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चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर SC के फैसले का असर पड़ सकता है ईवीएम पर : उर्दू प्रेस

पेश है दिप्रिंट का राउंड-अप कि कैसे उर्दू मीडिया ने पिछले हफ्ते के दौरान विभिन्न समाचार संबंधी घटनाओं को कवर किया और उनमें से कुछ ने इसके बारे में किस तरह का संपादकीय रुख अपनाया.

चित्रण: प्रज्ञा घोष/दिप्रिंट
चित्रण: प्रज्ञा घोष/दिप्रिंट

नई दिल्ली: पिछले महीने हुए विवादास्पद चुनाव के नतीजों को रद्द करने के शीर्ष अदालत के फैसले की सराहना करते हुए सियासत अख़बार के एक संपादकीय में कहा गया कि चंडीगढ़ मेयर चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के लिए “दूरगामी परिणाम” हो सकता है.

इस हफ्ते की शुरुआत में मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह ने आम आदमी पार्टी और कांग्रेस द्वारा संयुक्त रूप से मैदान में उतारे गए उम्मीदवार कुलदीप कुमार ‘टीटा’ के पक्ष में आठ वोटों को अमान्य कर दिया था.

21 फरवरी को अपने संपादकीय में — फैसले के एक दिन बाद — सियासत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में विश्वास को मजबूत करने में मदद की है.

संपादकीय में कहा गया, “हालांकि, सुप्रीम कोर्ट का फैसला चंडीगढ़ के मेयर पद तक सीमित है, लेकिन इससे यह उम्मीद जगी है कि इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के उपयोग के बारे में कई हलकों में संदेह रहा है. जनता को अपने वोटों की अखंडता की चिंता है. हालांकि, (भारत के) निर्वाचन आयोग ने इन चिंताओं को लगातार खारिज किया है, लेकिन उन्हें संबोधित करने के लिए अभी तक ठोस कदम नहीं उठाए हैं. कोई व्यापक नीति नहीं बनाई गई है.”

इस सप्ताह उर्दू प्रेस में चर्चा में रहने वाली अन्य खबरें थीं किसानों का विरोध प्रदर्शन, जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की छापेमारी, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच सीट बंटवारे पर बातचीत.

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INDIA दल

विपक्षी इंडिया गुट में सीट-बंटवारे की बातचीत ने इस हफ्ते सभी तीन उर्दू अख़बारों — रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा, इंकलाब और सियासत को व्यस्त रखा.

कांग्रेस दो सहयोगियों — उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और दिल्ली, गुजरात और हरियाणा में AAP के साथ सीट बंटवारे पर बातचीत कर रही है.

22 फरवरी को अपने संपादकीय में सियासत ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और अखिलेश यादव की सपा के बीच गठबंधन राज्य में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की बढ़त का मुकाबला कर सकता है. संपादकीय में कहा गया है कि भाजपा की सीटें, जो 2019 के आम चुनाव में 62 पर थीं, इस बार कम हो सकती हैं.

उत्तर प्रदेश संसद में सबसे अधिक सांसद भेजता है और इसे चुनावी रूप से महत्वपूर्ण राज्य माना जाता है — संपादकीय में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया है. इसमें कहा गया है कि यूपी में बीजेपी के लिए कम से कम दो-तीन दर्जन सीटों का नुकसान उसकी गति को रोक सकता है.

इसमें कहा गया, “अगर बीजेपी को लगातार तीसरी बार जीतने से रोकना है तो उत्तर प्रदेश में उसकी सीटें कम करना ज़रूरी है. बिहार में भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को नुकसान के संकेत सामने आ रहे हैं. इस स्थिति को देखते हुए बीजेपी एक बार फिर से नीतीश कुमार को अपने खेमे में ले आई है. हालांकि, यह फैसला भाजपा और बिहार (मुख्यमंत्री) नीतीश कुमार दोनों के लिए हानिकारक साबित हो सकता है.”

इस बीच, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस — दोनों नीतीश कुमार और उनके जनता दल (यूनाइटेड) के पूर्व सहयोगी — स्थिति से लाभान्वित हो सकते हैं, संपादकीय में कहा गया है, बशर्ते उनके पास “सीट वितरण की राजनीति” में उलझने के बजाय जनता को शामिल करने के लिए एक संरचित योजना हो.

20 फरवरी को सहारा के संपादकीय में — कांग्रेस और सपा द्वारा यूपी में सीट-बंटवारे को अंतिम रूप देने की घोषणा से एक दिन पहले — कहा गया कि यादव और उनकी पार्टी ने स्पष्ट कर दिया था कि कांग्रेस राज्य में 15 से अधिक सीटें नहीं मांग सकती.

