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‘कश्मीर क्रिकेट में 20 साल पीछे है’, महिला IPL में दिल्ली कैपिटल्स की पसंद बनीं जसिया अख्तर

प्रैक्टिस के लिए शोपियां से श्रीनगर जाने के लिए जसिया अख्तर को हर रोज 250 रुपये खर्च करने पड़ते थे. अपने सपने को पूरा करने के लिए वो बचत करती थी.

दिल्ली कैपिटल्स द्वारा पहली महिला प्रीमियर लीग के लिए चुनी जाने वाली कश्मीर की एकमात्र महिला क्रिकेटर जसिया अख्तर | यूट्यूब

मैं कश्मीर में महिला क्रिकेटरों के लिए एक फाउंडेशन शुरू करूंगी, ताकि उन्हें मेरी तरह संघर्ष न करना पड़े.’ 28 वर्षीय जसिया अख्तर, कश्मीर की एकमात्र महिला क्रिकेटर हैं, जिन्हें सोमवार को हुई नीलामी के दौरान दिल्ली कैपिटल्स द्वारा 20 लाख रुपये में, पहली वुमन प्रीमियर लीग के लिए चुना गया. टी20 टूर्नामेंट 4 मार्च से शुरू हो रहा है.

अख्तर आठ साल की थी जब उसने पहली बार एक बल्ला पकड़ा था, जो उसके चचेरे भाई का था. उसका भाई उसके साथ पड़ोस के मैदान में क्रिकेट खेलने जाता था. खेल के लिए उसका प्यार हर बार तब बढ़ता गया, जब- जब उसने गेंद को मारा और कैच छूटने के बाद लड़कों को दौड़ते और चिल्लाते सुना. समाज ने अख्तर को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह एक महिला है. पड़ोसी लगातार उसके परिवार को क्रिकेट खेलने के लिए बाहर भेजने के बजाय, उसे घर का काम सिखाने के लिए कहते थे. लेकिन अपने परिवार के सहयोग से उसने यह सब सह लिया.

हैदराबाद में जोनल मैच के दिन भर के प्रैक्टिस के बाद, सोमवार की शाम को अपने बिस्तर पर लेटे हुए, अख्तर ने अपना व्हाट्सएप खोला. दिल्ली कैपिटल्स टीम में सिलेक्शन पर बधाई देने वाले मैसेजों से उनका व्हाट्सप्प भरा हुआ था. जिसे देख वह शांत हो गई क्योंकि सारी यादें उनकी आंखों के सामने आ गई.

अख्तर ने एक फोन कॉल पर दिप्रिंट को बताया कि ‘इन सब चीज़ों को समझने और अपनाने में मुझे कुछ मिनट लगे जिसके बाद सबसे पहले मैंने अपने माता-पिता को फोन किया.’

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पीछे धकेलता समाज

उग्रवाद प्रभावित शोपियां के सुदूरवर्ती गांव ब्रारीपोरा से ताल्लुक रखने वाली अख्तर का जीवन संघर्ष और सामाजिक दबाव से भरा हुआ रहा. अख्तर के पिता एक किसान है और उनकी मां एक गृहिणी, जहां उन्हें छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी संघर्ष करना पड़ा.

शोपियां से श्रीनगर और जम्मू-कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन में प्रैक्टिस पर जाने के लिए हर रोज 250 रुपये लगते थे जिसके लिए अख्तर को अपनी पॉकेट मनी बचानी पड़ती थी, जो कि उनकी उम्र के बच्चे आमतौर पर कपड़े और खाने-पीने का सामान खरीदने पर खर्च करते थे.

अख्तर ने ख़ुशी से कहा, ‘अंत भला तो सब भला. लेकिन हां, यहां तक आने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा. लेकिन मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं है क्योंकि क्रिकेट मेरी दुनिया है.’

अख्तर ने कहा कि जम्मू और कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन क्रिकेटरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अच्छी तरह से विकसित नहीं था. बल्ला, गेंद, दस्ताने और हेलमेट सहित बुनियादी उपकरण उपलब्ध नहीं थे और न ही कोई मार्गदर्शन करने वाला था.

