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‘नेतृत्वहीन’ हैं 7 शीर्ष केंद्रीय एजेंसियां, कार्यवाहक प्रमुखों के अंतर्गत कर रही हैं काम

अधिकारियों का कहना है कि एक नियमित प्रमुख प्रशासन और अनुशासन में स्थिरता लाता है, जो इन महत्वपूर्ण एजेंसियों के सुचारु संचालन और विकास के लिए ज़रूरी है.

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की (प्रतीकात्मक तस्वीर) | फोटो: ट्विटर

नई दिल्ली: सात महत्वपूर्ण केंद्रीय एजेंसियां जिनमें केंद्रीय पुलिस संगठन भी शामिल हैं, नियुक्तियों में देरी के कारण कुछ समय से बिना प्रमुखों के काम कर रही हैं.

ये तमाम संगठन- केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए), नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी), पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (बीपीआर&डी) केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी), दिल्ली पुलिस, नागरिक सुरक्षा और होमगार्ड्स- कार्यवाहक प्रमुखों के आधीन काम कर रहे हैं.

सुधीर कुमार सक्सेना 24 मई से सीआईएसएफ के कार्यवाहक महानिदेशक का काम कर रहे हैं, जबकि कुलदीप सिंह जो केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के डीजी भी हैं, 29 मई से एनआईए के कार्यवाहक प्रमुख का काम देख रहे हैं.

सतर्कता आयुक्त सुरेश एन पटेल ने सीवीसी के कार्यवाहक प्रमुख का कार्यभार संभाला, जब 23 जून को पूर्व आयुक्त संजय कोठारी का कार्यकाल ख़त्म हो गया.

नागरिक सुरक्षा और होमगार्ड्स के डीजी का पद भी 15 मई से ख़ाली पड़ा है, जब पूर्व चीफ मौहम्मद जावेद अख़्तर की, कार्यकाल में ही कोविड से मौत हो गई थी.

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इस बीच, मंगलवार को बतौर दिल्ली पुलिस आयुक्त एसएन श्रीवास्तव के रिटायर होने के बाद, 1988 आईपीएस बैच के बालाजी श्रीवास्तव को, नियमित कमिश्नर की नियुक्ति या अगले आदेश तक, ‘पुलिस आयुक्त का अतिरिक्त प्रभार’ दिया गया है. ये बालाजी के बतौर स्पेशल सीपी विजिलेंस, उनके नियमित कार्यभार के अतिरिक्त है.

कुछ कार्यवाहक प्रमुख कम से कम एक साल से संगठनों की अगुवाई कर रहे हैं. एनसीबी में राकेश अस्थाना, जो सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के डीजी भी हैं, दिसंबर 2019 से कार्यवाहक प्रमुख चले आ रहे हैं, और वीएसके कौमुदी जो विशेष सचिव (आंतरिक सुरक्षा) हैं, अगस्त 2020 से बीपीआर&डी के अंतरिम हेड हैं.

सीबीआई भी फरवरी में आरके शुक्ला के रिटायर होने के बाद से बिना प्रमुख के काम कर रही थी. तीन महीने बाद कहीं जाकर, मई के अंत में, सुबोध कुमार जायसवाल को सीबीआई निदेशक नियुक्त किया गया.

सीबीआई निदेशक की नियुक्ति एक तीन-सदस्यीय कमेटी की सिफारिश के आधार पर की जाती हैं, जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं, और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट का कोई जज सदस्य होते हैं.

अन्य नियुक्तियां नियुक्ति समिति द्वारा की जाती हैं जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं, और जिसमें गृहमंत्री तथा अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी शामिल होते हैं.

गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने, जो नाम नहीं बताना चाहते थे, इस बात को स्वीकार किया कि नियुक्तियां किए जाने में देरी हुई है.

मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, ‘अधिकारियों को नियुक्त करने की प्रक्रिया चल रही है. हम उस पर काम कर रहे हैं. इस मामले पर हम अभी और अधिक विवरण नहीं दे पाएंगे’.

