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चमकीले रत्नों से नहीं, ज़ीरे के कारोबार से लाखों रुपए कमाते हैं गुजरात के ये पटेल

उंझा का APMC एशिया का सबसे बड़ा मसाला बाज़ार है, और इस कारोबार में पटेलों का दबदबा है. सुविधाओं और जल्द भुगतान की वजह से, किसान अपनी उपज यहीं बेंचना पसंद करते हैं.

गुजरात के ऊंझा एपीएमसी में मसाले का होता व्यापार । फोटोः प्रवीण जैन । दिप्रिंट

उंझा, गुजरात: अगर आप गुजरात के मेहसाणा ज़िले से गुज़र रहे हों, और हवा में ज़ीरे की गंध आने लगे, तो आप शायद उंझा में हैं, वो शहर जहां एशिया की सबसे बड़ी मसाला मंडी मौजूद है.

सूबे की राजधानी गांधीनगर से उत्तर में, क़रीब 80 किलोमीटर दूर स्थित शहर उंझा की आबादी, 2011 की जनगणना के हिसाब से, 57,000 से कुछ अधिक है. ये वो जगह हैं जहां कई पीढ़ियों से देशभर के किसान, अपनी उपज को घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापारियों को बेंचते हैं. लेकिन ज़ीरे तथा अन्य मसालों के व्यवसाय में एक समुदाय- पटेलों का वर्चस्व है. यहां तक कि उंझा कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) मंडी के, सभी 11 सदस्य संगठित पटेल समुदाय से हैं.

पटेल लोग सूरत में रत्नों ख़ासकर हीरों के व्यापार के अपने वर्चस्व के लिए जाने जाते हैं, जिससे उन्होंने बेइंतिहा दौलत और रसूख़ हासिल किया है. लेकिन सूरत के अपने समकक्षों के विपरीत, उंझा के ज़ीरा व्यापारी पटेलों में कोई फरारी या मर्सिडीज़ देखने को नहीं मिलेगी. हालांकि ज़ीरा व्यवसाय काफी दौलत पैदा करता है- निर्यात से सालाना 2,000 करोड़ रुपए- लेकिन व्यवसाइयों को अपनी दौलत का दिखावा करना बिल्कुल पसंद नहीं है.

उंझा एपीएमसी में एक व्यस्त दिन । फोटोः प्रवीण जैन । दिप्रिंट

उंझा स्थित मसाला निर्यात कंपनी पीजेएम एक्सपोर्ट्स के सीईओ, राकेश पटेल ने कहा, ‘हमारा हर रोज़ किसानों और व्यापारियों से वास्ता पड़ता है. भले ही हम निर्यात करते हों, लेकिन हमें अपना एक पांव यहां ज़मीन पर रखना पड़ता है. हम उन लोगों को अपने से दूर नहीं कर सकते, जिनके साथ काम करते हैं’.

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भारतीय मसाला हितधारक संघ के अध्यक्ष और व्यवसायी देवेंद्र पटेल भी जिनका उंझा एपीएमसी में एक गोदाम है, इससे सहमत थे. उनका कहना है कि उनके समुदाय की हाईप्रोफाइल जीवन शैली में कोई रूचि नहीं है.

देवेंद्र ने कहा, ‘हाईप्रोफाइल जीवन शैली में हमारी कोई रूचि नहीं है. हम व्यावहारिक तरीक़े से जीते और काम करते हैं. मूल रूप से हम किसान थे, और उस इतिहास के हम अभी भी बहुत क़रीब हैं.’

ज़ीरा व्यवसाय

राजस्थान और उत्तरी गुजरात, जो प्राकृतिक रूप से सूखे क्षेत्र हैं, ज़ीरे की खेती के लिए आदर्श जलवायु मुहैया कराते हैं, जो भारत से दूसरा सबसे अधिक निर्यात होने वाला मसाला है. आमतौर से इसकी बुवाई अक्तूबर से दिसंबर के बीच होती है, और फरवरी से अप्रैल के बीच, इसकी कटाई हो जाती है. दुनिया भर में लगभग 70 प्रतिशत ज़ीरे की आपूर्ति भारत से होती है, जिसका तक़रीबन 55 प्रतिशत गुजरात में बोया जाता है.

उंझा ज़ीरे तथा 27 अन्य मसालों के कारोबार का, एक क़ुदरती केंद्र बन गया, चूंकि वो इस बाज़ार से 300 किलोमीटर के घेरे में उगाए जाते हैं. यहां पर गुजरात के साबरकांथा, बनासकांथा, सौराष्ट्र, और कच्छ क्षेत्रों तथा राजस्थान तक से किसान आते हैं.

लेकिन मसाला व्यवसाय की वजह से, बीते कुछ सालों में उंझा एक अच्छा विकसित शहर बन गया है. एपीएमसी उंझा तहसील के सभी 35 गांवों को दुर्घटना बीमा मुहैया कराती है, और उसने अस्पतालों, ब्लड बैंकों, तथा स्कूलों के लिए, एक करोड़ रुपए से अधिक दान किए हैं.