अख्तर अन्य महिला क्रिकेटरों के साथ, आपस में चीयर करती थीं और उन राष्ट्रीय खिलाड़ियों की नकल करती थीं जिन्हें उन्होंने टेलीविजन पर देखा था. लेकिन 2013 में, 18 साल की उम्र में जब वो पंजाब गईं तो वास्तविकता ने उसे हिला कर रख दिया. उसे पता चला कि वह अभी बिल्कुल भी तैयार नहीं है और कहीं पहुंचने के लिए उसे वास्तव में कड़ी मेहनत करनी होगी, और यह सब उसने अपनी पसंदीदा खिलाड़ी मिताली राज और हरमनप्रीत कौर को फॉलो करते हुए किया.

उन्होंने कहा कि ‘कश्मीर 20 साल पीछे है. कश्मीर में क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए कुछ भी नहीं है – चाहे वे पुरुष हों या महिलाएं. यहां तक कि कोई प्रॉपर ग्राउंड तक नहीं है. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि ऐसी कई महिलाएं हैं जो क्रिकेट को करियर के रूप में अपनाना चाहती हैं लेकिन अवसर की कमी के कारण उन्हें अपने सपने को मारना पड़ता है.’

अख्तर ने पंजाब में दिन-रात प्रैक्टिस किया. यह तब तक जारी रहा जब तक कि एक दिन उन्होंने पंजाब में अपने कोच रणजीत सिंह का ध्यान आकर्षित नहीं किया, जिन्होंने उन्हें राज्य के लिए खेलने का मौका दिया. छह साल तक पंजाब में खेलने के बाद, वह राजस्थान चली गईं, जहां उनकी मुलाकात गंगोत्री चौहान से हुई. चौहान राजस्थान महिला क्रिकेट चयन समिति की अध्यक्ष हैं. अख्तर इस समय राजस्थान टीम की कप्तान हैं.

अख्तर ने आगे कहा, ‘कश्मीर से पंजाब तक का सफर कठिन था. भाषा अलग थी. संस्कृति नई थी. लेकिन आखिरकार पंजाब मेरा घर बन गया. पंजाब और राजस्थान ने मुझे इतना प्यार दिया है कि मैं इसे शब्दों में बयां नहीं कर सकती.

‘उन्होंने कहा कि मैं फेल हो जाऊंगी’

टीनेजर अख्तर क्लास बंक कर देती थी और चुपचाप मैच खेलने चली जाती थी. जब उनके पिता उन्हें डांटते थे, तो क्रिकेट के लिए अपने प्यार को वह आंसू भरी आंखों से दिखाती थी. उनके पिता गुल मोहम्मद वानी, जो खुद क्रिकेटर बनने का सपना देखते थे, अपनी बेटी को रोक नहीं पाए. हालांकि, समाज ने उनके सपनों को रोकने की पूरी कोशिश की.

अख्तर ने कहा, ‘हर दिन मैं अपने पड़ोसियों और परिचितों से मेरे खिलाफ बाते सुनती थी. वे कहते थे कि मैं फेल हो जाऊंगी और कुछ नहीं कर पाऊंगी. लेकिन, मुझे यह एहसास हुआ कि मेरा लक्ष्य इन आलोचनाओं से बड़ा है.’

सोमवार को जब उन्होंने अपने माता-पिता को अपने सिलेक्शन के बारे में बताया तो उनकी आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े. लेकिन अख्तर के लिए सफर अभी शुरू हुआ है. जबकि वह अपने क्रिकेट करियर के लिए अब कश्मीर नहीं लौटना चाहती हैं, उनका सपना है कि घाटी को महिला खिलाड़ियों के लिए व्यवहार्य बनाया जाए – न केवल खेलों में बल्कि सामाजिक रूप से भी.

उन्होंने आगे हंसते हुए पूछा, ‘समाज महिलाओं को बाहर निकलने, कमाने और अपने सपनों को पूरा करने की अनुमति नहीं देता है. लेकिन वही समाज दहेज मांगता है. जब आपने महिलाओं को कमाने नहीं दिया तो आप पैसे कैसे मांग सकते हैं? मैं दहेज के खिलाफ हूं लेकिन यह समाज के दोगले चरित्र को दर्शाता है. है न?’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादन: अलमिना खातून)


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