दिप्रिंट ने प्रधान मंत्री कार्यालय और प्रेस सूचना ब्यूरो के अधिकारियों से, ईमेल और लिखित संदेशों के माध्यम से संपर्क किया,लेकिन इस ख़बर के छपने तक उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी.

‘कार्यवाहक अधिकारियों के पास वो नैतिक अधिकार नहीं होता’

एक वरिष्ठ रिटायर्ड अधिकारी के अनुसार, ऐसा ‘पहले कभी नहीं हुआ कि इतने सारे केंद्रीय संगठन जो एक अहम रोल अदा करते हैं, कार्यवाहक प्रमुखों के अंतर्गत काम कर रहे हैं’.

उन्होंने कहा कि कार्यवाहक हेड के पास उस ‘पद पर कोई नैतिक अधिकार नहीं होता’. इसके अलावा, बल भी अपने व्यवहार में कार्यवाहक प्रमुख को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता.

अधिकारी ने नाम न बताने की इच्छा के साथ दिप्रिंट से कहा, ‘ये स्थिति बिल्कुल भी वांछनीय नहीं है. एक नियमित प्रमुख प्रशासन और अनुशासन में स्थिरता लाता है. इन संगठनों के लिए ज़रूरी है कि सुचारु संचालन और विकास के लिए उनका अपना प्रमुख हो’.

उन्होंने कहा कि इन सभी संगठनों में रोज़ाना के आधार पर बहुत से फैसले लिए जाते हैं, और उन्हें नेतृत्वहीन रखने का मतलब होगा कि काम का ढेर लग जाएगा, और कुछ अहम चीज़ों की अनदेखी होगी.


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इसके अलावा, अधिकारी ने कहा कि कार्यवाहक प्रमुख सख़्त और अप्रिय फैसले नहीं लेते क्योंकि बहुत सी चीज़ों के लिए उनके पास वैधानिक शक्तियां नहीं होतीं, और वो स्थायी प्रमुख के चार्ज लेने का भी इंतज़ार करते रहते हैं.

उन्होंने कहा, ‘कोई भी व्यक्ति ऐसी किसी चीज़ में समय लगाना नहीं चाहेगा जो स्थायी नहीं है. इसलिए वो और कुछ नहीं बस छोटे-छोटे प्रशासनिक मामले और राज़मर्रा की फाइलें ही देखते रह जाते हैं, जिसे काम प्रभावित होता है, काम में अनावश्यक देरी होती है, जिसके दीर्घकाल में गंभीर परिणाम सामने आते हैं’.

‘बल का उत्साह घटता है’

एक अन्य रिटायर्ड अधिकारी ने कहा कि चीफ के न होने से बल का उत्साह घटता है, और संगठन के कामकाज पर भी असर पड़ता है.

अधिकारी ने कहा, ‘इतने बड़े बल जब नेतृत्वहीन होते हैं, तो पूरी फोर्स का उत्साह ठंडा पड़ जाता है. एक अनिश्चितता और भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है, चूंकि कार्यवाहक चीफ कभी अधिकार के साथ काम नहीं कर सकता, क्योंकि वो खुद निश्चित नहीं होता कि चीफ के तौर पर वो कितने दिन काम कर पाएगा’.

उसके अलावा, ये उन अधिकारियों के लिए भी बेहद निराशाजनक होता है जो नामित होते हैं, पदोन्नत होने की आकांक्षा रखते हैं, और रिटायरमेंट की उम्र को पहुंच रहे होते हैं.

अधिकारी ने दिप्रिंट से कहा, ‘वो अधिकारी जिन्होंने अपना पूरा जीवन सेवा में गुज़ार दिया है, रिटायर होने की उम्र को पहुंच रहे हैं, और जिनके पास बतौर चीफ काम करने के लिए मुश्किल से 1-3 साल बचे होते हैं, उनके लिए एक एक दिन मायने रखता है. किसी तर्कसंगत कारण के बिना उन्हें इंतज़ार कराना उनके अंदर निराशा की भावना पैदा कर देता है’.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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