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प्रेम की कसौटी पर रची गई ‘परिणीता’ संगीत और बंगाल प्रेमियों के लिए एक नज़ीर है

बेहद ही भारी और दमदार आवाज में अमिताभ बच्चन 1962 के कलकत्ता शहर की पहचान इसके बाजार, कालीबाड़ी मंदिर, ट्राम, कॉफी हाउस, रसगुल्ला, पुचका, फुटबॉल, सियासत, प्रेम, लोलिता और शेखर से करते हैं.

सैफ अली खान और विद्या बालन अभिनीत फिल्म परिणिता | फोटो : विकीमीडिया.ओआरजी

फिल्मों की एक उम्र होती है. जो किसी निश्चित समय तक अपने दर्शकों पर छाप छोड़ती है. ये निश्चित समय कुछ दिन, कुछ महीने, कुछ साल या कभी न खत्म होने वाला समय भी हो सकता है. इन सभी श्रेणियों की फिल्में भारत में बनती आई हैं और आगे भी बनती जाएंगी. जो फिल्म अपने संदेश और कहानी के जरिए लोगों के जहन में सालों याद रहती हैं वो अलहदा तो होती ही हैं बल्कि सिनेमा की कई परतें लिए भी होती हैं. जिसे जितनी बार देखा जाए वो हर बार नए अर्थ दे जाती है.

भारत में उपन्यासों की संस्कृति बड़ी ही समृद्ध रही है. उपन्यासों को बड़े पर्दे पर उतारने की भी बहुत पहले से कोशिशें होती आई हैं. कई बार कामयाबी के साथ असफलता भी मिली है. शरद चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास परिणीता पर बनी फिल्म भारतीय सिनेमा और सिनेमा प्रेमियों के लिए एक अच्छी विरासत है जिसे वो अपनी आगे वाली पीढ़ियों को सिनेमा की अच्छी संस्कृति से रूबरू कराने के लिए कर सकते हैं.

2005 में शरद चंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास पर एक फिल्म परिणीता बनी थी. इस फिल्म को देखे जाने का कोई समय नहीं है. इसे कभी भी कितनी बार भी देखा जा सकता है. इस फिल्म को रचे जाने का तरीका और प्रेम को बुनने की बेजोड़ कोशिश ने आज भी इस सिनेमा को दर्शकों से जोड़ कर रखा हुआ है.

इस फिल्म का संगीत इसकी जान है. शांतनु मोइत्रा का संगीत सुनने वाले के भीतर धीरे-धीरे उतरता चला जाता है.

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बंगाल प्रेमियों के लिए इस फिल्म की शुरुआत ही बेहतर है

गाहे-बगाहे जब भी समाज और संस्कृति की बात होती है तो मिसाल के रूप में बंगाल का ज़िक्र आ ही जाता है. लोग यह कहते हुए मिलते हैं कि बंगाल के लोगों मे अभी भी अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों और परिवार के प्रति जो समर्पण है वो बेहतरीन और सीखने लायक है.

सैफ अली खान और विद्या बालन अभिनीत इस फिल्म की शुरूआत ही बंगाल की चीजों के जिक्र के साथ होती है. बेहद ही भारी और दमदार आवाज में अमिताभ बच्चन 1962 के कलकत्ता शहर की पहचान इसके बाजार, कालीबाड़ी मंदिर, ट्राम, कॉफी हाउस, रसगुल्ला, फुचका, फुटबॉल, सियासत, प्रेम, लोलिता और शेखर से करते हैं. अभी भी ये शहर ज्य़ादा बदला नहीं है. बदली है तो सिर्फ एक चीज. 1962 के कलकत्ते में एक ही लोलिता और शेखर हुआ करते रहे होंगे इस शहर की मिठास और लालित्य भरे माहौल ने वर्तमान में न जाने कितने प्रेमी जोड़ों को बनाया होगा. प्रेम करना सिखाया होगा.

शेखर और लोलिता – बचपन से जवानी तक

लोलिता (विद्या बालन) एक अनाथ लड़की होती है जो अपने मामा-मामी के पास रहने आ जाती है. पास में ही शेखर (सैफ अली खान) का घर होता है. बचपन से ही वो संगीत और धुनों को बनाने की कोशिशों में लगा रहता है. बचपन में ही दोनों की दोस्ती हो जाती है. दोस्ती ऐसी कि लोलिता शेखर के बनाए हर धुन की साक्षी होती है और उसे सुने बिना धुन का कोई मतलब नहीं रह जाता. अपने मामा के साथ रह रही लोलिता को शेखर के पिता नवीन राय की कंपनी में नौकरी मिल जाती है. वहीं उसे पता चलता है कि उसके मामा ने अपनी जिस हवेली को नवीन राय को गिरवी रखी है उसे वो नीलाम कराकर होटल खोलने की योजना बना रहे हैं. यहीं से नवीन राय को लोलिता खटकने लगती है.