एपीएमसी अध्यक्ष दिनेश पटेल ने कहा, ‘मसाला व्यापार की बदौलत ही उंझा इतना विकसित हो पाया है. हम एक उद्यमी समुदाय हैं, और सब जगहों से लोग देखने आते हैं कि हमारा बाज़ार कैसे काम करता है’.

2016 से उंझा में ज़ीरे के उत्पादन और व्यवसाय में वृद्धि दर्ज की गई है- एपीएमसी आंकड़े बताते हैं कि 2019-20 में 21,66,532 क्विंटल मसालों का व्यापार किया गया, जो 2016-17 के 11,34,808 क्विंटल पर भारी उछाल है. गुणवत्ता के हिसाब से इन मसालों के दामों में, काफी अंतर होता है- 1,000 रुपए से 3,000 प्रति 29 किग्रा तक.

ख़ुद एपीएमसी की स्थापना 1954 में की गई थी, और किसान अपनी उपज यहीं बेचना पसंद करते हैं, क्योंकि बोली के बाद उन्हें तुरंत नक़द दाम मिल जाते हैं. किसानों के पास 52 गोदाम भी हैं- जो व्यवसाइयों के ख़र्च पर बनाए गए हैं- जहां वो अगर चाहें तो अपनी उपज रख सकते हैं. एपीएमसी ने मंडी आने वालों के लिए, स्थाई सुविधाएं भी मुहैया कराई हैं- सोने के लिए जगह, एक कैंटीन, जिसमें मशीन-चालित रोटी मेकर्स हैं, जहां एक दिन में 3,000 तक लोग भोजन कर सकते हैं, और मिट्टी परीक्षण की सुविधाएं पा सकते हैं.

उंझा एपीएमसी में आने वाले किसान कैंटीन में भोजन करते हुए । फोटोः प्रवीण जैन । दिप्रिंट

एक किसान श्रवण सिंह, जो राजस्थान में माउंट आबू के पास ज़ीरा और सौंफ़ उगाते हैं, लेकिन उन्हें उंझा एपीएमसी में बेंचते हैं, ने कहा, ‘इस मंडी की सबसे अच्छी बात ये है, कि यहां उपज रखने की जगह मिल जाती है, जिसके लिए कोई पैसा नहीं देना पड़ता. और अगर हमें अच्छे दाम नहीं मिलते, तो हम बेंचने से मना कर सकते हैं. बिक्री के बाद हमें उसी दिन, नक़द पैसा मिल जाता है’.

किसान यहां अपनी उपज के ढेर लगा देते हैं, जिन्हें नीलाम कर्त्ताओं को दिखाया जाता है, जिन्होंने एपीएमसी को एक सदस्यता फीस दी होती है. निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए, एक जनरल कमीशन एजेंट और नीलामी क्लर्क्स, इस प्रक्रिया की मध्यस्थता करते हैं.

अंजीभाई, जो कच्छ में ज़ीरा उगाते हैं, कहते हैं कि नीलामी प्रक्रिया से निष्पक्षता सुनिश्चित हो जाती है. उन्होंने कहा, ‘ये प्रक्रिया पारदर्शी है, और हमारा दख़ल होता है कि हम बेंचना चाहते हैं कि नहीं. हमें हमेशा अच्छे दाम नहीं मिलते, लेकिन फिर भी ये अधिकार अपने पास रखना बेहतर है.’

कारोबार कैसे विकसित हो रहा है

एपीएमसी आंकड़ों के अनुसार, उंझा में 800 फर्में हैं, जो ज़ीरे और अन्य मसालों के निर्यात में लगी हैं. और देवेंद्र पटेल ने दिप्रिंट को बताया, कि दूसरे बहुत से परिवारों की तरह, उनका परिवार भी कई पीढ़ियों से इस व्यवसाय में लगा है. देवेंद्र ने कहा, ‘ये एक पारिवारिक व्यवसाय है. मैंने अपने पिता से लिया था.’

देवेंद्र पटेल जीरा दिखाते हुए जिसका वे व्यापार करते हैं । फोटोः प्रवीण जैन । दिप्रिंट

प्रवीणभाई पटेल, जो अपने जन्म स्थान उंझा से ज़ीरा ख़रीदते हैं, और उसे बेंगलुरू में बेंचते हैं, ने आगे कहा, ‘मेरे पिता ने यहां व्यवसाय शुरू किया था, और मेरा भाई अभी भी यहीं रहता है. मैं अपने भाई के साथ को-ऑर्डिनेट करके, यहां से अपना ज़ीरा ख़रीदता हूं, जिसे मैं फिर बेंगलुरू में बेंचता हूं.’

लेकिन, इसका मतलब ये नहीं है कि उंझा समय के साथ बदला नहीं है. एपीएमसी सचिव विष्णु पटेल ने कहा, कि नई पीढ़ी के कारोबार को हाथ में लेने के साथ, धीरे धीरे बदलाव आ रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘पुराने व्यवसाई पुराने ढंग से काम करते रहते हैं. लेकिन नई पीढ़ी और नई दौलत के साथ, चीज़ें धीरे धीरे बदल रहीं हैं. टेकनॉल्जी भी सुधर गई है. उस मायने में बदलाव आना लाज़िमी है.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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