इसमें यह भी निहित है कि समाचार खबरों पर हमेशा भरोसा नहीं किया जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि सीट-बंटवारे की व्यवस्था इंडिया ब्लॉक में दरार की चर्चा के बावजूद हुई.

सहारा ने पूछा, “सीट-बंटवारे पर सहमति बन गई है. जब सीटों के आवंटन की बात आती है तो (ऐसा प्रतीत होता है) कोई झिझक नहीं है. तो क्या यह माना जा सकता है कि एनडीए में राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के शामिल होने से स्थिति बदल गई है?”

पहले उत्तर प्रदेश में सपा की सहयोगी रही रालोद इस महीने की शुरुआत में राजग में शामिल हो गई.

इस बीच, उस दिन सियासत के संपादकीय में बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सफलता के दावों पर सवाल उठाया गया. इसने सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को लगातार निशाना बनाने की तुलना भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आलोचना से की.

इसमें कहा गया है कि चुनावी राजनीति का ध्यान “शोर-शराबा” करने के बजाय सार्वजनिक मुद्दों को संबोधित करने पर होना चाहिए, साथ ही राजद नेता और लालू के बेटे तेजस्वी यादव की बढ़ती राजनीतिक प्रतिष्ठा को नज़रअंदाज करने के लिए भाजपा का मजाक भी उड़ाया गया.


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सत्यपाल मलिक पर सीबीआई का छापा

केंद्र शासित प्रदेश में एक जल विद्युत परियोजना में भ्रष्टाचार के आरोपों की चल रही जांच के तहत जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक से जुड़े परिसरों पर इस हफ्ते की शुरुआत में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की छापेमारी को भी प्रमुखता से कवरेज मिली.

मलिक पूर्ववर्ती राज्य जम्मू-कश्मीर के अंतिम राज्यपाल थे.

सहारा ने अपने संपादकीय में कहा कि विपक्षी दल अक्सर केंद्रीय एजेंसियों पर डराने-धमकाने का आरोप लगाते रहे हैं. संपादकीय में कहा गया, मलिक पर छापेमारी इसका ताजा उदाहरण है.

इसमें कहा गया, “सत्यपाल मलिक इस समय अस्वस्थ हैं और एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है, फिर भी उनके आवास पर सीबीआई ने छापा मारा.” इसमें कहा गया है कि मलिक अक्सर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के आलोचक रहे हैं.

किसानों का विरोध

जारी किसानों के विरोध प्रदर्शन ने इस हफ्ते भी उर्दू प्रेस का ध्यान आकर्षित किया. 22 फरवरी को अपने संपादकीय में सहारा ने टिप्पणी की कि इससे टोल वसूलना शुरू हो गया है. ऐसा तब हुआ जब बुधवार को हरियाणा के पास खनौरी में एक विरोध मार्च के हिंसक हो जाने के बाद पंजाब के एक किसान की मौत हो गई.

“मृतक की पहचान पंजाब के बठिंडा के शुभ करण सिंह के रूप में हुई है, जिन्होंने चोटों के कारण पटियाला के राजिंदरा अस्पताल में दम तोड़ दिया. रबर की गोली उनके कान के ऊपर लगी, जिससे उनकी मौत हो गई. ये प्रदर्शनकारी किसान दिल्ली जाना चाहते हैं, लेकिन हरियाणा पुलिस उन्हें रोक रही है.” संपादकीय में कहा गया है कि किसानों ने पुलिस पर .32 और .12 बोर हथियारों से गोलीबारी करने का भी आरोप लगाया है.

संपादकीय में कहा गया, “दिल्ली से सटी सीमाओं पर भी स्थिति ऐसी ही है.”

मराठा आरक्षण

उर्दू अखबारों ने इस हफ्ते की शुरुआत में महाराष्ट्र विधानसभा द्वारा राज्य के प्रभावशाली मराठा जाति समूह के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाले विधेयक को पारित करने को भी प्रमुखता से कवर किया.

22 फरवरी को अपने संपादकीय में इंकलाब ने कहा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे खुद एक मराठा नेता थे, लेकिन यह राजनीतिक हित हैं जो अभी भी सरकार के फैसलों को नियंत्रित करते हैं.

मराठा आरक्षण विरोध के नवीनतम दौर का नेतृत्व करने वाले कार्यकर्ता नेता मनोज जारांगे-पाटिल का ज़िक्र करते हुए इसमें कहा गया है, “आगामी लोकसभा चुनावों के कारण इस सरकार ने जल्दबाज़ी में इस विधेयक को पारित कर दिया ताकि मनोज जारांगे का आंदोलन समाप्त हो सके.”

इसमें कहा गया है कि पाटिल — “मराठा पुनरुत्थान की सबसे मजबूत आवाज़” — ने विधेयक को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि इससे सभी मराठों को लाभ नहीं होगा.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(उर्दूस्कोप को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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