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उसी बीच लंदन से आए गिरीश का आगमन होता है. गिरीश को जब पता चलता है कि लोलिता के मामा की हवेली नीलाम होने वाली है तो वो उनकी मदद करता है और हवेली को नीलाम होने से बचा लेता है. यहीं से शेखर को भी लगने लगता है कि लोलिता गिरीश के करीब जा रही है. आमतौर पर होने वाले व्यवहार के अनुसार ही वो लोलिता अपनी बचपन की दोस्त पर शक करने लगता है और उससे सारे रिश्ते तोड़ने का फैसला करता है.

शक की दीवार रिश्तों के कमजोर करती चली जाती है. एक ऐसा रिश्ता जो बचपन से ही बना हो. जिसे बनते हुए, मजबूत होते हुए, मुश्किल समय के साक्षी रहे दो लोगों ने एक साथ अनुभव किया हो उसका टूटना या उसमें दरार आना गहरा जख्म देता है. ऐसा ही जख्म लोलिता और शेखर एक दूसरे के लिए महसूस करते हैं. उसी बीच शेखर के पिता दोनों परिवारों को अलग करने के लिए घरों के बीच दीवार बनवा देते हैं. ऐसा होते देख लोलिता के मामा को हार्ट अटैक आ जाता है. इलाज कराने के लिए पूरा परिवार गिरीश के साथ लंदन चला जाता है. इधर शेखर को पता चलता है कि लोलिता और गिरीश की शादी होने वाली है. उसे गहरा धक्का लगता है. उसके मन में लोलिता के प्रति प्रेम और उसके दूर चले जाने के ख्याल से ही एक असाध्य सी पीड़ा होने लगती है.

प्रेम भूलना नहीं सिखाता

शेखर के पिता नवीन राय अपने बिजनैस पार्टनर की बेटी गायत्री तांतिया (दिया मिर्जा) से शेखर की शादी कराना चाहते हैं. शेखर इसके पक्ष में नहीं होता है. लेकिन लोलिता के दूर जाने के कारण वो इस शादी के लिए हां कर देता है. अचानक से उसे पता चलता है कि लोलिता के मामा की मृत्यु हो गई है और पूरा परिवार वापस कलकत्ता आ रहा है. शेखर के मन में फिर से सारी यादें ताजा हो जाती हैं जिसे वो अभी तक ठीक से भूल भी नहीं पाया था.

लोलिता के परिवार के साथ गिरीश भी कलकत्ता आता है और शेखर से मिलने उसके घर जाता है. तभी उसे पता चलता है कि गिरीश ने लोलिता से शादी नहीं की थी. उसने गिरीश को बताया कि उसकी शादी हो चुकी है. तभी शेखर को याद आता है कि उसी ने तो उसे माला पहनाई थी और कहा था कि हमारी शादी हो गई है. प्रेम की असफलता सफलता में बदलती नज़र आने लगती है. शेखर आत्मगिलानी से भर जाता है और लोलिता से मिलना चाहता है. तभी उसके पिता आते हैं और गायत्री से शादी के लिए नीचे चलने को कहते हैं.

शेखर पहली बार अपने पिता के सामने ठीक से कुछ बोल पाता है. पितृसत्तात्मक घर में अपनी खुशी के लिए और सत्य के प्रति आवाज उठती है. जिससे नवीन राय को गहरा धक्का लगता है. बनी बनाई परंपराएं टूटती हैं और आत्मसम्मान और प्रेम के लिए, अपनी लोलिता के लिए शेखर अपना फर्ज निभाता है.


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फिल्म के अंत में बॉलीवुड की बने हुए नियम के अनुसार ही इस सिनेमा में भी हीरोइज्म को बढ़ावा देते हुए दिखाया गया है. नवीन राय द्वारा बनवाई गई दीवार को शेखर तोड़ने में लग जाता है और खड़े हुए बाकी लोग उसे कहते हैं – तोड़ शेखर तोड़. हीरोइज्म और पितृसत्तात्मक सोच को जहां एक तरफ शेखर चुनौती देता है वहीं दूसरे ही क्षण वो भी उसी काम में लग जाता है. दीवार टूटते ही उसे लोलिता दिखाई पड़ती है. प्रेम में पड़े दो लोग चंद कदम की दूरी पर खड़े हैं. कुछ क्षणों के भीतर यह दूरी कम होते होते दो लोगों के बाहों में समां जाने के बाद बची दूरी के समान ही बचती है. एक बार फिर से सिनेमा के पुराने ढर्रे की ही तरह हैप्पी एंडिंग हो जाती है.

अंत में ये फिल्म जरुर थोड़ी बोझिल लगने लगती है. लेकिन इस सिनेमा के संगीत और प्रेम की बुनावट आपको आकर्षित करेगी. कई बरसों के बाद भी इस सिनेमा को देखा जाना चाहिए और आप जितनी बार इसे देखेंगे प्रेम की परिभाषा में शब्द और अनुभव जुड़ते चले जाएंगे.

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