 1659 में आलमगीर मस्जिद बनवाई….’


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बनारस की पीढ़ियों की स्मृति

इतिहासकार इससे सहमत हैं कि ज्ञानवापी को कभी आलमगीर मस्जिद कहा जाता था, लेकिन वे नाम बदलने की वजहों के बारे में एकमत नहीं हैं.

मंदिर प्रबंधन की सर्वोच्च संस्था काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के 2013 से 2019 तक अध्यक्ष रहे आचार्य अशोक द्विवेदी कहते हैं कि ज्ञानवापी नाम बाद के दौर में प्रचलन में आया है.

हरतीरथ मोहल्ले के आलमगीर मस्जिद के परिसर में स्थित शिवलिंग की नियमित पूजा-अर्चना से जुड़े एक पंडित मदन मोहन देवांशी कहते हैं कि ज्ञानवापी नाम हिंदू पंडितों और संतों के दबाव में प्रचलित हुआ. हालांकि दूसरे विद्वानों का दावा है कि मस्जिद को ‘ज्ञानवापी वाली मस्जिद’ या ‘ज्ञानवापी की मस्जिद’ उस स्थान की वजह से कहा जाता था.
कुबेरनाथ सुकुल ने भी 2000 में छपी अपनी किताब उसे ज्ञानवापी वाली मस्जिद ही लिखते हैं. प्रोफेसर रिजवी के मुताबिक, ‘आलमगीर’ से ‘ज्ञानवापी’ नाम का परिवर्तन वक्त बीतने के साथ हुआ. रिजवी कहते हैं, ‘जितने मुंह, उतनी बातें. लेकिन असलियत यही है कि मस्जिद मुगल काल में आलमगीर मस्जिद ही कही जाती थी.’

कभी बनारस कहे जाने वाले इस प्राचीन शहर में पीढ़ीगत स्मृतियां गहरी और मजबूत हैं. मुगल शहजादे दारा शिकोह के शिक्षकों के परिवार से ताल्लुक रखने का दावा करने वाले जहीर हैदर कहते हैं, ‘आज भी कुछ मुसलमान विद्वान और एक वर्ग उसे आलमगीर मस्जिद ही कहता है. ज्ञानवापी (आलमगीर) मस्जिद के नाम से कुछ बोर्ड भी लगाए गए थे. आप देखिए, उस वक्त औरंगजेब की बनवाई बड़ी मस्जिदों का नाम शायद उसकी उपाधि आलमगीर के नाम पर रखा गया था. इसे ज्ञानवापी इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि दारा शिकोह ने यहां शिक्षा प्राप्त की थी.’

इस प्राचीन शहर की उलझी स्मृतियों से आपस में गुंथे हुए अफसानों से किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. दरअसल वाराणसी में इतिहास, धर्म, मिथक सब एक साथ जुड़े हुए हैं.

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